इतिहास का महासागर : हरदयाल म्युनिसिपल पब्लिक लाइब्रेरी

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“इतिहास हमारी आंखें खोलता है, मानवीय गतिविधियां कई तरह से कई स्तरों पर चलती रहती है इतिहास उनके अनेक अर्थ खोलता है और उनमें रुझान और प्रवृत्तियां ढूंढ़ता हैं. वह तमाम घटनाओं को तरकीब से इकट्ठा करता है,उन्हें आपस में जोड़ता है और उनकी व्याख्या करता है.”

इस वर्ष हरदयाल म्युनिसिपल पब्लिक लाइब्रेरी के 150 वर्ष और वर्तमान भवन में स्थापित इस पुस्तकालय के 100 वर्ष पूरे हो रहे है. इन ऐतिहासिक क्षणों में इस पुस्तकालय से जुड़ी जानकारी आपको देते हुए मुझे गर्व का अहसास हो रहा है. इस पुस्तकालय ने भारत के पुस्तकालय आन्दोलन में अपनी अहम भूमिका निभाई है. और मुझे पूरा विश्वास है कि यह पुस्तकालय आगे भी अपनी अहम् भूमिका निभाता रहेगा.

इस पुस्तकालय का इतिहास बहुत पुराना है . हमे यह जानना बहुत जरुरी है कि इस पुस्तकालय का विकास किस प्रकार हुआ? यह पुस्तकालय अपने मौजूदा रूप में हमारे सामने कैसे आया? इस पुस्तकालय में कहाँ-कहाँ से पाठक अध्ययन करने आते थे? इस पुस्तकालय ने पुस्तक संस्कृति को बढ़ावा देने में अपनी भूमिका को कैसे निभाया? इन विषयों पर कभी ओर जिक्र करूँगा किन्तु आज इस पुस्तकालय को भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में विश्व धरोहर के रूप में पहचाना जाने लगा है.

हरदयाल म्युनिसिपल पब्लिक लाइब्रेरी विश्व धरोहरों में एक जीवंत प्रतीक है जिसकी छटा चारो तरफ बिखरी पढ़ी है. बस हमे इसके समृद्ध इतिहास को आम पाठक तक पहुचने का काम करना है . यह कोई एक व्यक्ति के हाथ का काम नहीं है. हम सब को मिलकर इसके इतिहास को जानना और समझना भी है. यह पुस्तकालय पुरानी दिल्ली के चांदनी चौक स्थित मेट्रो स्टेशन के सामने सबसे पुरानी लाइब्रेरी के रूप में आज भी बना हुआ है. सबसे बड़ी बात यह है कि पुस्तकालय भवन गिने-चुने ‘हेरिटेज भवनों’ में शामिल किया जा चूका है.

माना जाता है कि इस पुस्तकालय की स्थापना सन् 1862 में हुई थी. यह वायसराय के नाम पर बने लारेंस इंस्टीट्यूट के रीडिंग रूम( जो इंस्टीट्यूट लाइब्रेरी) के नाम से भी जाना जाता था. देश क्रान्तिकारियो ने दिसम्बर 1912 में तत्कालीन वायसराय लार्ड हार्डिग पर बम फेंका था लेकिन वायसराय इस बम्ब कांड में बच गये . वायसराय की जिंदगी के बच जाने की खुशी में 1916 वर्तमान भवन बन कर तैयार किया और ‘हार्डिग म्युनिसिपल पब्लिक लाइब्रेरी’ के नाम से मशहूर हो गई. आजादी के बाद 1970 में इस पुस्तकालय का नाम बदलकर ‘हरदयाल म्युनिसिपल पब्लिक लाइब्रेरी’ कर दिया गया.जो आज भी इसी नाम से चल रही है.

इस पुस्तकालय की पूरी दिल्ली में सुचारु रूप से 17 शाखाएं चल रही है. इन पुस्तकालयों पुस्तकों की संख्या लगभग 1 लाख 70 हजार तक पहुंच चुकी है . यह पुस्तकालय अपनी दुर्लभ पांडुलिपियों और पुरानी ऐतिहासिक महत्त्व की पुस्तकों की वजह से हमेशा चर्चा में रही है .इस पुस्तकालय में दूर दराज से पाठक अपनी ज्ञान पिपासा को दूर करने के लिए आते रहते है .पुस्तकालय के महत्त्व का अंदाजा आप इस बात से भी लगा सकते है कि वर्मान पुस्तकालय में हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू अरबी, फारसी से लेकर संस्कृत की पुस्तकों का समृद्ध भंडार है.जो कही अन्य देखने को नहीं मिलता है.

पुस्तकालय में ट्रावैली बेगवेन दवारा अंग्रेजी में लिखित ‘अ रिलेशन ऑफ सम इयर्स’ 1634 की छपी सबसे पुरानी पुस्तक आज भी सुरक्षित रूप में मोजूद है . इसी प्रकार सर वाल्टर रेले की 1677 में छपी ‘हिस्ट्री ऑफ वर्ल्ड’ और 1705 की जान फ्रेंसिस की ‘वायसेज अराउन्ड द वर्ल्ड’ जैसी पुस्तकें भी दुर्लभ मानी जाती है. अन्य पुस्तकों में रघुवर दयाल मुंशी द्वारा उर्दू में लिखित ‘श्रीमद्भागवत गीता’ और तीन खंडों में अबुल फजल फैजी (अकबर के नवरत्नों में से एक) द्वारा फारसी में रचित महाभारत की पांडुलिपियों अद्वितीय है. तीन खंडों में लिखी गयी इस महाभारत पुस्तक का प्रकाशन 1865 का है . दिल्ली के गली-कूंचों, मस्जिदों, मीनारों और मंदिरों के बारे 1919 में उर्दू में लिखी दुर्लभ पुस्तक ‘वाकया दारूल हुकूमत देलही’ दिल्ली की तस्वीर पेश करती है. पुस्तकालय में श्याम काशी प्रेस द्वारा 1898 में प्रकाशित ‘चरक संहिता’ और ब्रजभाषा से 1881 में अनुवाद की हुई पुस्तक ‘प्रेमसागर’ भी यहाँ पर मोजूद है.

पुस्तकालय में विश्व हिन्दी कोश के सभी खंडों से लेकर संस्कृत, अरबी, उर्दू पाली भाषाओं से अंग्रेजी एवं हिन्दी के शब्दकोश भी मौजूद है . चारों वेदों और उपनिषदों पर भाष्यो का इतना सुंदर संग्रह शायद ही कही ओर देखने को मिले . ज्योतिष की सबसे प्रसिद्ध पुस्तक, ‘लाल किताब’ से लेकर सांख्य, न्याय दर्शन व भारतीय दर्शन के इतिहास का संयोजन भी बढ़िया है. डिकिन्स, हेमिंग्वे और अन्य फिक्शन लेखकों की बदौलत अंग्रेजी फिक्शन मैं भी लाइब्रेरी की समृद्धि कम नहीं है .

अंग्रेजों द्वारा लायी गई किताबों में ब्रिटेन, रोम, मंगोल के इतिहास से लेकर ‘सर मार्को पोलो’ एवं ‘सर्वे ऑफ इंडिया’ (1934) और इलाहाबाद प्रेस से 1904 में छपी तीन खंडों में ‘राजपूताना गजट’ एक आम पाठक को उसकी रुचियों की सीमाओं से आगे ले जाती है. इस पुस्तकालय में गालिब, जौक, दाग, मजाज, जोश मलीहाबादी, फैज, फिराक, अहमद फराज आदि तमाम शायरों की किताबें प्रचीन पुस्तक संस्कृति से परिचय कराती है. फाइन आर्ट्स और संगीत प्रभाग भी यहां अपनी जगह बखूबी बनाए हुए है. ‘रीडिंग म्यूजिक एड डांस’ , ‘इंडियन म्यूजिक’, ‘द म्यूजिक आफ इंडिया’ और बैले की ‘ द लाइफ आफ म्यूजिक इन नार्थ इंडिया’ जैसी किताबें संगीत की विविधता और गहराई की व्यापक तस्वीर पेश करने में कोई कसर नहीं छोड़ती. ‘ द न्यू सोनियत थिएटर’ की तो बात ही अलग है.

एक खास बात यह भी देखने को मिली है कि इस पुस्तकालय में व्यंग्य विरासत के परिचित और अपरिचित सभी लेखकों की पुस्तके उपलब्ध है. इनमे परसाई, शरद जोशी,रविन्द्र त्यागी प्रेम जन्मेजय और सुरेश कान्त से लेकर नये पुराने व्यंगकार अपनी उपस्थिति से पाठको को अपनी तरफ आकर्षित करने में सफल हुए है.

लाइब्रेरी की सीढ़ियां आज भी अंग्रेज वास्तुकला का अद्भुत नजारा पेश करती है. पुस्तकालय को इस प्रकार बनाया गया था कि जब भी पुस्तकालय में साहित्यिक गतिविधियां हो तो पुरुष और महिलायें अलग अलग मंजिल पर बैठ कर साहित्य का रसास्वादन कर सके. पुस्तकालय के ऊपरी मंजिल पर बने गुम्बद आज भी पुरानी दिल्ली की याद ताजा कर देती है.

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