नरेन्द्र मोदी ने दिनांक 14 जुलाई, 2013 को पुणें के फर्गुसन कॉलेज में दिए अपने भाषण में “आधुनिकता” शब्द का प्रयोग किया। उनके मुख से आधुनिकता का पक्षधर होने की बात सुनकर आश्चर्य हुआ। इसका कारण यह है कि मोदी जिस पाठशाला में पढ़े हैं तथा जहाँ उनके सम्पूर्ण व्यक्तित्व का निर्माण हुआ, उस पाठशाला में आधुनिकता निषिद्ध है, वहाँ केवल परम्परा को ही महिमामंडित किया जाता है। मैंने नरेन्द्र मोदी को इसके पहले जब-जब किसी भी विषय पर बोलते हुए सुना, उन्होंने हमेशा अतीत की परम्परा को महिमा मंडित किया । आज का युवक भविष्य की ओर देख रहा है। युवा मानस अतीत की ओर नहीं देखता। बूढ़े लोग हमेशा अतीत की ओर देखते हैं। युवा वर्तमान में जीता है तथा भविष्य की ओर देखता है। यह स्वाभावगत अंतर है। इसमें किसी दृष्टि के अच्छे होने या बुरा होने का सवाल नहीं है। मैं समझता हूँ कि चूँकि नरेन्द्र मोदी युवा लोगों को सम्बोधित कर रहे थे, उनके “डॉटकॉम पोस्टर बॉय्ज़” राजेश जैन एवं बी. जी. महेश के नेतृत्व में मोदी के पक्ष में इंटरनेट पर अभियान चलाने वाली टीम ने उनको समझाया होगा कि वहाँ आपको अपने को आधुनिकता का पक्षधर ठहराना उचित होगा। मगर जो आदमी अभी तक की अपनी पूरी जिंदगी में परम्परा का ही पाठ पढ़ता रहा हो, वह दूसरों के द्वारा रटाए गए शब्द का उच्चारण तो कर सकता है, शब्द का भाव नहीं समझा जा सकता। जो पाठशाला पाश्चात्य विचारों से हमेशा नफरत करती रही हो, उस पाठशाला में हुए दीक्षित व्यक्ति को यदि अपनी अंतरात्मा के विपरीत आधुनिकता का उच्चारण करना पड़े तो वह कूटनीति का सहारा लेते हुए वही कहेगा जो नरेन्द्र मोदी ने कहा। इस मामले में उनकी कूटनीतिज्ञ बुद्धि का कायल हूँ। इसको कहते हैं कि साँप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे।
मगर क्या आधुनिकता में विश्वास करने वाला व्यक्ति यह कह सकता है कि “मैं आधुनिकता का पक्षधर हूँ लेकिन पश्चिमीकरण का नहीं। आधुनिकता के पक्षधर होने में पश्चिमीकरण के निषेध का प्रसंग नहीं उठना चाहिए। आधुनिक विज्ञान का जन्म पश्चिमी देशों में हुआ। आधुनिक प्रविधि का जन्म पाश्चात्य देशों में हुआ। मगर विज्ञान और प्रविधि सार्वदेशिक हैं। कोई यह नहीं कहेगा कि मैं विज्ञान का तो पक्षधर हूँ लेकिन पश्चिमीकरण का नहीं। इसी प्रकार कोई यह नहीं कहेगा कि मैं प्रविधि का तो पक्षधर हूँ लेकिन पश्चिमीकरण का नहीं। इसी प्रकार आधुनिकता प्रत्यय का विकास पाश्चात्य देशों में हुआ और इसका विरोध भी पाश्चात्य देशों के चर्च-संघों द्वारा हुआ। आधुनिकता, विज्ञान, प्रविधि परस्पर सम्बद्ध हैं एवं सार्वदेशिक हैं। ऐसा नहीं है कि देशों के हिसाब से विज्ञान के सिद्धांतों में अंतर होता है। अगर ऐसा होता तो विज्ञान की अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठियाँ न होतीं, विज्ञान के क्षेत्र में अनेक ऐसे प्रोजेक्ट संचालित या आयोजित न होते जिनमें अनेक देशों के वैज्ञानिकों की सहभागिता होती है। आधुनिकता का मतलब पाश्चात्य शैली के परिधान पहनना नहीं है, पाश्चात्य शैली के घरों में रहना नहीं है, पाश्चात्य शैली का भोजन करना नहीं है। पश्चिम देशों के सभी व्यक्ति आधुनिक नहीं है, भले ही वे पाश्चात्य शैली के घरों में रहते हैं, पाश्चात्य शैली के परिधान पहनते हैं एवं पाश्चात्य शैली का भोजन करते हैं। इसका कारण यह है कि वे विचारों से अभी भी आधुनिक नहीं हैं, वे विचारों से परम्परागत मूल्यों में विश्वास करते हैं।
मगर मैं यह जानना चाहता हूँ कि नरेन्द्र मोदी के “डॉटकॉम पोस्टर बॉय्ज़” राजेश जैन एवं बी. जी. महेश के नेतृत्व में काम करने वाली टीम ने नरेन्द्र मोदी को आधुनिकता के प्रत्यय के बारे में कोई ज्ञान दिया या केवल यह कह दिया कि आप तो वहाँ आधुनिकता के पक्षधर होने का बयान दे दीजिए। इससे भारत की युवा पीढ़ी प्रभावित हो जाएगी।
भारत में आधुनिकता के उदय का श्रेय जिन मनीषियों को जाता है उनमें राजा राम मोहन राय और स्वामी विवेकानन्द के नामों का अधिक उल्लेख होता है। भारत में आधुनिकता के विचारों को पल्लवित करने वाले जो भी महापुरुष हुए वे सब बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी थे, समाजसेवी एवं चिंतक थे, सबने भारतीय ग्रंथों के साथ-साथ पाश्चात्य ग्रंथों का भी अध्ययन किया था।
राजा राम मोहन राय ने सदियों से रूढ़ियों से जकड़े भारतीय समाज की सोच बदलने के लिए क्रांतिकारी कदम उठाए। राजा राम मोहन राय जहाँ एक ओर संस्कृत, बांग्ला, हिन्दी के विद्वान थे वहीं अंग्रेजी, ग्रीक और फारसी में भी निष्णात थे। उन्होंने हिन्दू समाज में प्रचलित अमानवीय सति प्रथा को समाप्त कराकर ही दम लिया। उन्होंने अन्य अनेक रूढ़िवादी एवं जड़ राति-रिवाजों का विरोध किया। वेदों और उपनिषदों का अंग्रेजी में अनुवाद करने वाले राजा राम मोहन राय मूर्ति पूजा के घोर विरोधी थे। अपने इन विचारों और समाज सुधार आन्दोलनों के कारण उन्हें कट्टर हिन्दुत्ववादियों के चरम विरोध का सामना करना पड़ा। उन्हें वोट बटोरने की चिंता न थी। इस कारण वे अपने सिद्धांतों पर अडिग रहे। कट्टर हिन्दुवादी समाज के चरम विरोध के कारण उनको सन् 1828 में “ब्रह्म समाज” की स्थापना करनी पड़ी।
आजकल नरेंद्र मोदी स्वामी विवेकानन्द के नाम का जाप बहुत कर रहे हैं। मैं विवेकानन्द के सम्बंध में इस तथ्य को रेखांकित करना चाहता हूँ कि रामकृष्ण के सम्पर्क में आने के पहले स्वामी विवेकानन्द ने एक ओर वेद, उपनिषद, गीता, रामायण, महाभारत, विभिन्न पुराणों आदि हिन्दू धर्म- ग्रंथों का गहन अध्ययन किया तो दूसरी ओर तथ्यवाद एवं समाजशास्त्र के विचारक आगस्त कॉन्त, उत्पत्ति की सर्वसमावेशक अवधारणा के व्याख्याता हरबर्ट स्पेंसर, व्यक्तिगत स्वातंत्र्य की शक्ति एवं उसकी सीमा के मीमांसक जॉन स्टूवर्ट मिल, विकासवाद के सिद्धांत के प्रख्यात जनक चार्ल्स डॉरविन, नैतिक शुद्धता के सिद्धांत के विवेचक जर्मन दार्शनिक इमानुएल कॉट, नव्य-कांटवाद एवं आदर्शवाद के जर्मन-दार्शनिक गॉतिब फिश्ते, अनुभव आधारित वास्तविक ज्ञान-प्राप्ति के समर्थक स्काटलैण्ड के दार्शनिक डेविड ह्यूम, नास्तिक निराशावाद के दर्शन के प्रतिपादक जर्मन दार्शनिक आर्थर शोपेनहॉवर, हेगेलीय दर्शन अथवा निरपेक्ष आदर्शवाद के प्रणेता जॉर्ज विल्हेम फ्रेडरिच हेगल तथा सर्वधर्म निरपेक्षवाद के प्रवर्तक यहूदी मूल के डच दार्शनिक बारूथ स्पिनोज़ा आदि विभिन्न पाश्चात्य दार्शनिकों एवं मनीषियों के ग्रंथों का भी पारायण किया। स्पेंसर के विचारों से वे प्रभावित हुए थे। इसका प्रमाण उनका स्पेंसर से किया गया पत्राचार है। पाश्चात्य दर्शन एवं उसकी वैज्ञानिक दृष्टि के वे प्रबल समर्थक थे तथा भारत की युवा-शक्ति को उन्होंने विषय की विवेचना-पद्धति में इसे अपनाने का आग्रह किया। सत्य के उपासक की दृष्टि उन्मुक्त होती है। अगर कहीं भी अच्छी बात है तो उसको समझने एवं ग्रहण करने का यत्न करना चाहिए। अपनी फरवरी से मार्च 1981 की यात्रा के दौरान अलवर में उन्हें भारतीय इतिहास की विवेचना पद्धति में वैज्ञानिक दृष्टि की कमी का अहसास हुआ तथा उन्होंने भारत के युवाओं को पाश्चात्य वैज्ञानिक पद्धति को अपनाने का आग्रह किया। उनका मत था कि इसके ज्ञान से भारत में युवा हिन्दू इतिहासकारों का ऐसा संगठन तैयार हो सकेगा जो भारत के गौरवपूर्ण अतीत की वैज्ञानिक पद्धति से खोज करने में समर्थ सिद्ध होगा और इससे वास्तविक राष्ट्रीय भावना जागृत हो सकेगी। (देखेः रोमां रोलां : द लॉइफ ऑफ् विवेकानन्द एण्ड दॉ यूनिवर्सल गॉसपॅल, पृष्ठ 23-24, अद्वैत आश्रम (पब्लिशिंग डिपार्टमैण्ट) कलकत्ता- 700 014, पंद्रहवाँ संस्करण (1997))।
विवेकानन्द का महत्व अथवा उनका प्रदेय निम्न कारणों से सबसे अधिक हैः
(1) व्यावहारिक जीवन की समस्याओं का समाधान करना तथा समसामयिक दृष्टि से पराधीन भारत के सुषुप्त मानस में आत्म गौरव एवं आत्म विश्वास का मंत्र फूँककर उनको कर्म-पथ पर आगे बढ़ने की प्रेरणा देना।
(2) मंदिर में विराजमान मूर्तियों की पूजा एवं उनको भोग चढ़ाने की अपेक्षा जीते-जागते इंसान की सेवा को महत्व प्रदान करना।
(3) सर्व धर्म समभाव का प्रतिपादन करना।
“आधुनिकता” केवल कुछ स्वर और व्यंजनों से निर्मित शब्द ही नहीं है, यह एक विचार प्रत्यय है। आधुनिकता का प्रत्यय उस विचार से शुरु होता है जो यह मानता है कि ईश्वर ने मनुष्य को निर्मित नहीं किया अपितु मनुष्य ने ही ईश्वर को अपनी आकृति में ढाला है। आधुनिकता व्यक्ति के अंध विश्वासों को दूर करती है तथा उसकी तर्क-शक्ति का विकास करती है। आधुनिकता को यदि समझना है तो आधुनिक मानव-परिवेश की प्रकृति और परिवर्तित जीवन-मूल्यों को आत्मसात करना होगा। यह मानना होगा कि मनुष्य ही सारे मूल्यों का स्रोत है। मनुष्य ही सारे मूल्यों का उपादान है। क्या मोदी की पाठशाला उनको यह स्वीकार करने की इजाजत देगी।
महावीर सरन जैन
A nukta and shirorekha free Gujanagari (Gujarati) script is a mostly evolved simplest modern form of Sanskrit script showing the simplicity of old Brahmi script.
Can one write chemical or algebraic formulas in Sanskrit script ?
Here are some article related links.
https://en.wikipedia.org/wiki/Modernity
https://en.wikipedia.org/wiki/Modernisation
सादर-
और संगणक की आंतरिक परिचालन हेतु रचित भाषा में पाणिनि के व्याकरण का ही योगदान हुआ है। यह योगदान भी हमारे गत ४-५ शतकों की दास्यता के कठिन काल के पश्चात। द. ठेंगडी जी की पुस्तक है, “Modernisation without Westernisation” —उसमें भी कुछ उत्तर मिल जायेगा।
पर निम्न कडी भी देख लीजिए।
https://www.pravakta.com/paninis-computer-compyutr-contribute-to-the-internal-language
पश्चिम की असाधारण उन्नति के मूल में, हिंदु अंक गणित ही माना जाता है। कृपया, निम्नांकित कडी देख लीजिये।
https://www.pravakta.com/west-of-the-extraordinary-advances-in-basic-arithmetic-hindu
आपने जो लिखा है वह निर्विवाद है। प्रसंग भारतीय चिंतन का विश्वजनीन प्रसंग का नहीं है। प्रसंग आधुनिकता का है, आधुनिक का नहीं। आधुनिक कालगत प्रत्यय है, आधुनिकता विचार प्रत्यय है जिसका विरोध यूरोप के चर्च संघ करते हैं।
आपने जो लिखा है वह निर्विवाद है। प्रसंग भारतीय चिंतन के विश्वजनीन प्रभाव के निरूपण का नहीं है। प्रसंग आधुनिकता का है, आधुनिक का भी नहीं। आधुनिक कालगत प्रत्यय है, आधुनिकता विचार प्रत्यय है जिसका विरोध यूरोप के चर्च संघ करते हैं। भारतीय मनीषा ने गणित एवं अध्यात्म के क्षेत्रों में जो योगदान दिया है, मैंने उसकी विवेचना अनेक लेखों में की है तथा सन् १९८४ से सन् १९८८ की अवधि में यूरोप प्रवास के दौरान इस विषय से सम्बंधित अनेक पहलुओं पर यूरोप के १८ देशों की संस्थाओं में व्याख्यान दिए हैं। शून्य और परब्रह्म की भारतीय अवधारणाएँ अप्रतिम हैं।
आप कृपया आधुनिकता के विचार प्रत्यय को जानने के लिए तत्सम्बंधी साहित्य में अवगाहन करने की अनुकंपा करें।
(१)आलेख का नाम लेखक प्रों जैन साहब ने ही दिया है: “आधुनिकताः सार्वदेशिक विचार प्रत्यय”
(२) सामान्यतः शीर्षक का अर्थ समझाकर आगे बढना लेख का प्रारंभिक कर्तव्य माना जायेगा।
(३) पर फिर लेखक ही पाठक को सुझाव देते हैं,
==> “आप कृपया आधुनिकता के विचार प्रत्यय को जानने के लिए तत्सम्बंधी साहित्य में अवगाहन करने की अनुकंपा करें।”
(४) इस विचार प्रत्यय को समझाना, इस नाम वाले आलेख से कोई अपेक्षा रखें, तो गलत कैसे हो सकता है?
(५) शीर्षक देने में गलती तो नहीं हुयी ना?
(६) तत्सम्बंधी साहित्य के कुछ ठोस नाम भी तो नहीं दिए गए हैं।
सादर —
यदि आप लेख का अच्छे से अध्ययन करेंगे तो आधुनिकता के विचार के साहित्य से सम्बंधित चिंतकों एवं उनके द्वारा प्रवर्तित दर्शन के स्कूल के नाम ढूढ़ सकते हैं। उसमें आपको स्वयं अवगाहन करना पड़ेगा जैसा स्वामी विवेकानन्द जी ने अपने जीवन में किया था। आपकी सुविधा के लिए, मैं लेख के सम्बंधित अंश को उद्धृत कर रहा हूँः
“रामकृष्ण के सम्पर्क में आने के पहले एक ओर उन्होंने वेद, उपनिषद, गीता, रामायण, महाभारत, विभिन्न पुराणों आदि हिन्दू धर्म- ग्रंथों का गहन अध्ययन किया तो दूसरी ओर तथ्यवाद एवं समाजशास्त्र के विचारक आगस्त कॉन्त, उत्पत्ति की सर्वसमावेशक अवधारणा के व्याख्याता हरबर्ट स्पेंसर, व्यक्तिगत स्वातंत्र्य की शक्ति एवं उसकी सीमा के मीमांसक जॉन स्टूवर्ट मिल, विकासवाद के सिद्धांत के प्रख्यात जनक चार्ल्स डॉरविन, नैतिक शुद्धता के सिद्धांत के विवेचक जर्मन दार्शनिक इमानुएल कॉट, नव्य-कांटवाद एवं आदर्शवाद के जर्मन-दार्शनिक गॉतिब फिश्ते, अनुभव आधारित वास्तविक ज्ञान-प्राप्ति के समर्थक स्काटलैण्ड के दार्शनिक डेविड ह्यूम, नास्तिक निराशावाद के दर्शन के प्रतिपादक जर्मन दार्शनिक आर्थर शोपेनहॉवर, हेगेलीय दर्शन अथवा निरपेक्ष आदर्शवाद के प्रणेता जॉर्ज विल्हेम फ्रेडरिच हेगल तथा सर्वधर्म निरपेक्षवाद के प्रवर्तक यहूदी मूल के डच दार्शनिक बारूथ स्पिनोज़ा आदि विभिन्न पाश्चात्य दार्शनिकों एवं मनीषियों के ग्रंथों का भी पारायण किया”।
प्रोफ़ेसर.. . न तो आधुनिक शब्द को जनता ,न आधुनिकता को , न पश्चिमीकरण को ,पश्चिम में क्या हो रहा हे नहीं ,भारत में क्या हो रहा हे नहीं , यदि विज्ञानं ऒर सभ्यता को भी जानता, ऒर कुछ पुराने कालखंड को भी जानने की कोशिश की होती , लिखने की प्रतियोगिता हे, सुना लिख दिया , पढ़ा लिख दिया ,किसीने कहा लिख दिया , दिमाग बुद्धि की आवश्यकता ही नहीं हे, दूसरो को बुद्धू समझने में कितनी समझदारी हे . यही पश्चिमीकरण की प्रतिमा हे,