ऋषि दयानन्द के बलिदान व महाप्रयाण की कारुणिक कथा

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मनमोहन कुमार आर्य
ऋषि दयानन्द जी का जीवन गुणों व कार्यो की दृष्टि से जितना सर्वांगपूर्ण और शिक्षाप्रद है उतनी ही उनकी मृत्यु भी आदर्श है। कार्तिक अमावस्या के दिन अजमेर नगर में उनका बलिदान वा महाप्रयाण हुआ। स्वामी जी को जोधपुर प्रवास में विष दिया गया था। इससे पूर्व भी अनेकों बार उन्हें विष दिया गया। पूर्व के सभी अवसरों पर वह यौगिक एवं अन्य क्रियाओं द्वारा विष का प्रभाव समाप्त करने में सफल रहते थे। ऋषि दयानन्द जोधपुर वहां के राजा जसवन्त सिंह व उनके अनुज महाराज प्रताप सिंह के निमंत्रण पर गये थे और वहां राज्य के अतिथि थे। विष दिये जाने के बाद वहां उनका समुचित उपचार व चिकित्सा नहीं हुई। उनकी शारीरिक स्थिति अत्यन्त निराशाजनक हो जाने पर उन्हें वहां से आबूरोड और उसके बाद आबूरोड से अजमेर लाया गया जहां उनका दीपावली 30 अक्तूबर सन् 1883 को सायं 6:00 बजे बलिदान हुआ। उनकी मुत्यु के दिन का वृतान्त हम उनके एक जीवनीकार एवं शिष्य स्वामी सत्यानन्द जी के शब्दों में वर्णन कर रहे हैं।

स्वामी सत्यानन्द जी लिखते हैं कि कार्तिक कृष्णा 14 को महाराज के शरीर पर नाभि तक छाले पड़ गये थे, उनका जी घबराता था, गला बैठ गया था। श्वास-प्रश्वास के वेग से उनकी नस-नस हिल जाती थी। सारी देह में दाह-सी लगी हुई थी। परन्तु वे नेत्र मूंदकर ब्रह्म ध्यान में वृत्ति चढ़ाये हुए थे। अजान लोग उनकी इस ध्यानावस्था को मूर्छा मान लेते थे। जब शरीर अपने व्यापार से शिथिल हो जाय और बोलने आदि की शक्ति भी मन्द पड़ जाय तो सभी सन्तजन मनोवृत्तियों को मूर्छित करके निमग्नावस्था में चले जाया करते हैं।

कार्तिक अमावस्या मंगलवार (30 अक्तूबर, सन् 1883), दीपमाला के दिन, सवेरे, विदेशी बड़ा डाक्टर न्यूटन महाशय आया। उसने उनके रोग-भोग की अवस्था देखकर आश्चर्य से कहा कि ये बड़े साहसिक और सहनशील हैं। उनकी नस-नस और रोम-रोम में रोग का विषैला कीड़ा घुसकर कुलबुलाहट कर रहा है परन्तु ये प्रशान्तचित्त हैं। इनके तन पिंजर को महाव्याधि की ज्वाला-जलन जलाये चली जाती है जिसे दूर से देखते ही कंमकंपी छूटने लगती है। पर ये हैं कि चुपचाप चारपाई पर पड़े हैं। हिलते-डुलते तक नहीं। रोग में जीते रहना इन्हीं का काम है। भक्त लक्ष्मरणदास ने उनसे कहा कि महाशय ये महापुरुष स्वामी दयानन्दजी हैं।

यह सुनकर डाक्टर महाशय को अत्यधिक शोक हुआ। महाराज ने उस बड़े वैद्य के प्रश्नों का उत्तर संकेत-मात्र से दिया। एक मुसलमान वैद्य, पीरजी, बड़े प्रसिद्ध थे। वे भी उनको देखने आये। उन्होंने आते ही कह दिया-‘उनको किसी ने कुलकण्टक विष देकर अपनी आत्मा को कालख लगाई है। इनकी देह पर सारे चिन्ह विष-प्रयोग-जन्य दिखाई देते हैं’। पीर जी ने भी महाराज का सहन-सामर्थ्य देख दांतों में उंगली दबाते हुए कहा, धैर्य का ऐसा धनी, धरणी-तल पर हमने दूसरा नहीं देखा।

इस प्रकार राजवैद्यों और भक्तजनों के आते जाते दिन के ग्यारह बजने लगे। रोगी का सांस अधिक फूलने लगा। वे हांफते तो बहुत थे परन्तु बोलने की शक्ति कुछ लौट आई थी। उनका कण्ठ खुल गया था। इससे प्रेमियों के मुखमण्डों पर प्रसन्नता की रेखा खेलने लगी। परन्तु पीछे जाकर उन्हें पता लगा कि वह तो दीपक-निर्वाण की अन्तिम प्रदीप्ति थी। सूर्यास्त का उजेला था।

महाराज ने उस समय शौच होने की इच्छा प्रकट की। चार भक्तों ने उन्हें हाथों पर उठाकर शौच होने की चैकी पर बिठा दिया। निवृत होकर वे फिर भली भांति शुद्ध हुए और आसन पर विराजमान हो गये।

उस समय स्वामीजी ने कहा कि आज इच्छानुकूल भोजन बनाइए। भक्तों ने समझा कि भगवान् आज अपेक्षाकृत कुछ स्वस्थ हैं, इसलिए अन्न ग्रहण करना चाहते हैं। ये थाल लगाकर श्री महाराज के सामने ले आये। स्वामीजी ने टुक देखकर कहा कि अच्छा, इसे ले जाइए। अन्त में प्रेमियों की प्रार्थना पर उन्होंने चनों के झोल का एक चमचा ले लिया फिर हाथ मुंह धोकर भक्तों के सहारे वे पलंग पर आ गये।

शरीर की वेदना बराबर ज्यों की त्यों बनी हुई थी। श्वास रोग का उपद्रव पूरे प्रकोप पर पहुंच चुका था। पर वे शिष्य-मण्डली से वार्तालाप करते और कहते थे कि एक मास के अनन्तर आज स्वास्थ्य कुछ ठीक हुआ है। बीच-बीच में जब वेदना का वेग कुछ तीव्र हो जाता तो वे आंखें बन्दकर मौन हो जाते। उस समय उनकी वृत्ति स्थूल शरीर का सम्बन्ध छोड़ देती–आत्माकारता को लाभ कर लेती।

इसी प्रकार पल विपल बीतते सांझ के चार बजने को आये। भगवान् ने नाई को बुलाकर क्षौर करने को कहा। लोगों ने निवेदन किया कि भगवान् उस्तरा न फिराइए। छालें फुंसियां कटकर लहू बहने लगेगा, परन्तु उन्होंने कहा कि इसकी कोई चिन्ता नही है। क्षौर कराकर उन्होंने नख उतरवाए। फिर गीले तौलिये से सिर को पोंछकर सिरहाने के सहारे पलंग पर बैठ गये।

उस समय श्री महाराज ने आत्मानन्द जी को प्रेम से आहूत किया। जब आत्मानन्दजी हाथ जोड़कर सामने आ खड़े हुए तो कहा-वत्स, मेरे पीछे बैठ जाओं। गुरुदेव का आदेश पाकर वे सिराहने की ओर, तकिये के पास प्रभु की पीठ थामकर विनय से बैठ गये।

महाराज ने अतीव वत्सलता से कहा-वत्स, आत्मानन्द, आप इस समय क्या चाहते हैं? महाराज के वचन सुनकर आत्मानन्द जी का हृदय भर आया। उनकी आंखों से एकाएक आंसुओं की लड़ी टूट पड़ी। गद्गद् गले से आत्मानन्द जी ने नम्रीभूत निवेदन किया कि यह, ‘तुच्छ सेवक रात-दिन प्रार्थना करता है कि परमेश्वर अपनी अपार कृपा से श्रीचरणों को पूर्ण स्वास्थ्य प्रदान करें। इसे इससे बढ़कर त्रिभुवन भर में दूसरी कोई वस्तु प्रिय नहीं है।’

महाराज ने हाथ बढ़ाकर आत्मानन्दजी के मस्तक पर रक्खा और कहा-वत्स इस नाशवान् क्षणभंगुर शरीर को कितने दिन स्वस्थ रहना है। बेटा अपने कर्तव्य कर्म को पालन करते हुए आनन्द से रहना। घबराना नहीं। संसार में संयोग और वियोग का होना स्वाभाविक है।

महाराज के इन वचनों को सुनकर आत्मानन्द जी सिसक कर रोने लगे। गुरुवियोग-वेदना को अति समीप खड़ा देखकर उनका जी शोक-सागर के गहरे तल में डूब गया।

गोपालगिरी नाम के एक संन्यासी भी कुछ काल से श्रीचरण-शरण में वास करते थे। महाराज ने उनको आमन्त्रित करके कहा कि आपको कुछ चाहिए तो बता दीजिए। उन्होंने भी यही विनय की कि भगवन् हम लोग तो आपका कुशल-क्षेम ही चाहते हैं। हमें सांसारिक सुख की कोई भी वस्तु नहीं चाहिए। फिर महाराज ने दो सौ रुपये और दो दुशाले मंगाकर भीमसेन जी और आत्मानन्दजी को प्रदान किये। उन दोनों ने अश्रुधारा बहाते, भूमि पर सिर रखकर, वे वस्तुयें लौटा दीं। वैद्यवर भक्तराज श्रीलक्ष्मरणदास जी को भी भगवान् ने कुछ द्रव्य देना चाहा, परन्तु उन्होंने द्रवीभूत हृदय से कर जोड़कर लेने से इनकार कर दिया।

इस प्रकार अपने शिष्यों से गुरु महाराज की विदा होते देखकर आर्य जनों के चित्त की चंचलता और चिन्ता की प्रचण्डता चरम सीमा तक पहुंच गई। वे बड़ी व्याकुलता से सामने आ खड़े हुए। उस समय, श्री स्वामी जी, अपने दोनों नेत्रों की ज्योति सब बन्धुओं के मुखमण्डलों पर डालकर, एक नीरव पर अनिर्वचर्नीय स्नेह-संताप सहित, उनसे अन्तिम विदाई लेने लगे। उनके प्रेम पूर्ण नेत्र, अपने पवित्र प्रेम के सुपात्रों को धैर्य देते और ढ़ाढस बंधाते प्रतीत होते थे। महाराज प्रसन्न-चित्त थे। उनके मुख पर घबराहट का कोई भी चिन्ह परिलक्षित नही होता था।

परन्तु भक्त जनों की आशायें क्षण-क्षण में निराशा निशा में लीन हो रही थी। उनके उत्साह की कोमल कलियों के सुकोमल अंग पल-पल में भंग हुए चले जाते थे। वे गुरुदेव की दैवी देह के देव-दुर्लभ दर्शन पा तो रहे थे, परन्तु उनकी आंखों के आगे रह-रह कर आंसुओं की बदलियां आ जाती थीं। रुलाई का कुहरा छा जाता था। सर्वत्र निविड़ तमोराशि का राज्य दिखाई देने लगता था। वे जी (अपने मन व चित्त) को कड़ा किये कलेजा पकड़ कर खड़े तो थे, परन्तु खोखले पेड़ और भुने हुए दाने की भांति, मानो सत्व रहित थे।

ऐसी दशा ही में सायंकाल के पांच बजने लगे। उस समय एक भक्त ने पूछा कि भगवन्, आपकी प्रकृति कैसी है? श्रीमहाराज ने उत्तर दिया कि अच्छी है, प्रकाश और अन्धकार का भाव है। इन्हीं बातों में जब साढ़े पांच बजे तो महाराज ने सब द्वार खुलवा दिये। भक्तों को अपनी पीठ के पीछे खड़े होने का आदेश किया। फिर पूछा कि आज पक्ष, तिथि और बार कौन सा है। पण्ड्या मोहनलाल ने शिरोनत होकर निवेदन किया कि प्रभो, कार्तिक कृष्ण पक्ष का पर्यवसान और शुक्ल का प्रारम्भ है। अमावस्या और मंगलवार हैं।

तत्पश्चात् महाराज ने अपनी दिव्य दृष्टि को उस कोठरी के चहुं ओर घुमाया और फिर गम्भीर ध्वनि से वेद-पाठ करना आरम्भ कर दिया। उस समय उनके गले में, उनके स्वर में, उनके उच्चारण में, उनकी ध्वनि में, उनके शब्दों में किंचिन्मात्र भी निर्बलता प्रतीत नहीं होती थी।

भगवान् के होनहार भक्त, पण्डित श्री गुरुदत्त जी उस कमरे में एक कोने में भित्ति के साथ लगे हुए, भगवान् की भौतिक दशा के अन्त का अवलोकन कर रहे थे। टकटकी लगाये निर्निमेष नेत्रों से उनकी ओर देख रहे थे।

पण्डित महाशय उस धर्मावतार के दर्शन करने पहले पहल ही आये थे। उनके अन्तःकरण में अभी आत्म-तत्व का अंकुर पूर्ण-रूप से नहीं निकल पाया था। परन्तु श्रीमहाराज की अन्तिम दशा को देखकर वे अपार आश्चर्य से चकित हो गये। वे चैकसाई विचार से देख रहे थे कि मरणासन्न महात्मा के तन पर अगणित छाले फूट निकले हैं, उनको विषम वेदना व्यथित किये जाती है। उनकी देह को दावानल सदृश दाह-ज्वाला एक प्रकार से दग्ध कर रही है। प्राणान्तकारी पीड़ा उनके सम्मुख उपस्थित है। परन्तु महात्मा शान्त बैठे हैं। दुःखक्लेश का नाम-निर्देश तक नहीं करते। उलटे गम्भीर गर्जना से वेद-मन्त्र गा रहे हैं। उनका मुख प्रसन्न है। आंखे कमल सदृश खिल रही हैं। व्याधि मानों उनके लिए त्रिलोकी में त्रयकाल, उत्पन्न ही नहीं हुई। यह सहनशीलता शरीर की सर्वथा नहीं है, अवश्यमेव यह इनका आत्मिक बल है।

यह पहला पल था कि जिस महर्षि की मृत्यु की अवस्था देखकर श्रीगुरुदत्त जैसे धुरन्धर नास्तिक के हृदय की उपजाऊ भूमि में आत्मिक जीवन की जड़ लग गई। इन भावों की विद्युत रेखा चमकते ही वे सहसा चैंक पड़े। उन्होंने क्या देखा कि एक ओर तो परमधाम को पधारने के लिए प्रभु परमहंस पलंग पर बैठे प्रार्थना कर रहे हैं और दूसरी ओर वे, व्याख्यान देने के वेश में सुसज्जित, उसी कमरे की छत के साथ लगे बैठे हैं। इस आत्म योग के प्रत्यक्ष प्रमाण को पाकर पण्डित महाशय का चित्तस्फटिक, आस्तिक भाव की प्रभा से चमचमा उठा। मानों एक ओर से निकलती हुई उनकी देह के दीप में प्रवेश कर गई।

गुरुदत्त अपनी गुप्त रीतियों से आत्मदाता गुरुदेव को फिर अतिशय श्रद्धा से देखने लगे। भगवान् वेद गान के अनन्तर, परम-प्रीति से पुलकित अंग होकर, संस्कृत शब्दों में परमात्मदेव की प्रार्थना करने लगे। फिर आर्यभाषा में ईश्वर गुण गाते भक्तों की परम गति भगवती गायत्री को जपने लगे। उस महामन्त्र के पुण्यपाठ को करते करते मौन हो गये। और चिरकाल तक सुवर्णमयी मूर्ति की भांति निश्चल रूप से समाधिस्थ बैठे रहे। उस समय उनके स्वर्गीय मुख मण्डल के चारों ओर सुप्रसन्नता-प्रभात की झलमलाहट पूर्ण-रूप से झलमल कर रही थी।

समाधि की उच्चतम भूमि से उतर कर, भगवान् ने दोनों नेत्रों के पलक-कपाट खोलकर, दिव्य ज्योति का विस्तार करते हुए कहा-‘‘हे दयामय, हे सर्व शक्तिमान् ईश्वर, तेरी यही इच्छा है। सचमुच, तेरी यही इच्छा है। परमात्मदेव तेरी इच्छा पूर्ण हो। अहा! मेरे परमेश्वर, तैने इच्छी लीला की।”

इन शब्दों का उच्चारण करते ही, ब्रह्म ऋषि ने आत्मिक प्राण को ब्रह्माण्ड द्वारा परमधाम को जाने के लिये स्वर्ग-सोपान पर आरूढ़ किया और तत्पश्चात् पवन रूप प्राण को कुछ पल भीतर रोक कर प्रणवनाद के साथ बाहर निकाल दिया। उसे सूत्रात्मा वायु में लीन कर दिया।

प्रभु के स्थूल प्राण के निकलने के साथ ही उपस्थित सेवकों की अश्रुधारायें अनर्गल हो गईं। अनाथ बालकों की भांति, भक्तजनों ने रो रोकर कमरे की भूमि को, भिगो दिया। उनके दुःख का, उनके क्लेश का, उनकी निराशा का, उनके शोक का, कोई पारावार न रहा। सबके हृदय इस दारुण दुःख से विदीर्ण हो गये। वे बहुतेरा थामते पर उनका कलेजा बार-बार मुँह को आता था। वे धैर्य धारण करने की चेष्टा भी करते पर चित्त चकनाचूर ही हुए चला जाता था। फूट-फूटकर रोते उनकी आंखें फूल गई। घिग्घिया बंध गई। व्याकुलता वेग ने उनको शोक के अति गहरे सागर में डुबो दिया।

आर्त भारत के भाग्य का भानु, भगवान् दयानन्द, कार्तिक अमावस्या सम्वत् 1940 विक्रमी, मंगलवार को सायं के छः बजे एकाएक, काल कराल रूप अस्तांचल की ओट में हो गया। उस समय सूर्यदेव भी अस्त हो गये थे। तपोमयी महा तमिस्रा रजनी ज्यों-ज्यों घोरतररूप धारण करती जाती थी, त्यों-त्यों अजमेर के तार-घर से दौड़ते हुए तार आर्यसंसार में निराशा की, अति शोक की और असह्य विपत्ति वज्रपात की घोरतम तमोराशि की निपट निशा का विस्तार कर रहे थे।

महाराज के निर्वाण का अचानक समाचार पाकर आर्यों के चित्त चौंक पड़ें, चंचल हो उठे, उनके सिर पर दुःखरूप पर्वत-शिखर का सहसा विनिपात हो गया। उस समय आर्यजनों की आंखें गंगा-यमुना की भांति बड़े वेग से बह रही थी। उनके हृदय अस्त-व्यस्तता में व्याकुल हो रहे थे। मन गहरे खेद की खाई में गिरकर खिन्नावस्था में खण्ड-खण्ड हुए जाते थे। उनकी आत्मायें इतनी अधीर हो गई थीं कि उनको एक-एक पल द्रौपदी के चीर के समान दिखाई देता था और वह रात्रि काल-निशा सदृश जान पड़ती थी।

जिस प्रकार श्री राम के वियोग से भरत जी व्याकुल हो उठे थे और श्री कृष्ण के निर्वाण पर ऊधव जी तथा पाण्डवों ने करुण-क्रन्दन किया था, उसी प्रकार भगवान् दयानन्द के स्वर्ग सिधारने पर आर्यसमाजियों में अनवरत आर्त-नाद होने लगा। उनके मध्यान्ह के सूर्य की प्रखर किरणों पर अकस्मात् काल-कालिमा छा गई। शरत्पूर्णिमा के शुभ्र ज्योत्स्ना-युक्त चन्द्रमा पर पृथ्वी की छाया पड़ गई। उनकी उन्नति और उदय के बाल-रवि को राहु ने सहसा ग्रस लिया। हरित, भरित, पुष्पित और फलित आर्यसमाज वाटिका पर परुष-पाषाण राशि को भी तुषार-रूप में परिणत करने वाला, भीषण तुषारपात हो गया। प्रसन्नता पर खिन्नता की झलक आ गई। चारु प्रेम-प्रतिमा अकाल ही में सामने से उठा ली गई। उनकी सुविमल, सुशीतल, सुवासित, सुकोमल चित्त-कलियों को काल की लू के झकोले ने जहां-तहां से झुलस दिया। वे गुरु वियोग व्यथा से विह्वल हो, बिलख-बिलख कर रोदन करते थे।

आगामी दिन के समाचार पत्रों ने शोक-सूचक काली रेखा देकर अपने स्तम्भों के स्तम्भ इस शोक समाचार पर लिखे, जिससे पूर्व से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण पर्यन्त भारत भर में भगवान् के असामयिक स्वार्गारोहण का शोक छा गया। नगर नगर में लोगों ने सभायें लगाकर इस अति भारी क्षति और धर्महानि पर आंसू बहाये। इस सार्वभौम शोक में अमेरिका और यूरोप के देश भी सम्मिलित हुए।

कार्तिक शुक्ला प्रतिपदा को, प्रातःकाल भक्तजन भगवान् की जीवनज्योति विहीन, निर्जीव देह-दीवट को उठाकर स्नान कराने लगे। वे चाहते थे कि महाराज के शरीर पर केवल सुशीतल जल ही पड़े, परन्तु बलात्कार उनके आंसू बराबर, टपटप करके टपक पड़ते थे। स्नान कराने के उपरान्त महाराज की देह को चन्दादि सुगन्धित वस्तुओं से चर्चित किया गया। फिर उसे बहुमूल्य वस्त्रों में वेष्टित करके, पलंग पर प्राण-त्याग आसन में स्थापित किया गया। उस समय सैकड़ों मनुष्य उनके अन्तिम दर्शनों को दौड़े आकर, अपने नेत्रों की सहस्र धाराओं से उस कोठरी की भूमि को भिगोते थे। भक्तजन विमान बनाने लगे तो पण्ड्या मोहनलाल जी ने भ्रातृ मण्डल के सामने निवेदन किया है कि ‘श्रीमन्महाराणा श्री सज्जनसिंह जी ने मुझे चलते समय आदेश दिया था कि यदि हम लोगों के दुर्भाग्य से महाराज का शरीर छूट जाए, तो किसी प्रकार तीन चार दिन पर्यन्त उसका दाह-कर्म न किया जाय, जिससे मैं और उनके दूसरे शिष्य राजे महाराजे उनके अन्तिम दर्शन पा सकें, उनके दाह-कर्म में सम्मिलित हो सकें।’ परन्तु प्रभु के उपस्थित प्रेमियों ने दाह कर्म उसी दिन कर देना ही उचित समझाा। शिविका पुष्पों, कदली स्तम्भों और कोमल पत्तों से सुसज्जित की गई, दिन के दस बजे महाराज की अरथी उठाई गई। उस समय सैकड़ों सज्जन नंगे पांव उसके पीछे चलते थे। राय भागराम भी नंगे पांव साथ थे। महाराज के, शिविका में पड़े शव को पंजाबी सैनिक अपने बलिष्ठ कन्धों पर उठाये वहन कर रहे थे। रामानन्द जी और गोपाल गिरी जी आदि आगे-आगे वेद-पाठ करते चलते थे। अजमेर नगर के आगरा द्वार से होते हुए बाजारों और चैकों का उल्लंघन करते नगर से बाहर दक्षिण भाग में शिविका पहुंचाई गई।

वेदी बनने में कुछ देर जानकर पण्डित भागराम जी ने आर्यों के डांवाडोल मनों को धैर्य बंधाते हुए स्वर्गीय स्वामी जी के गुण-कीर्तन किये। उनके उपकार बताये और स्वामी जी के उद्देश्यों की परिपूर्ति के लिए स्वामी भक्तों को प्रोत्साहन दिया। यद्यपि पण्डित महाशय का कण्ठ बीच-बीच में वाष्प से बारबार रुक जाता था, फिर भी उन्होंने यथा तथा करके अपना हार्द प्रकाशित कर ही दिया।

तत्पश्चात् राव बहादुर पण्डित सुन्दरलाल जी कलेजे को कड़ा करके कथन करने लगे। परन्तु उनके दोनों नेत्रों से बहते हुए अश्रुओं ने उनके वक्षः-स्थल को गीला कर दिया, उनका गला इतना रुक गया कि वे आगे कुछ भी न बोल सके।

वेदी बन जाने पर भक्त लोगों ने दो मन चन्दन और दस मन पीपल की समिधाओं से चिता चयन की। अपने टूक-टूक होते हृदयों को थाम कर उन्होंने गुरुदेव के शव को उस अन्तिम शय्या पर शायी कर दिया। रामानन्द और आत्मानन्दजी ने यथाविधि अग्न्याधान किया। अग्नि-स्पर्श होते ही घृतसिंचित चिता, ज्वाला-माला से आवृत हो गई। उस दाह-कुण्ड में चार मन घी, पांच सेर कपूर, एक सेर केसर और दो तोले कस्तूरी डाली गई। चरु और घृत की पुष्कल आहुतियों से हुत श्री महाराज का शव प्रेमियों के नीर भरे नेत्रों से देखते ही देखते अपने कारणों में लय हो गया। महाराज की आत्मा तो जागतिक ज्योति में पहिले ही लीन हो चुकी थी। सेवकों ने उनके शरीर को भी ज्योतिः शय्या पर आरूढ़ करके उसके तात्विकरूप में पहुंचा दिया।

गुरु महाराज की दुर्लभ देह का कर्म करने के अनन्तर, अति शोकातुर आय्र्यजन नगर को लौट आये। उस दिन वे अपने को निःसार और निःसत्व समझते थे, प्रत्येक काय्र्य में अनमने से हो रहे थे। अपने अति प्यारों को भी देखकर उनकी प्रसन्नता नहीं होती थी। उनको अपने देह के दीवट पर धरा हुआ मन का दीवा प्रसन्नता की ज्योति से सर्वथा शून्य जान पड़ता था।

इस प्रकार टंकारा व मथुरा से उदय हुआ ऋषि दयानन्द जी का जीवन-सूर्य देश-विदेश वा भूमण्डल में ईश्वरीय ज्ञान वेद की सत्य विद्याओं का प्रकाश सहित मानव मात्र के सर्वाधिक-पूर्ण हित की आभा विखेर कर अजमेर में दीपावली के दिन अस्त हो गया। हम ऋषि को कोटि कोटि प्रणाम करते हैं। यदि हम अपने जीवन में ऋषि की बताई शिक्षाओं व वेदमार्ग का कुछ भी अनुकरण व अनुसरण कर सकें तो हमारा जीवन धन्य होगा। इसी के साथ लेखनी को विराम देते हैं।

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