डॉ. रमेश ठाकुर
एकाध दशकों से पश्चिमी भाषा इस कदर हावी हुई है जिससे हम अपनी पारंपरिक भाषाएं और सभ्यताओं को पीछे छोड़ दिया है जिसमें ‘संस्कृत भाषा’ अव्वल स्थान पर है। कड़वी सच्चाई ये है कि समूचे भारत में मात्र एक प्रतिशत भी संस्कृत का प्रचार-प्रसार, बोलचाल और पठन-पाठन नहीं नहीं बचा? ऐसे में संस्कृत से जुड़ी एक सुखद खबर मन को खुशी देती है। खबर है कि हिदंस्तान में आज भी एक गांव ऐसा है जहां चौबीसों घंटे सिर्फ संस्कृत ही बोली और पढ़ी जाती हैं। ‘मत्तूरु’ गांव में पिछले छह सौ वर्षों से संस्कृत जिदां है। वहां के लोग दैनिक बातचीत में नियमित संस्कृत का प्रयोग करते हैं। संस्कृत भाषा की जो परंपरा सदियों पहले हुआ करती थी, उस गांव में अब भी यथावत है। भारत के राज्यों में एकाध गांव और भी हैं जहां संस्कृति बोली जाती है, लेकिन इस गांव शत-प्रतिशत संस्कृत का प्रयोग होता है।
‘मत्तूरु’ गांव कर्नाटक से करीब 300 किलोमीटर दूर ‘तुंग नदी’ के समीप बसा है जिसे देश के अंतिम ‘संस्कृत भाषी’ गांव की उपाधि हासिल है। गांव में रहने वाले प्रत्येक शख्स को संस्कृत बोलनी, लिखनी और पढ़नी अच्छे से आती है। बुजुर्गों से लेकर बच्चे और महिलाएं भी आपस में सिर्फ और सिर्फ संस्कृत में ही वार्तालाप करती हैं। मत्तूर गाँव में 16वीं शताब्दी से संस्कृत बोली जाती है। किसानां से लेकर नौकरीपेशा भी संस्कृत में बात करते हैं। इस अनोखे गांव का आकर्षण ऐसा है कि पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर राजीव गांधी, इंदिरा गांधी व पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम भी भ्रमण कर चुके हैं। साल भर देश-विदेश के लोग गांव का विजिट करते हैं। ताज्जुब करने वाली बात ये है कि गांव में बाहरी लोगों के लिए कोई होटल या रेस्टांन नहीं है। अतिथियों का गांववासी अपने यहां खाना और रूकने की व्यवस्थाएं निःशुल्क करते हैं। संस्कृत प्रेमी जब पहुंचते हैं तो गांव वाले उन्हें पानी और गुड देकर स्वागत करते हैं। संस्कृत के अलावा वहां हिंदी या अंग्रेजी में गांव के लोग एक शब्द भी नहीं बोलते।
निश्चित रूप से अंग्रेजी और अन्य देशी-विदेशी भाषाओं ने संस्कृत को पीछे धकेला हो, लेकिन ‘मत्तूरु’ गांव आज भी संस्कृत की संस्कृति को सहेजे हुए है। भारतीय अपनी देशी भाषाओं को छोड़ बाहरी भाषाओं को अधिक व्यावहारिक और उपयोगी मानने लगे हैं। लेकिन ‘मत्तूरु’ गांव में विभिन्न देशों के लोग संस्कृत सीखने लगातार पहुंच रहे हैं। भाषाओं के संबंध में ‘भाषा एंव संस्कृति मंत्रालय’ का ताजा आंकड़ा बताता है कि भारत में पिछड़ती भाषाओं को विदेशी लोग बड़े चाव से सीख रहे हैं। विदेश की ज्यादातर यूनिवसीटीज में हिंदी और संस्कृत प्रमुखता से पढ़ाई जाने लगी है जिनके प्रोफेसर या विशेषज्ञ कोई भारतीय नहीं, बल्कि विदेशी ही हैं, जो हमारे यहां से सीखकर गए हैं। ये अपने आप में बड़ा मुद्दा है कि जिन भाषाओं को हम नकार रहे हैं उन्हें विदेशी अपना रहे हैं? इसके पीछे का लॉजिक हमें समझना होगा? भविष्य में हमारे लिए खतरनाक भी साबित हो सकता है। क्योंकि भाषाओं के बल पर घुसपैठ होना कोई बड़ी बात नहीं?
संस्कृत के पिछड़ने के पीछे कारण कोई एक नहीं, बल्कि बहुतेरे हैं। संस्कृत की शिक्षा प्राप्त करने वालों के लिए अब रोजगार के अवसर तकरीबन सिमट गए हैं। इसी कारण लोग संस्कृत को सीखने से बचते हैं। जबकि, ये जुबान भारत की प्राचीन और शास्त्रीय रही है जिसका इतिहास 3500 साल पुराना है। संस्कृत को “देवों की भाषा“ कहा गया है। संस्कृत के गर्भ से ही संसार की ज्यातार भाषाओं की उत्पत्ति हुई है। वेदों की रचना संस्कृत से हुई। संस्कृत को भारत की सर्वाधिक पुरानी भाषाओं में गिना जाता है। इसलिए संस्कृत के संरक्षण और आधुनिक शिक्षा प्रणाली के साथ-साथ इसे भी उतना ही महत्व दिए जाने की जरूरत है। संस्कृत की संस्कृति बचाने की दिशा में ‘मत्तूरु’ गांव हमारे लिए उदाहरण है।
डॉ. रमेश ठाकुर