‘संघ और तिरंगे’ को लेकर फैलाए दुष्प्रचारों के समापन की सप्रमाण घोषणा करती पुस्तक

~ कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल

माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय भोपाल में सहायक प्राध्यापक एवं जाने माने ब्लॉगर श्री लोकेन्द्र सिंह   की नवीन कृति ‘राष्ट्रध्वज और आरएसएस ‘ हाल ही में अर्चना प्रकाशन भोपाल से प्रकाशित हुई है। इस पुस्तक का मूल्य ₹ 50 है।राष्ट्रीय विचारों पर तथ्यात्मक लेखन के चलते  लेखक की अपनी सशक्त पहचान है। इसके लिए वे  साहित्य अकादमी म.प्र. सहित अनेक संस्थाओं के पुरस्कारों से पुरस्कृत हुए है। उनकी अब तक 14 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें से कुछ पुस्तकों में उन्होंने सह-लेखक और संपादक के तौर पर भी भूमिका निभाई है। इनमें से उनकी चर्चित कृति ‘संघ दर्शन: अपने मन की अनुभूति: रही है। लोकेन्द्र सिंह की सद्य: प्रकाशित कृति ‘हिन्दवी स्वराज्य दर्शन’ भी शिवाजी महाराज से जुड़े यात्रा संस्मरणों पर आधारित इसी कड़ी की पुस्तक है। 

प्रायः कूटरचित ढंग से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की समाज में छवि धूमिल करने का उपक्रम राष्ट्रविरोधी संविधान – विरोधी शक्तियाँ करती ही रहती हैं। अतएव अनेकानेक प्रकार से ऐसे लोग, समूह , संगठन विभिन्न माध्यमों के द्वारा संघ को लेकर समाज में भ्रामक संदेश फैलाते रहते हैं। इसीलिए  वे इस उक्ति के साथ चलते हैं कि ‘एक झूठ को सौ बार बोलो तो सच लगने लग जाएगा’। कुछ इसी तरह से संघ और तिरंगे को लेकर भी आरएसएस विरोधी शक्तियों ने स्वतंत्रता के बाद से ही एक दूषित वातावरण तैयार किया है। स्वभावत: राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में ‘आत्मप्रचार’ और अपने किए कार्यों का दस्तावेजीकरण करने का भाव  कभी नहीं रहा है।  संघ स्पष्ट रूप से राष्ट्र और समाज के सर्वांगीण कल्याण के लिए राष्ट्रीय विचारों को आत्मसात कर चलता है। प्रसिध्दि पराङ्गमुख होकर हिन्दू समाज का संगठन करते हुए समाज जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में कार्य करना  ही संघ की शैली है। अतएव राष्ट्र विरोधी संविधान विरोधी शक्तियाँ  संघ की समाज में व्यापक
स्वीकार्यता से विचलित होकर – संघ के विरोध में मिथ्या , तथ्यहीन दुष्प्रचार करने में जुटी रहती हैं। ठीक इसी प्रकार से  राष्ट्रध्वज तिरंगा और आरएसएस को लेकर भी समय समय पर इनके दुष्प्रचार अभियान चलते रहते हैं।  ऐसा करने वाले वे सभी लोग, दल, संगठन व समूह हैं जिनके पूर्ववर्ती कृत्यों के साथ इनकी देशभक्ति पर सदैव प्रश्नचिन्ह उठे हैं।

‘ राष्ट्र ध्वज और आरएसएस ‘ — पुस्तक में लेखक लोकेन्द्र सिंह ने  राष्ट्रध्वज के विकास की यात्रा, भगवा ध्वज, तिरंगा और संघ के अंतर्सम्बंधों का तथ्यात्मक ढंग से शत प्रतिशत प्रमाणिकता के साथ  विश्लेषण किया है। इसमें उन्होंने जो भी बात कही है उसके लिए एक एक सन्दर्भ और प्रमाण दिए हैं। इन्हीं सन्दर्भ प्रमाणों के साथ वे पुस्तक के माध्यम से तिरंगा और संघ को लेकर पाठक से संवाद करते हैं । छ: अध्यायों  — 1.मन की बात 2. सांस्कृतिक पहचान ‘ भगवा ध्वज’ 3.राष्ट्रध्वज ‘तिरंगा’ की संवैधानिक प्रतिष्ठा 4. राष्ट्रध्वज तिरंगे की प्रतिष्ठा में संघ ने दिया है बलिदान 5. भगवा ध्वज और संघ 6. तिरंगा और कुछ महत्वपूर्ण तथ्य ; आदि के माध्यम से वे संघ और तिरंगे को लेकर किए गए दुष्प्रचारों के एक – एक सिरे प्रमाण के साथ ध्वस्त करते हैं । इतना ही नहीं ‘ राष्ट्रध्वज और आरएसएस ‘ के माध्यम से वे उन तमाम ऐतिहासिक तथ्यों, सन्दर्भों, संविधान सभा की बहसों, ध्वज समिति के सुझावों,  स्वतन्त्रता आन्दोलन के सर्वमान्य नेताओं आदि के वक्तव्यों/ विचारों के द्वारा तिरंगे की स्वीकार्यता आदि को लेकर अनेक मिथकों को भी तोड़ते हैं । 

‘सांस्कृतिक पहचान भगवा ध्वज’ – इस अध्याय में लेखक ने सविस्तार, बिन्दुवार ढंग से 22 जुलाई 1947 को राष्ट्र ध्वज के रूप में तिरंगे की स्वीकार्यता तक के विभिन्न ऐतिहासिक पहलुओं पर चर्चा की है।  इतना ही नहीं 2 अप्रैल 1931 को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा गठित सात सदस्यीय समिति ने  व्यापक जनसुझावों के आधार पर निष्कर्षत: ‘भगवा ध्वज ‘ को राष्ट्रध्वज के रूप में स्वीकार किया था। इस ध्वज समिति के सदस्य थे — सरदार वल्लभ भाई पटेल, पं. जवाहरलाल नेहरू, डॉ. पट्टाभि सीतारमैया, डॉ. ना.सु. हर्डीकर, आचार्य काका कालेलकर, मास्टर तारा सिंह और मौलाना आजाद । इसके साथ ही लेखक ने  ध्वज समिति द्वारा दिए गए सुझाव यानि राष्ट्र ध्वज के रूप में ‘भगवा ध्वज ‘ की सर्वस्वीकार्यता को लेकर संघ संस्थापक सरसंघचालक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार के प्रयासों को उद्धाटित किया है। वहीं  भारत के सनातन इतिहास में ध्वज के रूप में ‘भगवा ध्वज’ के महत्व एवं वैदिक ऋचाओं से लेकर महान भारतीय सम्राटों के शासनकाल में भगवा ध्वज , संघ की मान्यता में भगवा ध्वज पर विस्तृत प्रकाश डाला है।

‘राष्ट्रध्वज तिरंगा की संवैधानिक प्रतिष्ठा ‘ में लेखक ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एवं स्वयंसेवकों द्वारा तिरंगे के सम्मान में किए गए कार्यों एवं अनेक पहलुओं की ओर ध्यानाकर्षित किया है‌। संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरुजी द्वारा
दिल्ली में 2 नवंबर, 1948 को जारी सार्वजनिक वक्तव्य के उद्धरण के माध्यम से ‘संघ व तिरंगे ‘ को लेकर कई सारे भ्रमों का निवारण करते हैं। साथ ही इस अध्याय में लेखक ने — स्वतन्त्रता आन्दोलन एवं उसके पश्चात राष्ट्रीय ध्वज के स्वरूप को लेकर आन्दोलन कारियों के विचारों को दर्शाया है। लेखक ने इस अध्याय में तथ्यात्मक ढंग से  डॉ. भीमराव अम्बेडकर द्वारा ‘भगवा ध्वज’ को राष्ट्रीय ध्वज के रूप में स्वीकार करने की  भी चर्चा की है। इसके अतिरिक्त राष्ट्रीय ध्वज को लेकर महात्मा गांधी की नाराज़गी और उनके विचारों को प्रस्तुत किया है।  दृष्टव्य है — 6 अगस्त, 1947 को लाहौर में महात्मा गांधी ने सार्वजनिक रूप से अपनी नाराजगी प्रकट करते हुए कहा —  “मैं भारत के ध्वज से चरखा हटाए जाने को स्वीकार नहीं करूंगा। अगर ऐसा हुआ तो मैं झंडे को सलामी देने से मना कर दूंगा। आप सभी को मालूम है कि भारत के राष्ट्रीय ध्वज के बारे में सबसे पहले मैंने सोचा और मैं बगैर चरखा वाले राष्ट्रीय झंडे को स्वीकार नहीं कर सकता।”

( सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय खण्ड 89 ,पृ.11-12)

इतना ही नहीं महात्मा गांधी के झण्डे को लेकर ये वक्तव्य किसी को भी अचरज में डाल सकते हैं। जब  गांधीजी  ने 24 जून, 1947  वायसरॉय लार्ड माउंटबेटन के द्वारा — राष्ट्रीय ध्वज के एक कोने में  ‘ब्रिटिश यूनियन जैक’  को स्थान दिए जाने के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया था । साथ ही  आगे वे तदर्थ समिति द्वारा इसके ख़ारिज किए जाने पर आक्रोशित भी हुए थे । गांधीजी ने नईदिल्ली में 19 जुलाई, 1947 को प्रार्थना सभा में कहा कि —  “इसमें क्या गलत है अगर भारत अपनी महान परंपराओं के मुताबिक राष्ट्रीय झंडे में यूनियन जैक को भी जगह दे। यदि हमारे झंडे के एक कोने में यूनियन जैक लगाया तो क्या गुनाह किया ? गुनाह अगर किया होगा तो अंग्रेजों ने किया। उनके झंडे का क्या दोष है ? अंग्रेजों की खूबी भी तो आप देखिए । वे स्वेच्छा से आपके हाथ में बागडोर देकर जा रहे हैं। कितनी खूबी की बात है कि इतना बड़ा बिल, जिसमें सारी सल्तनत को उन्होंने फेंक दिया, पार्लियामेंट ने पास करने में एक सप्ताह भी नहीं लगाया । एक जमाना वह था जबकि हम लोगों के मिन्नतें करते रहने पर भी छोटे-से बिल पास होने में भी एक- एक साल लग जाता था। उस बिल में उन्होंने कोई सफाई की है या नहीं; यह तो बाद में तजर्बे से पता चलेगा। मगर यूनियन जैक रखने में तो हमारी शराफत ही थी । हम अपने सबसे बड़े दरबान के तौर पर लॉर्ड माउंटबेटन को यहाँ रखे हुए हैं। वह पहले इंग्लैंड के बादशाह के नौकर थे, मगर अब हमारे नौकर हैं। जब हम उनको अपनी नौकरी में रखते हैं, तब एक कोने में उनका झंडा भी रख लेते हैं तो उससे हिन्दुस्तान के साथ कोई बेवफाई नहीं होती ।”

( सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय , खंड-88, पृष्ठ 447-48 )

इस प्रकार ऐसे अन्य तथ्यात्मक उद्धरणों / सन्दर्भों के माध्यम से लेखक ने  तिरंगे और राष्ट्रध्वज के विषय में – तत्कालीन परिदृश्य का विस्तार से वर्णन किया है।

लोकेन्द्र सिंह ने ‘राष्ट्रध्वज तिरंगे की प्रतिष्ठा में संघ ने दिया है बलिदान’ अध्याय में – वर्ष 1962 में भारत चीन युद्ध के समय कम्युनिस्टों के भारत विरोधी कुकृत्यों पर चर्चा के साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों के योगदान को सप्रमाण प्रस्तुत किया है। साथ ही इस अध्याय में उन्होंने — 1963 की गणतंत्र दिवस परेड में पं. नेहरू द्वारा स्वयंसेवकों को आमंत्रण, गोवा मुक्ति आंदोलन में संघ के स्वयंसेवक और तिरंगे की रक्षा में प्राणोत्सर्ग,  जेल की यातना, दादरा और नगर हवेली की स्वतंत्रता में संघ के योगदान, 1955 में उज्जैन के स्वयंसेवक नारायण बलवंत उपाख्य ‘राजाभाऊ महाकाल’ का गोवा मुक्ति आन्दोलन में तिरंगे की रक्षा करते हुए बलिदान, जम्मू-कश्मीर में धारा 370 का विरोध, काश्मीर के लालचौक में स्वयंसेवकों द्वारा तिरंगा फहराना, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् का जम्मू-कश्मीर में अभियान,  एक देश में दो विधान, दो प्रधान, दो निशान नहीं चलेंगे- नहीं चलेंगे’ के उद्घोष के साथ प्रजा परिषद के नेतृत्व में आंदोलन , डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी का संघर्ष और बलिदान, सहित अनेक स्वयंसेवकों के बलिदानों पर तथ्यात्मक विषय सामग्री प्रस्तुत की है। इन समस्त सन्दर्भों के माध्यम से  लेखक ने राष्ट्रध्वज तिरंगे के सम्मान और रक्षा को लेकर संघ के स्वयंसेवकों के योगदान को रेखांकित करते हुए सत्य को जनसामान्य तक लाने का महनीय कार्य किया है।

पुस्तक के पांचवें अध्याय — ‘ भगवा ध्वज और संघ’ में लेखक ने  27 सितम्बर 1925 को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के गठन और गुरु के  रूप में भगवा ध्वज की धारणा पर पर सविस्तार प्रकाश डाला है। इसमें उन्होंने संघ संस्थापक डॉ. हेडगेवार , संघ की कार्यप्रणाली, गुरु के रूप में भगवा ध्वज की मान्यता के पीछे विविध सांस्कृतिक दृष्टांतों,  गुरुदक्षिणा,  संघ के समविचारी/ आनुषांगिक संगठनों में भगवा ध्वज की स्वीकार्यता आदि को लेकर विभिन्न उद्धरणों, दृष्टांतों के माध्यम से चर्चा करते हैं। अंतिम अध्याय ‘तिरंगा और कुछ अन्य महत्वपूर्ण तथ्य ‘ में लेखक ने — हर घर तिरंगा अभियान,  भारतीय सेना, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस, संविधान सभा में प्रस्तुत तिरंगे, लाल किले से तिरंगा फहराने की परम्परा, संस्कृत सम्मेलन व शांति निकेतन में भगवा ध्वज को लेकर मांग, झण्डा सत्याग्रह, श्यामलाल गुप्त पार्षद द्वारा ‘झंडा गीत’ लिखने के पीछे की कहानी , पिंगली वेंकैया की पुस्तक, इत्यादि प्रसंगों का रोचक वर्णन किया है।

स्पष्ट रूप से यह  पुस्तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ( आरएसएस ) और तिरंगे को लेकर फैलाए गए
षड्यंत्रकारी कूटरचित विभ्रमों पर सन्दर्भ सहित प्रमाण प्रस्तुत करती है। सत्य का उद्घाटन करते हुए सप्रमाण संघ की राष्ट्र निष्ठा और भारत के संवैधानिक आदर्शों, प्रतीकों को लेकर संघ की मान्यता को प्रस्तुत करती है। राष्ट्र ध्वज के रूप में तिरंगे की स्वीकार्यता तक के विभिन्न पड़ावों की कहानी कहती है‌ । कई सारी भ्रान्तियों और मिथकों को तोड़ती है। ‘राष्ट्रध्वज और आरएसएस’  इस पुस्तक के द्वारा लेखक लोकेन्द्र सिंह — राष्ट्रध्वज के विकास की यात्रा, भगवा ध्वज, तिरंगा और संघ के अंतर्सम्बंधों का सप्रमाण विश्लेषण करने में सफल हुए हैं। सहज सरल भाषा में लिखी यह पुस्तक रोचक वर्णन, प्रमाणिक साक्ष्यों के साथ पाठकों को अवश्य पसंद आएगी । साथ ही ‘संघ और तिरंगे’ को लेकर किए गए दुष्प्रचारों के समापन की भी घोषणा करने में यह पुस्तक समर्थ है।

~ कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल

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