कार्यकर्ता या नेता

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पिछले कई दिन से शर्मा जी से भेंट नहीं हुई। पता लगा कि वे चुनाव में व्यस्त हैं। असल में 40 साल की समाजसेवा के बावजूद उनकी ओर किसी का ध्यान नहीं गया। उनकी बड़ी इच्छा थी कि वे भी चुनाव लड़ें। चुनाव की चर्चा चलते हुए छह महीने हो गये; पर किसी दल ने उन्हें घास नहीं डाली।

शर्मा जी इससे बहुत दुखी हुए। उन्होंने सब मित्रों के सामने अपने ‘मन की बात’ रखी। गुप्ता जी ने कहा कि बिना रोए तो मां भी दूध नहीं पिलाती। इसलिए यदि चुनाव लड़ना है, तो कुछ दलों के बड़े लोगों से मिलकर प्रयास करें। उसके बाद जो होगा, देखा जाएगा। मेहरा जी ने कहा कि माहौल आजकल कमल वालों का है, इसलिए आप वहां सम्पर्क करें; पर रावत जी कहना था कि खानदानी कांग्रेसी होने के नाते आप पर पहला हक कांग्रेस का है। इसलिए आप उनसे ही टिकट मांगें।

इस मीटिंग के बाद मैं 15 दिन के लिए बाहर चला गया। लौटकर देखा कि शर्मा जी के घर पर ‘भारत संग्राम दल’ का बड़ा सा झंडा लगा है। पूछा तो पता लगा कि वे इसके टिकट पर विधानसभा का चुनाव लड़ रहे हैं। मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। शर्मा जी ठहरे जन्मजात कांग्रेसी। फिर ये ‘भारत संग्राम दल’ कहां से आ गया ? मैं अपनी जिज्ञासा शांत करने के लिए उनके घर जा पहुंचा।

– शर्मा जी, आप तो पुराने कांग्रेसी हैं। फिर..

– हां, लेकिन उन्होंने मुझे टिकट नहीं दिया। मैंने उन्हेें पिछले कई चुनाव के फोटो और अखबारों की कटिंग दिखायी, जिससे मेरी सक्रियता प्रमाणित होती थी; पर वे बोले कि हम लोगों पर हाई कमान का बड़ा दबाव है।

– अच्छा.. ?

– और क्या, इसलिए उन्होंने एक महाभ्रष्ट आदमी को टिकट थमा दिया है। मैंने भी तय कर लिया है कि खुद भले ही हार जाऊं, पर उसे नहीं जीतने दूंगा।

– हां, ये तो ठीक ही है। फिर क्या हुआ ?

– होना क्या था, मैं भा.ज.पा. वालों के पास गया। मैंने बताया कि मैं भले ही पुराना कांग्रेसी हूं; पर मेरी पत्नी का खानदान भा.ज.पा. में है। पत्नी की बातों से मेरा कांग्रेस की विचारधारा से मोह भंग हो गया है। अतः आप लोग मुझे चुनाव लड़ाएं।

– तो उन्होंने क्या कहा ?

– वे बोले कि आप तो नये हैं; पर हमें तो अपने पुराने लोगों को ही समझाना मुश्किल हो रहा है। चूंकि दूसरी पार्टियों से थोक के भाव नेता हमारे यहां आये हैं। उन्हें टिकट देना हमारी मजबूरी है। इसलिए इस बार तो आप माफ करें, अगली बार देखेंगे।

– हां, उनकी मजबूरी तो है।

– अजी मजबूरी होगी उनकी; पर मेरी तो नहीं है। इसलिए मैं स.पा., ब.स.पा., लोकदल, आ.पा. आदि कई पार्टियों में गया। कहीं रिश्तेदारों को टिकट मिल रहा है, तो कहीं पैसे वालों को। इसलिए मैंने ‘भारत संग्राम दल’ से टिकट ले लिया। अब चाहे जो हो; पर मैं भी पूरी ताकत से मैदान में हूं।

– आपकी पार्टी का चुनाव चिन्ह क्या है शर्मा जी ?

– जैसा नाम, वैसा चिन्ह। यानि मुक्केबाजी के दस्ताने। मैंने युवकों  में बांटने के लिए पांच हजार दस्ताने बनवा भी लिये हैं।

– शर्मा जी, एक बात बताइये। आप पिछली तीन पीढ़ी से कांग्रेसी हैं; पर टिकट के लिए आप कभी भा.ज.पा. वालों के पास गये, तो कभी स.पा. और ब.स.पा. के पास। एक कार्यकर्ता को यह शोभा नहीं देता।

शर्मा जी एक लम्बी सांस खींचकर बोले, ‘‘वर्मा जी, वो दिन लद गये, जब राजनेता जनता और देश की सेवा के लिए काम करते थे। अब तो राजनीति का उद्देश्य है पैसे बटोरना। चाहे इसके लिए दलाली करनी पड़े या जमीनों पर कब्जे। यदि विचार को पकड़े रहे, तो जिंदगी भर कार्यकर्ता ही बने रहोगे। नेता बनना है, तो विचार के कंधे पर चढ़कर पार्टी का झंडा पकड़ो। फिर उसके डंडे पर चाहे जो झंडा लगा लो। मुझे कार्यकर्ता बने 40 साल हो गये। अब मैंने नेता बनने का निश्चय कर लिया है। इसलिए अब मैं विचार के नहीं, व्यवहार के साथ हूं। आज के युग में सफलता का यही एकमात्र सूत्र है। कुछ समझे ?’’

उस दिन तो मैं चुपचाप घर लौट आया; पर तबसे मैं असमंजस में हूं कि विचार के साथ रहूं या व्यवहार के; कार्यकर्ता बनूं या नेता; जनसेवक बनूं या दलाल; झंडे को मानूं या डंडे को; जीतने के लिए लड़ूं या किसी को हराने के लिए ?

क्या आपके पास इन प्रश्नों का कोई उत्तर है ?

– विजय कुमार

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