वैदिक ग्रंथों के अनुसार विश्वशान्ति व मानव कल्याण

अशोक “प्रवृद्ध”

 

यह परम सत्य है कि मनुष्य को जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त समस्याओं से मुक्ति नहीं मिलती । आदिकाल से लेकर आज तक के इतिहास और मानव प्रवृति का अध्ययन करने से इस सत्य का सत्यापन होता है कि मानव के साथ समस्याओं का चोली-दामन का साथ रहा है। जीवन की पहेली आज जितनी उलझी हुई है, उससे कम आदिकाल में भी कभी नहीं रही। जिस दिन से मानव ने इस धरती पर जन्म लिया है, वह समस्याओं से ग्रस्त रहा है और जब वह इस संसार से विदा से होता है, तब भी उसे समस्याओं से मुक्ति नहीं मिलती।

 

पुरातन काल से ही इस संसार में जीवन जीने के दो दृष्टिकोण रहे हैं-एक नियतिवादी और दूसरा पुरुषार्थवादी। नियतिवादी यह मानते हैं कि जीवन में जो कुछ भी घटित होता है, वह पूर्व से निर्धारित है। भविष्य पहले से नियत है, और मनुष्य उसके अनुसार चलने के लिये विवश है। परिणामतः नियतिवादी शान्त होकर आने वाले कल की प्रतीक्षा में जीवन व्यतीत करता हुआ उसके उन्नयन के लिये प्रयत्नशील नहीं रहता। इसलिये इस पक्ष का अनुसरण करने वाले व्यक्ति और समाज निर्धन, दीन-हीन व  दुःखी बने रहते हैं, क्योंकि भाग्यवादी होने के कारण यही उनकी नियति होती है । भविष्य को नियति पर छोड़ देने वाला व्यक्ति उसके निर्माण करने की आवश्यकता नहीं समझता। वह समझता है जो होना है, वह होगा ही। इसलिये नियतिवादी लोग भविष्य को परमात्मा पर छोड़ कर जितना भी और जो कुछ उपलब्ध होता है, उसी में आनन्द से जी लेते हैं। परन्तु पुरुषार्थवादियों के लिये भविष्य अनिश्चित और परिवर्तनीय है। पुरुषार्थवादियों के अनुसार मनुष्य यदि प्रयास करे तो उसका भविष्य वैसा ही हो सकता है, जैसा उसने सोचा है। जैसे एक वास्तुकार अर्थात आर्किटेक्ट नक्शे के आधार पर घर बनाता है, उसी प्रकार भविष्य का भी निर्माण किया जा सकता है। जो भी व्यक्ति या समाज भविष्य को अनिश्चित मानकर चलेगा उसका अशान्त और व्यथित होना निश्चित है। उसे लगेगा कि अभी और आगे बढ़ा जा सकता है, अभी और बहुत कुछ पाया जा सकता है, अभी और आगे बढ़ने की सम्भावना है। जितना भी मिल जाये, उसे उससे तृप्ति नहीं मिलेगी। ऐसे ही लोगों के लिये पञ्चतन्त्र में कहा गया है –

जीय्यन्ते जीर्य्यतः केशा दन्ता जीर्य्यन्ति जीर्य्यतः।

चक्षुःश्रोत्रे च जीर्य्येते तृष्णैका तरुणायते।।

– पञ्चतन्त्र, अपरीक्षितकारकम्-16

vaidik granthअर्थात- वृद्ध हो जाने पर मनुष्य के केश पक जाते हैं, दाँत शिथिल होकर हिलते हैं और फिर गिर भी जाते हैं, नेत्रों के देखने की शक्ति कम हो जाती है और कान बहरे हो जाते हैं, फिर भी तृष्णा दिन-प्रतिदिन तरुण होती जाती है।

महाराज मनु भी कहते हैं-

न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति।

हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्धते।।

– मनुस्मृति 2.94

 

अर्थात- कामियों की इच्छाएँ कभी भी भोग से शान्त नहीं होतीं, अपितु जैसे घी डालने से आग और भड़कती है, वैसे भोगेच्छा और भी प्रबल होती जाती है।

 

महाभारत-1.75.51 के अनुसार संसार में जो भी उपभोग की वस्तुएँ चावल-जौ से लेकर सोना, पशु और स्त्रियाँ तक हैं, यदि मनुष्य की तृष्णा बढ़े तो ये सब एक को भी सन्तुष्ट नहीं कर सकतीं। अतः इस रहस्य को हृदयंगम करके मनुष्य को संयम और संतोष के मार्ग का अवलम्बन करना चाहिये।

मनुष्य के स्वभाव के इस सत्य को ऋषियों ने बहुत पहले ही जान-समझ लिया था। वे जानते थे कि पुरुषार्थवादी होने का क्या परिणाम हो सकता है? इसलिये उन्होंने सावधान भी किया। वेद कहता है-

या मा॑ ल॒क्ष्मीः प॑तया॒लूरजु॑ष्टाभिच॒स्कन्द॒ वन्द॑नेव वृक्षम्।

अ॒न्यत्रा॒स्मत्स॑वित॒स्तामि॒तो धा॒ हिर॑ण्यहस्तो॒ वसु॑ नो॒ ररा॑णः।।

– अथर्ववेद 7.115.2

 

संयमी और संतोषी पुरुष की प्रभु से प्रार्थना है कि हे प्रभो ! प्रीति और सेवा के काम में न आने वाली अत एव मेरा पतन करने वाली यह लक्ष्मी मुझे इस प्रकार चिपट गयी है, जैसे आकाश बेल वृक्ष पर छा जाती है। वह बेल वृक्ष को कोई लाभ नहीं पहुँचाती, अपितु उसका रस अर्थात् जीवनतत्त्व चूसती रहती है और अन्त में उसे सुखा देती है। इसी प्रकार सेवा और प्रेम के काम न आने वाला धन पुरुष को कोई लाभ नहीं पहुँचाता। अपितु व्यर्थ का चिन्ता-भार बढ़ाकर उसकी मृत्यु का कारण बनता है।

वेद न तो पूरी तरह से नियतिवादी है और न पुरुषार्थवादी। उसमें न तो भोग की प्रधानता है और न त्याग की। इन दोनों का उचित सामञ्जस्य करते हुए वेद मनुष्य के लिये कल्याण का मार्ग प्रतिपादित करता है। वेद के विषय में मनु कहते हैं-

कामात्मता न प्रशस्ता न चैवेहास्त्यकामता।

काम्यो हि वेदाधिगमः कर्मयोगश्च वैदिकः।।

– मनुस्मृति 2.2.

 

न अधिक कामना प्रशंसनीय है और न उनका सर्वथा परित्याग ही। वेद का अध्ययन भी कामना से ही हो पाता है और धार्मिक अनुष्ठान भी विना कामना नहीं हो सकते। इस प्रकार वेद की दृष्टि में संयम नियन्त्रित कामना मनुष्य के लिये अपेक्षित है।

मनुष्य के कल्याण का मार्ग प्रशस्त करते हुए यजुर्वेद 40.1 में कहा गया है कि इस संसार के कण-कण में परमात्मा का वास है और जिसका जिसमें वास होता है, वही उसका स्वामी होता है। इसलिये इस जगत् का स्वामी परमात्मा है। यह समस्त संसार उस परमात्मा का है, इसलिये मनुष्य को त्यागभाव से भोग करना चाहिये और कभी किसी के धन की ओर ललचायी दृष्टि नहीं डालनी चाहिये।

जीवन जीने की कला सिखाते हुए यजुर्वेद 40.1 कहता है कि वस्तु का त्यागभाव से भोग और किसी अन्य के धन की इच्छा न करना ये दो सिद्धान्त मानव के जीवन में सुख और शान्ति स्थापित कर सकते हैं। आज के जीवन की विसङ्गति यही है कि हम आवश्यकता से अधिक संचय करते हैं तथा दूसरे का धन किस प्रकार हमारा हो जाए, इसके लिये अहर्निश प्रयत्नशील रहते हैं। मनुष्य की इसी अशान्ति का शमन करने हेतु श्रीमद्भगवद गीता-2.47 में श्रीकृष्ण ने कर्मसिद्धान्त का प्रतिपादन करते हुए केवल कर्म करने में ही अधिकार है, फल में नहीं कहा है । गीता के कर्मसिद्धान्त के मूल में यही भावना है कि कोई भी व्यक्ति किसी भी कर्म को एकाकी कर नहीं सकता, इसलिये फल पर उस अकेले का अधिकार नहीं है। जब समाज के प्रत्येक व्यक्ति के मन में यह धारणा स्थापित हो जायेगी कि जो आय हो रही है, उस पर मेरे साथ-साथ दूसरों का भी अधिकार है, तब अशान्ति की सम्भावना का बहुत कुछ शमन हो जाएगा। श्रीमद्भगवद गीता-2.51 के अनुसार मनुष्य का केवल कर्म का अधिकार है, फल का नहीं। कर्मफल से विरत करने के लिये उसने यहाँ तक कह दिया कि जो कर्म से उत्पन्न होने वाले कर्मफल का परित्याग कर देते हैं, उन्हींको मुक्ति की प्राप्ति होती है। समग्र कर्म के सिद्धान्त को अतिसंक्षेप में वर्णन करते हुए यजुर्वेद 40.2 में कहा है कि इस संसार में मनुष्य को निष्काम कर्म करते हुए सौ वर्ष तक जीवित रहने की कामना करनी चाहिये। इस प्रकार निष्काम कर्मों को करता हुआ मनुष्य कर्म के बन्धनों से लिप्त नहीं होता। यदि वह इससे भिन्न सकाम कर्मों को करता हुआ जीवन जीता है तो वह कर्मबन्धन के चक्र में पड़ जाता है।

वैदिक ग्रंथों के अनुसार मनुष्य को कर्म और वह कर्म भी निष्काम होना चाहिये। सकाम कर्म का परिणाम तत्काल तो अच्छा लगता है, लेकिन वह जन्म-मरण के बन्धन में डालने का कारण होने से त्याज्य है। इस प्रकार यह स्पष्ट  है कि पुरुषार्थवादी और नियतिवादी इन दोनों धारणाओं में से कोई भी सिद्धान्त पूर्ण नहीं है। ध्यातव्य है कि पश्चिम जो पुरुषार्थवादी रहा है, वह समृद्ध होकर भी अशान्त है, बहुत कुछ पाकर भी वह अभी भूखा है और पूर्व की सभ्यता जो नियतिवाद के सिद्धान्त पर चल रही है, जिसने समृद्धि के दर्शन नहीं किये हैं, वह निर्धनता से उत्पन्न विपन्नता के कारण त्रस्त है। उसे लगता है कि हमारी सभी समस्याओं का समाधान पश्चिम की ओर देखने और उसका अनुकरण करने से हो सकता है।

उपर्युक्त दोनों सिद्धान्त एकाङ्गी होने से अपूर्ण हैं। मनुष्य को जहाँ एक ओर ईश्वर के प्रति समर्पित होना आवश्यक है, वहीं उसे निरन्तर कर्म करते हुए उन्नति के शिखर पर चढ़ते चले जाना है। इसीलिए अथर्ववेद 8.1.6 में कहा गया है – हे पुरुष! तुझे जीवन में निरन्तर ऊपर उठना है, मैंने तेरे जीवन के लिये तुझे दक्षता प्रदान की है, हम जीवन में ऊपर उठते हुए अनश्वर सुख को प्राप्त करें। इसलिये तुझे ज्ञान दिया है।

जीवन का लक्ष्य निरन्तर उन्नति के पथ पर आरूढ़ होना है, उसकी प्राप्ति का साधन ऐसा प्रयोगात्मक ज्ञान है, जिस पर चलकर मनुष्य मोक्ष तक की यात्रा कर सकता है। परन्तु जीवन को मात्र आदर्शों के सहारे नहीं जिया जा सकता, जीवन की वास्तविकता की अपेक्षा है कि विना अर्थ के हम जीवन में एक पग भी आगे नहीं बढ़ सकते। अर्थ जीवन की मूलभूत आवश्यकता है, उसका अभाव असह्य है।

 

 

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