अभिशाप बुढापा कभी न था,यह तो गरिमा का पोषक है |
आनन्द इसी में जीने का,यह शिखर रूप का द्योतक है |
क्यों रखें अपेक्षा औरों से,
अब तक भी तो हम जीते थे |
हम कुंआ खोदते थे अपना,
तब उसका पानी पीते थे |
खर्चों को करके अल्प सभी, जीवन जीना सम्मोहक है |
आनन्द इसी में जीने का,यह शिखर रूप का द्योतक है |
अब तक देते थे हम सबको,
क्यों हाथ पसारें हम अपना |
क्यों हम सोचें सब ध्यान रखें,
है समय आज किस पर इतना |
सोचो समाज को क्या दें हम,बस यह विचार उन्मोदक है |
आनन्द इसी में जीने का,यह शिखर रूप का द्योतक है |
ये सब स्तर में छोटे हैं,
हम क्यों मांगे अब इनसे कुछ |
हम ने पाला और बड़ा किया,
इनको दे डाला है सब कुछ |
हम दाता, ये अब भी याचक, यह भाव रखो,मनमोहक है |
आनन्द इसी में जीने का,यह शिखर रूप का द्योतक है |
वटवृक्ष रहे हम जीवन- भर,
अब कैसे उजड़े नीड़ बनें |
जो सम्भव था वह् दान दिया,
अब अंत समय क्यों दीन बनें |
हम दानवीर रह, जग त्यागें, यह सोच सदा उदबोधक है |
आनन्द इसी में जीने का,यह शिखर रूप का द्योतक है |
प्रेम और स्नेह को तो दिया ही जा सकता है । आयु जो अनायास अपने आप बढ़ती है, वरिष्ठ नागरिक बनने पर तो दायित्व को और बढ़ाती है । इस मुकाम पर पहुँचने के बाद हम अपने परिवार, समाज और देश के लिए कितने अधिक उपयोगी हो सकते हैं, इसी बात पर शेष जीवन की सार्थकता निर्भर है । सुंदर कविता के लिए बधाई ।
आपकी कृपापूर्ण अभिव्यक्ति के लिए धन्यवाद| आशा है स्नेह बनाए रखेंगे |
जीने के लिए हर आयु का एक अपना आर प्रस्तुति.आनंद है, जरूरत है बदलते समय के साथ उसे जीने की. सुन्दर प्रस्तुति.
आपके उत्साहवर्धन के प्रति आभार | कृ.स्नेह बनाए रखें |