आध्यात्मिक चेतना के संवाहकः- महर्षि अरविंद

sri-aurobindo-मृत्युंजय दीक्षित

श्री अरविंद का जन्म ऐसे समय में हुआ था जब परे देश में अंग्रेजों का राज स्थापित हो चुका था। पूरे देश में अंग्रेजियत व अंग्रेजों का बोलबाला था। उन दिनों देश में ऐसी शिक्षा दी जा रही थी जिससे शिक्षित भारतवासी काले अंग्रेज बन रहे थे। उन दिनों बंगाल में एक बहुत लोकप्रिय चिकित्सक थे उनका नाम था डा.कृष्णन घोष। वे अपने कार्य में बहुत कुशल व उदार थे। दुख में हर एक की सहायता करना उनका काम था। उनके घर में पूर्णरूपेण अंग्रेजी वातावरण था। इन्हीं डा.घोष के घर पर 15 अगस्त 1872 को श्री अरविंद ने जन्म लिया। अरविंद शब्द का वास्तविक अर्थ कमल है। वर्तमान में इस नाम के बहुत लोग दिखाइ्र देते है। पर उन दिनों यह नाम बहुत कम प्रचलित था। अरविंद का बचपन अंग्रेजी वातावरण में बीता। घर में सभी लोग अंग्रेजी बोलते थे। जबकि नौकरी के साथ हिन्दी हिन्दुस्तानी चलती थी। अरविंद की प्रारम्भिक शिक्षा  दार्जिलिंग के सकूल में हुई थी। सात वर्ष की आयु में पिताजी व दो भाईयों के साथ इंग्लैड जाना पड़ा तथा वहां पर शिक्षा चैदह वर्ष की आयु तक शिक्षा प्राप्त की। अरविंद को बचपन में ही अंग्रेजी के अतिरिक्त फ्रेंच भाषा का भी पूर्ण ज्ञान प्राप्त हो गया था।

इंग्लैंड में अरविंद को बहुत कष्ट उठाने पड़े। धन की कमी के कारण उन्हें काफी समस्याओं का सामना करना पड़ा। उनकी किताबी ज्ञान में अधिक रूचि न थी  लेकिन साहित्य व राजनीति पर उनका अच्छा अधिकार हो गया था। सन 1890 में श्री अरविेद ने संतपाल की परीक्षा उत्तीर्ण की और कैम्ब्रिज के किंग्स कालेज में भर्ती हो गये। शीघ्र ही उन्होनें आई सी एस सी की परीक्षा भी उत्तीर्ण कर ली। किन्तु अंग्रेज सरकार के अफसर नहीं बने। डा.घोष अपने बच्चों को यूरोपियन वातावरण में रखना चाहते थे लेकिन भारत वापस आने पर उनका नजरिया बदल गया और वे अपने पुत्रों को बंगाली पत्र में छपे भारतीयों के प्रति दुव्र्यवहार के विवरण काटकर भेजा करते थे। उनके पत्रों मे भी भारत में ब्रिटिश सरकार की आलोचना होती थी। इस घटना का अरविंद के मन मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव पड़ा। सन 1891 में कैंम्ब्रिज में “इण्डियन मजलिस“ की स्थापना हुई और श्री अरविंद यहां वाद- विवाद प्रतियोगिताओं में जमकर भाग लेते थे। उन्होनें अंग्रेजी राज के खिलाफ भाषण भी दिये। यहां पर युवा भारतीयों ने एक गुप्त संस्था बनायी थी जिसमें अरविंद और उनके दोनों भाई उसमें शामिल हो गये। संस्था के प्रत्येक सदस्य को भारत को आजाद कराने का व्रत लेना पड़ता था। लक्ष्यप्राप्ति के लिए विशेष प्रकार का कार्य करना पड़ता था। इस संस्था के माध्यम से अरविंद ने इस प्रकार की गुप्त संस्थाओं से सम्पर्क की भूमिका बनायी । स्वतंत्रता के विचारों को आगे बढाने में अरविंद को अनके यूरोपियन स्वतंत्रत आंदोलन व उनके नेताओं से प्रेरणा मिली।

सन 1893 में अरविंद स्वदेश वापस आ गये । यहां आकर उन्होनेें पहले बड़ौदा राज्य की 13 वर्षो तक सेवा की और देश सेवा के लिए नौकरी से इस्तीफा दे दिया और राजनीति में प्रवेश कर गये। अब उन्होनंे भारतीय इतिहास, संस्कृृति,भाषाओं का अध्ययन किया। अरविंद को पहला आध्यात्मिक अनुभव सन 1897 में बम्बई में हुआ जब उन्हें स्वदेश की पृथ्वी पर पैर रखने से भारतीय शांति के वातावरण का अनुभव हुआ। दूसरा अनुभव 1908 में हुआ जब उन्हंे आभास हुआ कि उनके शरीर से किसी दिव्यमूर्ति ने उन्हें निकालकर कार दुर्घटना में उनकी रक्षा की। श्रीनगर में शंकराचार्य पहाड़ी पर टहलते हुए उन्हें शून्य असीम के मध्य होने का अनुभव प्राप्त हुआ। सन 1893 में श्री अरविंद इन्दुप्रकाश पत्र में राजनैतिक लेख लिखते थे। जिसमे उनके लेख बहुत ही उग्र होते थे। यह लेखमाला “लैंण्स फार ओल्ड” के नाम से प्रसिद्ध हुई। अतः समाचारपत्र के मालिक को चेतावनी देनी पड़ी कि यदि उनकी उग्रता कम न हुई तो पत्र पर मुकदमा चलाया जायेगा। फिर  भी उनका काम जारी रहा और बंकिम चंद चटर्जी की सराहना करते हुए सात लेख प्रकाशित किये।6 अगसत 1906 को विपिन चन्द्र पाल ने ”वंदेमातरम“  नामक अंग्रेजी साप्ताहिक आरम्भ किया और अरविंद इसमें शामिल हो गये। सन 18906 में ही श्री अरविंद ने “कर्मयोगिनी” साप्ताहिक प्रारम्भ किया। इन पत्रों में छपे लेखों का व्यापक प्रभा पड़ा।

बंगाल में क्रांतिकारियों की हिंसक गतिविधियां बढ़ती जा रही थीं। कई क्रांतिकारियों को ”विद्रोह अभियोग“ में जेल में डाल दिया गया था। एक अंग्रेज अधिकारी किंग्सफोर्ड पर हमले की वारदात के सिलसिले में 4 मई 1908 को अरविंद को भी गिरफ्तार किया गया। अरविंद ने जमानत पर छूटने से मनाकर दिया । अलीपुर केस  के दौरान  अरविंद को कई अनुभव प्राप्त हुए। अलीपुर जेल में ही उन्होनें अतिमानस तत्व का अनुभव किया। यहां पर उन्हें दस वर्ष का कठोर करावास मिला। आध्यात्मिक अनुभवों के कारण जेल से रिहा होने के बाद 1 जून 1906 कर्मयोगिन का प्रथम संस्करण फिर से निकाला तथा अंतिम संस्करण 5 फरवरी 1910 को प्रकाशित हुआ। पत्र बंद करके श्री अरविंद आंतरिक आदेश के आधार पर चंद्रनगर रवाना हुए आर 4अप्रैल 1910 को पाडिंचेरी पहुंच गये।

कर्मयोगी पत्र में छपे खुला पत्र के कारण अंग्रेज सरकार ने उन पर मुकदमा चलाने का निर्णय किया। किंतु पांडिचेरी चले जाने के कारण उनपर कुछ नहीं किया जा सका। 1914 से वे दार्शनिक लेख लिखने लगे। इंशोपनिषद, गीताप्रबन्ध, दिव्य जीवन योग, समन्वय आदि सभी प्रमुख ग्रंथ अंग्रेजी भाषा लेखों के रूप में प्रकाशित हुए। इसी समय इंग्लैंड व  बड़ौदा में उनकी लिखी कविताओं का प्रकाशन हुआ।  अंत में सन 1926 में श्री अरविंद आश्रम की स्थापना हुई। आश्रम का उददेश्य पृथ्वी पर भागवत चेतना के अन्तःकरण के लिए साधना करना था। आश्रम में ही उन्होनें लगातार 24 वर्षो तक सर्वांग योग की साधना की। या आश्रम सर्वांग विकास और अतिमानस को पृथ्वी पर    उतार लाने की प्रयोगशाला बन गया। यहा पर पूरे 40 वर्ष तक अरविंद ने महाकर्मयोगी और आध्यात्मिक नेता  तथा सर्वांगयोगी के रूप में आध्यात्मिक नेता तथा सर्वागयोगी के रूप में महान कार्य किये। वे प्रतिदिन अपने साधकों को सात घंटे तक पत्रों के उत्तर दिया करते थे ये पत्र पुस्तक के आकार में प्रकाशित कये गये। उनका सर्वाधिक प्रसिद्ध ग्रंथ दिव्य जीवन अंग्रेजी में जबकि इसके अतिरिक्त  मानव एकता का आदर्श व मानव चक्र पुस्तकें  भी प्रकाशित हई।उन्होनें 5 दिसम्बर सन 1950 को रात्रि एक बजकर 26 मिनट पर महासमाधि ली। आज उनके नाम पर अंतर्राष्ट्रीय विवि भी है।

2 COMMENTS

  1. उपरोक्त टिप्पणी के द्वितीय परिच्छेद-खंड में प्रस्तुत विचारों को दुहराते प्रवक्ता.कॉम पर ही बीते वर्ष भेजी अपनी टिप्पणी संलग्न कर रहा हूँ| अवश्य पढ़ें|

    “कुछ दिनों से श्री मनमोहन आर्य जी के प्रस्तुत निबंध, “मूर्तिपूजा, तीर्थ व नाम स्मरण का सच्चा स्वरूप और स्वामी दयानंद,” पर डा: रंजीत सिंह जी की प्रतिक्रिया, विशेषतः निबंध में उन्नीसवीं शताब्दी में स्वामी दयानंद जी द्वारा कहे वचनों को आज इक्कीसवीं शताब्दी में उभरते वैश्वीकरण के संदर्भ में अध्यात्मिक और राजनैतिक परिस्थितियों के बीच उनके प्रयोजन अथवा महत्व को समझने का प्रयास कर रहा था कि अकस्मात् मेरा ध्यान अतीत में उन्नीसवीं शताब्दी की धुंधली पृष्ठभूमि में जा पहुंचा है| पाश्चात्य विदेशियों में संस्कृत भाषा के ज्ञान के माध्यम से भारतीय शास्त्रों के अध्ययन हेतु दौड़ में अन्य संस्थाओं के बीच संस्कृत कालेज, कलकत्ता स्थापित हो चुका था| इस बीच विश्व में ईसाई धर्म का प्रचार प्रसार करते भारतीय उप महाद्वीप के मूल निवासियों में ईसाई धर्म को लोकप्रिय बनाने हेतु ईसाई धार्मिक विद्वान और धर्मोपदेशक भी बड़ी उग्रता से व्यस्त थे| तभी थ्योसोफिकल सोसाइटी ऑफ इंग्लैंड ने भी भारतीय भूखंड के मूल निवासियों को प्रभावित करते क्षेत्र में अपने पाँव पसारने आरम्भ कर दिए थे| अब भारतीय जीवन पर इन परिस्थितियों का दीर्घकालिक प्रभाव तो शोध का विषय होना चाहिए लेकिन मेरा विश्वास बना रहेगा कि समय बीतते आधुनिक भारतीय समाज में बड़े संतों, नानक, महावीर, दयानंद, राजा राममोहन राय, इत्यादि, ने हिंदू धर्म को नई दिशा दी है, तिस पर हिंदू समाज में इन संतों को सम्मानित किया जाता रहा है|

    मैं अतीत से पुनः इक्कीसवीं शताब्दी में लौटते आज की अध्यात्मिक और राजनैतिक परिस्थितियों में इन सभी संतों, विशेषकर स्वामी दयानंद जी के आदर्शों और उपदेशों को भारतीय जीवन में स्थिरता व संगठन को अच्छे ढंग से प्रभावित करता देखना चाहूँगा| भारत में परस्पर प्रेम व सद्भावना हेतु व्यक्तिगत भिन्नता और मतभेद आज के समाज से दूर ही रहने चाहिएं अतएव बुद्धिजीवियों को भी इस ओर सतर्कता बरतनी होगी|”

  2. मृत्युंजय दीक्षित जी के निबंध का विषय, आध्यात्मिक चेतना के संवाहक :- महर्षि अरविंद और जब “पूरे देश में अंग्रेजियत व अंग्रेजों का बोलबाला था” उस समय के वैसे ही कई दूसरे गिने चुने भारतीय मूल के सभी बुद्धिजीवियों पर अंकुश धरे अँग्रेज़ न केवल उन्हें अपने साम्राज्य को सुदृढ़ व स्थाई बनाए रखने और भारतीयता को दुर्बल बनाने हेतु प्रयोग करते रहे हैं बल्कि तथाकथित स्वतंत्रता के लगभग सात दशक पश्चात आज भी हम उन बुद्धिजीवियों को अंग्रेजों और तत्पश्चात उनके कार्यवाहक प्रतिनिधि, १८८५ में जन्मी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा निर्मित उनकी अतीत की राजनैतिक व सामाजिक छवि में देखते रहे हैं| कैसी विडंबना है कि जवाहरलाल नेहरु के कारण कृष्णधन घोष के सपुत्र श्री अरविन्द जिन्हें ऐतिहासिक परिस्थितियों में एकमात्र स्मृति बना आज भी भारत के एक छोटे भूभाग पर फ़्रांसीसी सामाजिक व आर्थिक प्रभाव को बनाए रखा है|
    मेरा दृढ़ विचार एवं विश्वास है कि आज राष्ट्रवादी नरेन्द्र मोदी जी के नेतृत्व में उत्पन्न राष्ट्रीयता के वातावरण में कल के बुद्धिजीवियों को विशेष अनुसंधानशालाओं में रख उन पर पुनः विश्लेषणात्मक दृष्टि डाली जाए| इस बीच आज के बुद्धिजीवी लेखकों को अपनी ऊर्जा केवल वर्तमान भारतीय सामाजिक परिस्थितियों को फिर से संवारने में लगानी चाहिए|

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