असहिष्णु इस्लाम बनाम धर्मनिरपेक्षता – आर जगन्नाथन

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केवल जाकिर नाइक ही क्यों ? सेक्युलर मुसलमानों को सऊदी अरब के खिलाफ भी आवाज बुलंद करना चाहिए !

आजकल फिजा में नाइक पर प्रतिबंध लगाने की मांग गूँज रही है, लेकिन क्या यह समस्या का हल है ?

नाइक के समर्थकों का तर्क है कि उसने आतंकवाद की वकालत कभी नहीं की, लेकिन उसका सर्वाधिक कुख्यात भाषण कुछ और कहानी कहता है, जिसमें उसने कहा कि – अगर मुसलमानों को आतंकित किया जाता है तो सभी मुसलमानों को आतंकवादी हो जाना चाहिए !

जो मुसलमान भारत या अमेरिका या यूरोप जैसे धर्मनिरपेक्ष देशों में रह रहे हैं, उनके सामने आगे चलकर देर सबेर एक ही रास्ता शेष रहेगा और वह है इस्लामी आतंक के खिलाफ अधिकतमवादी और स्पष्ट रीति, नीति और स्थिति । इसका सीधा सा कारण है, इस्लामी विचार से होने वाला आतंक का पोषण ।

इस विषय पर बहस तब शुरू हुई, जब यह तथ्य प्रकाश में आया कि ढाका में 20 लोगों की ह्त्या करने वाले आतंकियों का मुख्य प्रेरणास्त्रोत इस्लामी उपदेशक जाकिर नाइक था ! यह तथ्य प्रकाश में आने के बाद भारत सहित दुनिया भर में बसने वाले मुसलमानों के लिए यह अत्यावश्यक हो गया है कि वे ऐसे तत्वों का न केवल बहिष्कार करें, बल्कि अपने धर्म से प्रेरित आतंकवाद के खिलाफ एक स्पष्ट स्टैंड लेना शुरू करें। अब यह कहने भर से काम नहीं चलने वाला कि आतंक का कोई धर्म नहीं होता या आतंक और इस्लाम का कोई सम्बन्ध नहीं है ।

नाइक पर प्रतिबंध लगाने की मांग जोरशोर से उठ रही हैं, लेकिन प्रतिबंध समस्या का समाधान नहीं है। वास्तविकता यह है कि उस पर प्रतिबन्ध लगाने से वह अन्य मुसलमानों के लिए एक नायक बन जाएगा, जोकि एक अत्याधिक बुरी बात होगी, इससे तो अच्छा है कि उसे बकबास करने दी जाए । यह मुसलमानों को तय करना है कि वे उसके बताये इस्लाम की ओर जाना पसंद करते हैं, या धर्मनिरपेक्ष भारत द्वारा दिए गए अधिकारों की कद्र करते हैं । इस समय भारतीय मुसलमानों को विचार करना चाहिए और इस बात की चिंता करनी चाहिए कि एक बदमाश उपदेशक, लोगों को उपदेश देने के नाम पर कितनी बड़ी तबाही को आमंत्रित कर सकता है । आपको बड़ी संख्या में लोगों को मारने के लिए किसी अबू-बकर अल-बगदादी जैसे तथाकथित खलीफा की आवश्यकता नहीं है।

अभी तक मुसलमानों द्वारा इस प्रकार के बहाने बनाए जाते रहे हैं :

पहला तो यह कि आतंकवादी मुसलमान ही नहीं हैं। ज़ाहिर है कि यह फिजूल का तर्क है। जब आतंक का पूरा खाका ही काफिरों से लड़ने के लिए कुरान में दिए गए विशिष्ट प्रोत्साहन से तैयार किया जाता है, तो यह कहना आतंकवादी मुस्लिम नहीं हैं, एक सफ़ेद झूठ है।

दूसरा यह कि कुरान के अनुसार आतंकवाद न्याय संगत नहीं है। यह बहाना भी सत्य से आँख चुराने जैसा ही है । केवल कुरान ही नहीं, बल्कि उनका लगभग हर धार्मिक लेख निर्दोष लोगों के खिलाफ हिंसा का सन्देश देता है । अगर हम इन धार्मिक मान्यताओं को सच के रूप में स्वीकार करते हैं, अगर मुसलमान यह मानते हैं कि पवित्र कुरान की हर बात भगवान के अंतिम शब्द है, तो यह कहना पूरी तरह भ्रामक है कि आतंकवादियों ने पुस्तक की गलत व्याख्या की है।

सचाई तो यह है कि कोई भी पवित्र पुस्तक, थोड़े बहुत सामान्य ज्ञान, आधुनिक संवेदनशीलता, और किन परिस्थितियों में लिखी गईं, उन पर ध्यान दिए बिना नहीं पढी जा सकतीं । यह एक शास्त्र की पवित्रता को स्वीकार करने का सर्वोत्तम मार्ग है, साथ ही यह भी कि उसके असंगत औ खराब अंश को अस्वीकार किया जाए ।

तीसरा बचाव जो मुसलमान करते हैं, वह यह कि समाज में होने वाला सामाजिक अन्याय मुसलमानों को आतंकवाद की दिशा में ले जाता है । झूठ के इस पुलंदे में सच्चाई बहुत कम है । अगर यह विशिष्ट किस्म का आतंकवाद, अन्याय के कारण है, तब तो पूरी दुनिया को आतंकवाद में डूब जाना चाहिए। भारत सहित दुनिया के सारे गरीब देशों में हमेशा खुद के साथ युद्ध चलते रहना चाहिए। हमारे यहाँ भी अन्याय की किसी भी प्रकार की कमी तो है नहीं, लेकिन ढाका के आतंकवादी तो संपन्न व समृद्ध पृष्ठभूमि के नबाबजादे थे ।

यहाँ तक कि माओवादियों की वर्ग संघर्ष संकल्पना में भी लोगों की इसप्रकार की हत्या का कोई औचित्य नहीं है । आखिर उन्होंने भी वर्ग संघर्ष बंचित और शोषक के बीच माना है, धर्म के आधार पर नहीं ! यहाँ तो शोषक आतंकी ही दिखाई दे रहे हैं ।

चौथा बहाना कि सौम्य और आधुनिक दिखने जाकिर नाईक जैसे अंग्रेजी में बात करने वाले इस्लामवादी, उन एके -47 थामे जंगली आंखों वाले आईएस के जिहादियों से कम खतरनाक हैं। वास्तव में, कोई भी आतंक तब तक नहीं फ़ैल सकता, जब तक उसका कारण उपलब्ध कराने के लिए कोई विचारक न हो । और आधुनिक दिखने वाले, सौम्य ढंग से बात करने वाले प्रचारकों के परिष्कृत तर्क आम मुसलमानों को भड़काने में सबसे खतरनाक भूमिका निबाहते हैं । एक हिंसक जिहादी की पहचान कर उसे बेअसर करना आसान है। जबकि तथाकथित पीस टीवी पर प्रवचन देते तथाकथित विद्वान को आतंकी सिद्ध करना उतना ही मुश्किल है।

संभवतः बिना सोचे समझे अक्सर कहा जाता है कई मुसलमान भी तो आतंकवादियों द्वारा मारे जा चुके हैं, और इसलिए आतंकवादी मुसलमान नहीं हैं। इसका मतलब क्या यह नहीं है कि अगर मुसलमान अन्य धर्मों के लोगों की ह्त्या करे तो ही वह मुसलमान माना जाएगा? क्या मौलिक रूप से यह विचार ही गलत नहीं है?

जब नाइक ने कहा कि अगर ओसामा बिन लादेन इस्लाम के दुश्मनों से लड़ रहां है, तो मैं उसके साथ हूँ। अगर वह अमेरिका जैसे सबसे बड़े आतंकवादी को आतंकित कर रहा है तो मैं उसके साथ हूं। इसी संदर्भ में उसने कहा कि सभी मुसलमानों को आतंकवादी होना चाहिए ।

किसी मुसलमान ने उससे नहीं पूछा कि उसने कैसे फैसला कर लिया कि अमेरिका एक आतंकवादी और इस्लाम के खिलाफ है ?

अगर प्रतिक्रिया स्वरुप आतंक जायज है तो इस तर्क से तो गैर-मुसलमानों को भी मुसलमानों से बदला लेना चाहिए, क्योंकि वे तो अपने शासनकाल में लगातार अन्य धर्मों को दबाते आये हैं । भारत के बाहर, और संभवतः इंडोनेशिया और तुर्की के अलावा कोई इस्लामी देश ऐसा नहीं है, जहाँ अपनी आस्था के अनुसार धार्मिक स्वतंत्रता प्रदान की गई हो । धीरे धीरे तुर्की और इंडोनेशिया भी कट्टर इस्लामी स्वरुप में बदल रहे हैं। मुसलमानों को चाहिए कि वे खुद गलत तर्कों के लिए नाईक की मजम्मत करें ।

मुसलमानों के पास भारत या अमेरिका या यूरोप जैसे धर्मनिरपेक्ष देशों में रहने के लिए आगे एक ही रास्ता है, और वह है इस्लामी आतंक के खिलाफ एक अधिकतम स्पष्ट स्थिति । इस आतंक का एक महत्वपूर्ण घटक है वैचारिक इस्लामवाद । अतः यह आवश्यक है कि जिहाद पर बहस के दौरान किसी अन्य का विरोध करते समय कुरान की आयतों का उपयोग बंद हो ।

इन सबसे बढ़कर आदर्श स्थिति तो यह होगी कि जिन देशों में धर्मनिरपेक्षता पूर्व से ही प्रचलन में है, इस्लामी देशों में भी उसे सिद्धांत रूप में स्वीकार किया जाए ।

मुसलमानों को असंदिग्ध रूप से कहना चाहिए कि सऊदी अरब को भी इस्लाम के प्रचार से कोई मतलब नहीं होना चाहिए । इतना ही नहीं तो सऊदी अरब में भी अन्य धर्मों की गतिविधियाँ चलाने की अनुमति मिलनी चाहिए।

यह कैसी धर्मनिरपेक्षता है जो भारत में तो अच्छी है, लेकिन सऊदी अरब, ईरान, अरब या पाकिस्तान और यहां तक कि मालदीव में स्वीकार नहीं? मुसलमानों को केवल उन स्थानों पर धर्मनिरपेक्षता की बात करने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है, जहां वे अल्पसंख्यक हैं ।

यहाँ यह स्मरणीय है कि नाइक ने मक्का और मदीना में गैर मुसलमानों पर लगे प्रतिबंध का किस प्रकार बचाव किया था : ये इस्लाम के गढ़ हैं, अतः यहाँ अन्यों का प्रवेश वर्जित है।

इस बिंदु पर खुद मुसलमानों को ही जाकिर नाईक के साथ बहस शुरू करना चाहिए। उन्हें चाहिए कि वे उनके पवित्रतम स्थानों के संरक्षक, और वहाबी की जड़ सऊदी अरब से ही असहिष्णु इस्लाम बनाम धर्मनिरपेक्षता के वैचारिक संघर्ष का आगाज करें ।

प्रस्तुत आलेख स्वराज्य के संपादकीय निदेशक श्री आर. जगन्नाथन के अंग्रेजी लेख का हिन्दी रूपांतर है ! श्री जगन्नाथन ट्विटर पर @TheJaggi से ट्वीट करते हैं !

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