चुनावी बिसात पर जाति के मुहरे

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हिमकर श्याम

biharजाति की राजनीति बिहार की ख़ासियत रही है। बिहार का चुनाव जातिगत समीकरण के लिए ही जाना जाता है। जातिगत समीकरणों के आधार पर ही सूबे की चुनावी राजनीति का विश्लेषण किया जाता है। बिहार विधानसभा चुनाव के मद्देनज़र सभी राजनीतिक दल, गठबंधन जातीय समीकरण दुरुस्त करने में जुट गए हैं। जातियों की गोलबंदी तेज हो गई है। चुनावी बिसात पर जाति के मुहरे बिछ गए हैं। सियासी दावँ पेंच का खेल शुरू हो गया है। बाज़ी कौन जीतता है यह तो नतीजे बताएँगे।

चुनावों में भाजपा गठबंधन और महागठबंधन के बीच कड़ा मुक़ाबला होनेवाला है। दोनों ही गठबंधन विकास के नाम पर चुनावी जंग लड़ने की बात कह रहे हैं। महागठबंधन नीतीश कुमार की साफ़ सुथरी छवि , सुशासन और विकास के कार्यों को सामने रख रहा है तो भाजपा गठबंधन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता और विकास पुरुष की छवि को भुनाना चाह रहा है। इन दोनों चेहरों को सामने रख जातीय समीकरण साधने की भी पुरज़ोर कोशिश की जा रही है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी खुद को पिछड़ी जाति का बता कर बिहार में जाति कार्ड खेल चुके हैं। वहीं राजग नरेंद्र मोदी को विकास पुरुष, मज़बूत नेता, ग़रीब का बेटा बता कर इस खेल को आगे बढ़ा रहा है। दूसरी ओर राजग को रोकने के लिए बिहार के दो ताक़तवर नेता और एक-दूसरे के घोर विरोधी रहे लालू और नीतीश ने हाथ मिला लिया है। जो परिदृश्य उभर कर सामने आ रहे हैं उसमें यही लग रहा है कि विकास के मुद्दों पर जातीय समीकरण भारी पड़ने वाले हैं। सत्ता पर कब्जा करने के लिए गठंबधनों द्वारा विभिन्न जातियों का सहारा लिया जा रहा है। विकास के दावों और वादों के साथ-साथ वोट बैंक पर पूरा ध्यान दिया जा रहा है।

भाजपा की नज़र सवर्ण, पासवान, महादलित, पिछड़ी जाति के वोटों पर है। गठबंधन की रूपरेखा उसी के अनुरूप है। गौरतलब है कि सवर्ण वोट बैंक बीजेपी का परंपरागत वोट बैंक है। सवर्णों के 18 फीसदी और बनियों के 7 फीसदी वोटरों पर उसकी पकड़ हैं। पार्टी को भूमिहार, राजपूत और वैश्य वोटों पर पूरा भरोसा है। उपेंद्र कुशवाहा के राजग में शामिल होने के कारण कुर्मी और कोइरी यानी कुशवाहा जाति के वोटों में भी सेंध लगेगा। वैसे, इन जातियों के आठ प्रतिशत वोटों पर पिछले चुनाव तक नीतीश कुमार का एकछत्र राज माना जाता था, लेकिन कुशवाहा के होने से कुछ वोट राजग को मिलने के क़यास लगाए जा रहे हैं। दलितों में पैठ बढ़ाने के लिए बीजेपी ने महादलित नेता जीतनराम मांझी को अपने पाले में कर लिया है, वहीं दलित नेता रामविलास पासवान डेढ़ साल से उसके साथ हैं। केंद्र में भाजपा नीत गठबंधन की सरकार होने का लाभ चुनावों में मिल सकता है। चुनाव प्रचार में इस बात पर ज़ोर दिया जाएगा कि केंद्र और राज्य में एक ही गठबंधन की सरकार रहने से विकास का कार्य तेज़ी से होगा।

दूसरी ओर, महागठबंधन को राजद के माई समीकरण (मुस्लिम-यादव) के साथ नीतीश कुमार का लव-कुश (कुर्मी-कोइरी) और महादलित वोट का भरोसा है। यदि इसमें कांग्रेस के कुछ परम्परागत वोट जुड़ जाएँ तो चुनावी तस्‍वीर बदल सकती है। टिकट बँटवारे में भी माई और लव-कुश समीकरण को ध्यान में रखा गया है। महागठबंधन की लिस्ट में यादव उम्मीदवारों की संख्या सबसे ज़्यादा 62 है। कोइरी जाति के 30 और कुर्मी जाति से 17 उम्मीदवारों को टिकट मिला है। महागठबंधन की नज़र यादवों के साथ-साथ 5.5 फीसदी कुर्मी और 21 प्रतिशत पिछड़ी जाति के वोटों पर भी हैं। कांग्रेस ने अपने परंपरागत जातिगत समीकरण को देखते हुए मुस्लिम और सवर्ण जाति के उम्मीदवारों को टिकट दिया है। महागंठबंधन की ओर से 33 मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट दिया गया है। बीजेपी के वोट में सेंध लगाने के लिए महागठबंधन ने 39 सवर्ण उम्मीदवार चुनावी मैदान में उतारे हैं। पिछले साल हुए लोकसभा चुनाव की बात करें तो इसमे बीजेपी गठबंधन को 39 फीसदी वोट मिले थे। राजद, कांग्रेस और एनसीपी गठबंधन को 30 फीसदी वोट मिले और जेडीयू मात्र 17 फीसदी वोट। विपक्ष के बिखराव का फायदा बीजेपी को मिला था। इस बार स्थिति अलग है। मोदी लहर पिछले चुनाव की तुलना में कम दिखाई दे रही है। राजद, जदयू और कांग्रेस के मतों को मिला देने से महागठबंधन लाभ की स्थिति में है।

बिहार में संख्या की दृष्टि से यादव बड़ा समुदाय है। कुल मतदाताओं में यादवों की संख्या 16 फ़ीसदी है। यादव वोटरों के दम पर ही लालू मुख्यमंत्री बने और बिहार की सत्ता 15 सालों तक उनके हाथों में रही। यादवों और मुस्लिम वोटरों को लालू की ताक़त समझा जाता था। यादवों के साथ मुस्लिम मतदाताओं को मिलाकर लालू ने अपने लिए एक अनोखा सामाजिक आधार तैयार किया था। राज्य में मुस्लिम मतदाता 17 फ़ीसदी के करीब हैं। इन दोनों समुदायों पर लालू की पकड़ ढीली पड़ती गयी। नतीजन लालू सत्ता से दूर हो गए। इसमें कोई शक नहीं कि लालू ने यादव समुदाय को ताक़त और आवाज़ दी। जब तक लालू यादव का शासन काल था बिहार की राजनीति में यादवों का प्रतिनिधित्व सबसे अधिक था। लालू 1990 में जब बिहार की गद्दी पर बैठे तब बिहार में यादव विधायकों की संख्या 63 थी। 1995 में यादव विधायकों की संख्या बढ़कर 86 हो गई। हाल तक यादवों के सर्वमान्य नेता लालू ही थे। पिछले कुछ चुनावों में बीजेपी की मदद से नीतीश ने लालू के वोट बैंक में सेंधमारी की थी। जिसका लाभ राजग को मिला था। नीतीश अब लालू के साथ आ गए हैं।

भाजपा अब बिना नीतीश के यादवों को साधने लगी है। विधानसभा चुनावों में भाजपा के 160 उम्मीदवारों में यादव प्रत्याशियों की संख्या दो दर्जन के क़रीब है। कुछ यादव प्रत्याशी एनडीए के बाक़ी दलों में भी हैं। इन उम्मीदवारों को राजद के यादव उम्मीदवारों के ख़िलाफ़ उतारा जा रहा है। यादव उम्मीदवारों के जरिए पार्टी लालू यादव का खेल बिगाड़ने चाहती है। आंकड़े बताते हैं की लोकसभा चुनाव के दौरान करीब 19 फीसदी यादवों ने बीजेपी को वोट दिया था। यादवों की अहमियत और ताक़त का अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि इस बार 18 सीटों पर यादव उम्मीदवार आमने-सामने होंगे। बिहार के पूर्वी क्षेत्र कोसी, पूर्णिया, दरभंगा ओर भागलपुर में लालू प्रसाद का ‘माई’ समीकरण बहुत मजबूत है। लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी की लहर के बावजूद इस इलाके में भाजपा की सिर्फ एक सीट जीत पाई थी। प्रधानमंत्री की सहरसा और भागलपुर की रैलियों से जाहिर हुआ कि भाजपा पूर्वी बिहार में अपनी पूरी ताकत लगाएगी और लालू के माई समीकरण जिसमें अब जदयू का पिछड़ा वोट बैंक और कांग्रेस के कुछ परम्परागत सवर्ण वोट भी शामिल है, में सेंध लगाने की पुरज़ोर कोशिश कर रही है।

बिहार के चुनाव में जीतन राम मांझी की भूमिका भी महत्वपूर्ण हो सकती है। इसे ‘मांझी फैक्टर’ के रूप में देखा जा रहा है। नीतीश कुमार ने महादलित की अपनी राजनीति को सशक्त करने के लिए मांझी को अपना उत्तराधिकारी बनाया था, यही उनकी सबसे बड़ी भूल बन गयी। मुसहर जाति के पहले मुख्यमंत्री को हटाए जाने के कारण इस वर्ग के कुछ मतदाताओं में नीतीश के प्रति नाराज़गी है। जदयू से अलग होने के बाद मांझी ने हिन्दुस्तानी आवाम मोर्चा (हम) का गठन किया है। जदयू से अलग हुए 18 विधायक मांझी के साथ थे। पांच भाजपा में शामिल हो जाने के बाद मांझी की पार्टी में 13 विधायक रह गए। मांझी की पार्टी अब एनडीए का हिस्सा है। उन्हें 20 सीटें दी गयी हैं। मांझी मुसहर जाति के प्रभावी नेता है। मुख्यमंत्री बनने के बाद मांझी की महत्वकांक्षा बढ़ गयी। उनका राजनीतिक कद भी बढ़ गया। बिहार की कुल आबादी में से 16 प्रतिशत के आस-पास दलित हैं, जिनमें महादलित 10 प्रतिशत हैं, दलित छह प्रतिशत हैं। मुसहर बिहार के महादलित वर्ग की सबसे बड़ी जाति है, जिसमें पहले कुल 18 जातियां थीं, अब 22 हो गई हैं। दलित- महादलित वोट बैंक पर दोनों गठबंधन की नजर है। एनडीए ने जहां इस वर्ग के 34 उम्मीदवारों को टिकट दिये वहीं महागठबंधन ने 38 उम्मीदवार उतारे हैं। दलित वोटों का रुझान नतीजों को प्रभावित करने का दम-ख़म रखता है।

आल इंडिया मुस्लिम मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन’ (ए.आई.एम.आई.एम.) के नेता असदुद्दीन ओवैसी के चुनावी मैदान में उतरने से महागठबंधन को मुसलमानों के वोट बँट जाने की चिंता सताने लगी है, जबकि राजग को इसमें अपना फ़ायदा दिखाई दे रहा है। इसी बहाने उसे ख़ुश होने का कारण भी मिल गया है। दूसरी ओर भाजपा की सहयोगी और राजग का हिस्सा रही शिवसेना ने बिहार में स्वतंत्र रूप से चुनाव लड़ने की घोषणा करके भाजपा को दुखी और नीतीश कुमार व लालू को खुश होने का मौका दे दिया है। वहीं, वाम मोर्चा और सामाजवादी सेक्युलर फ़्रंट के सभी सीटों से चुनाव लड़ने की घोषणा से महागठबंधन की परेशानी बढ़ गई है। वाम दलों और सामाजिक न्याय की पार्टियों का जनाधार कमोवेश एक ही है। ऐसे में अलग-अलग चुनाव लड़ने पर नुकसान तीनों को होगा। विशेषकर महागठबंधन को अधिक नुकसान होने की उम्मीद है।

बिहार की जनता ने नीतीश कुमार को जब दोबारा चुना तब ऐसा लगा था कि वो अब सिर्फ विकास चाहती है। जेडीयू-बीजेपी गठबंधन को मिले जनसमर्थन से लगा था कि बिहार की जनता अब जाति-पांत की सोच से ऊपर उठ चुकी है, जनता ने सुशासन के पक्ष में वोट दिया है। बिहार बदल गया है, लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है था। नीतीश कुमार राजनीति के माहिर खिलाड़ी हैं। एक कुशल प्रशासक होने के साथ-साथ वह सोशल इंजीनियरिंग भी बखूबी जानते हैं। वह अच्छी त्तरह से जानते हैं कि बिहार में यदि राजनीति करनी है तो सिर्फ विकास से काम नहीं चलेगा। इसके लिए वोट बैंक की बाजीगरी भी आनी चाहिए।

नीतीश कुमार ने विकास और सामाजिक न्याय को शासन का मूलमंत्र बनाया। उन्होंने विकास योजनाओं में वोट बैंक का भी ध्यान रखा। चाहे वह अत्यंत पिछड़ी जाति हो, महादलित हो, पसमांदा मुसलमान हो, सबको विकास में भागीदार बनाने की कोशिश की। विशेष कल्याण नीतियों के जरिए मुसलिमों के बीच अपना एक विशेष स्थान बनाया। नीतीश विकास और वोट में अद्भुत संतुलन बैठा कर बढ़ते रहे। बीजेपी से अलग होने के कारण सवर्ण मतदाता उनसे दूर हो गए। लोग इसे नीतीश की चूक मानते हैं। अपराधमुक्त बिहार का दावा करनेवाले नीतीश कुमार के लालू से हाथ मिलाने से मतदाता आशंकित हैं। उन्हें जंगलराज के लौटने का डर सता रहा हैं। राजग इसे जंगलराज पार्ट-2 का नाम दे रहा है। चुनाव मैदान में इस मुद्दे का भरपूर इस्तेमाल भी करेगा। तमाम शंकाओं के बीच राज्य के अधिकांश लोग मानते हैं की नीतीश के कार्यकाल में सूबे का विकास हुआ है। राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार नीतीश एक अच्छे मुख्यमंत्री और कुशल प्रशासक हैं, बिना लालू यादव से जुड़े उन्हें विजय मिल सकती थी।

बिहार में जातीय राजनीति का इतिहास पुराना है। आजादी के बाद के दौर में डॉ राम मनोहर लोहिया ने पिछड़ों की राजनीतिक गोलबंदी करके कांग्रेस और ऊंची जातियों के वर्चस्व को तोड़ने की कोशिश की थी। लोहिया ने पिछड़ी जातियों के राजनीतिकरण पर जोर दिया। जैसे-जैसे इन जातियों का राजनीतिकरण हुआ, उन्होंने लोकतांत्रिक राजनीति में अपनी हिस्सेदारी की मांग करनी शुरू कर दी। वर्ष 1977 में और 1989 के बाद इन प्रवृत्तियों को और बढ़ावा मिला। वीपी सिंह सरकार द्वारा मंडल आयोग की सिफ़ारिशें लागू करने के फैसले ने जबरदस्त भूमिका अदा की। 90′ के दशक में जेपी आंदोलन से निकले लालू और नीतीश के उभार के बाद राजनीतिक नेतृत्व एक पिछड़ी जाति यादव से दूसरी पिछड़ी जाति-कुर्मी के हाथों में चला गया। अति पिछड़ी जातियों और पसमांदा मुसलमानों में भी राजनीतिक जागरूकता आयी। वास्तव में, जाति की आड़ में लोगों की असल समस्याओं की उपेक्षा की जाती है और लोकतांत्रिक राजनीति जातिगत समीकरणों का खेल बनकर रह जाती है। किस समुदाय या जाती का रुझान किस ओर रहेगा यह अभी नहीं कहा जा सकता है। लड़ाई वही जीतेगा जो ज्यादा ताक़तवर जातीय समीकरण का गठजोड़ बटन दबने तक कायम रख सकेगा।

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