अडवाणी-मोदी मतभेद का प्रचार कहीं पुरानी चाल तो नहीं

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वीरेन्द्र जैन

पिछले दिनों मीडिया द्वारा अगले प्रधानमंत्री पद के लिए भाजपा उम्मीदवार के लिए वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण अडवाणी और नरेन्द्र मोदी के बीच प्रतियोगिता होने की कहानियां बड़े जोर शोर से प्रचारित की जा रही हैं। इस प्रचार से प्रभावित होकर भाजपा की स्वस्थ समीक्षा करने वाला मीडिया भी उनकी पुरानी चाल में फँसता नजर आ रहा है। सच तो यह है कि संघ परिवार का भाजपा नामक राजनीतिक मोर्चा अच्छी तरह जानता है कि उसकी साम्प्रदायिक नीतियों के कारण भारतीय समाज का एक बड़ा वर्ग उन्हें पसन्द नहीं करता, पर वे इस बात को भी जानते हैं कि साम्प्रदायिक दुष्प्रचार से प्रभावित एक ऐसा वर्ग भी है जो आक्रामक हिन्दुत्व की छवि का प्रशंसक है और वही उनका आधार है। सत्ता में आने और गठबन्धन का नेतृत्व करने के लिए उसे दोनों तरह की शक्तियों को साधना जरूरी होता है इसलिए वे दुहरेपन के सबसे बड़े प्रतीक की तरह प्रस्तुत होते हैं।

स्मरणीय है कि स्वतंत्रता के बाद जनसंघ के विस्तार के पूर्व हिन्दुत्व का प्रतिनिधित्व हिन्दू महासभा करती थी, जिसकी जगह ही धीरे धीरे जनसंघ ने हथिया ली थी जो न केवल हिन्दुत्व की ही बात करती थी अपितु उसके ऊपर देशभक्ति का एक मुखौटा भी लगा कर चलती थी। स्वत्रंता संग्राम के दौर में देश भक्ति के प्रति समाज में गहरा सम्मान था, पर इस संग्राम में संघ ने भाग नहीं लिया था इसलिए वे इसका मुखौटा लगाने की जरूरत महसूस करते थे व इस मुखौटे के कारण उनकी साम्प्रदायिक कुरूपता छुप जाती थी जो केवल साम्प्रदायिक दंगों के समय ही प्रकट होती थी। जब राम मनोहर लोहिया ने गैर कांग्रेसवाद का नारा दिया था तो उस नारे का सर्वाधिक उत्साह से स्वागत करने वालों में जनसंघ सबसे आगे थी जिसने संविद सरकारों में घुसपैठ बनाने के लिए कुछ नेताओं की ऐसी छवि प्रचारित की कि वे संघ की साम्प्रदायिक पहचान के विपरीत कुछ उदार दिखें। जहाँ अटल बिहारी वाजपेयी की ऐसी ही छवि निर्मित कर दी गयी थी, वहीं अडवाणी को आक्रामक हिन्दुत्व के समर्थकों का नेतृत्व करने के लिए छोड़ दिया गया था। 1977 में जब जनता पार्टी का गठन हुआ था तब जनता पार्टी का संविधान स्वीकार करने वाले सब गैर कांग्रेसी दलों को अपना अपना दल जनता पार्टी में विलीन करने का आवाहन किया गया था। जनसंघ ने इस प्रस्ताव को एक रणनीति के रूप में स्वीकार करने का ढोंग तो किया किंतु उसके अन्दर ही अन्दर वे अपना अलग अस्तित्व बनाये रहे। केन्द्रीय मंत्रिमण्डल में शामिल होने के मामले में अटल और अडवाणी एक ही भाषा बोलने लगे थे, और जनता पार्टी को उदार व जनसंघ को संकीर्ण दल बतलाने लगे थे। बाद में लोकदल के चौधरी चरण सिंह और राजनारायण ने इनकी गतिविधियों को पकड़ लिया और दोहरी सदस्यता को छोड़ देने की चेतावनी दी। जनता पार्टी का विभाजन भी इसी दोहरी सदस्यता के कारण हुआ और देश की पहली गैर कांग्रेसी सरकार का पतन भी इसी दोहरी मानसिकता के कारण हुआ।

जनता पार्टी के टूटे हुए हिस्सों को पचाने की दृष्टि से इन्होंने अपने पुराने नाम भारतीय जनसंघ को छोड़ कर जनता पार्टी के आगे भारतीय जनसंघ का ‘भारतीय’ जोड़ कर भारतीय जनता पार्टी का गठन किया। समाजवादी पृष्ठभूमि से निकली सुषमा स्वराज उसी दौर में भाजपा से जुड़ीं। प्रारम्भ में इन्होंने प्रचार के लिए अपनी नीतियों में श्रीमती इन्दिरा गान्धी के समाजवाद की लोकप्रियता को देखते हुए उसे ‘गान्धीवादी समाजवाद’ के रूप में अपने कार्यक्रम में सम्मलित किया था। यह उसी तरह था जिस तरह सेक्युलरिज्म की लोकप्रियता को देखते हुए ये अपने को ‘सच्चा सेक्युलर’ और अपने से असहमत दलों को ‘स्यूडो सेक्युलर’ बताते रहे। बाद में जब इनके चरित्र पर ‘गान्धीवादी समाजवाद’ बेतुका लगा तो इन्होंने उससे मुक्ति पा ली थी। स्मरणीय है कि 1985 के चुनावों में जब ये लोकसभा में कुल दो सीटों तक सिमिट गये थे तब इन्हें अचानक चार सौ साल पहले के रामजन्म भूमि बाबरी मस्जिद विवाद को मुद्दा बनाने की याद आयी और इन्होंने उसके लिए राष्ट्रव्यापी अभियान छेड़ दिया और अडवाणीजी रथ यात्रा पर निकल पड़े। उसी समय यह सावधानी बरती गयी कि दंगा उत्पादक रथयात्रा अडवाणीजी निकालेंगे और इसी दल के अटल बिहारी साधु से बने दिखेंगे ताकि जरूरत पढने पर उन्हें आगे रख कर गैर कांग्रेसी दलों से समर्थन जुटाया जा सके। स्मरणीय है कि 5 दिसम्बर 1992 को लखनउ में हुयी बैठक में अटल बिहारी वाजपेयी भी मौजूद थे जिन्हें बाबरी मस्जिद ध्वंस की योजना का पता तो था पर योजनानुसार उन्हें उससे दूर रख कर दिल्ली सरकार के साथ और संसद में गोलमोल दलीलें देने का कार्य सौंपा गया था। यह भी स्मरणीय है कि इस अवसर पर अटलजी ने संसद में कहा था कि जिस समय बाबरी मस्जिद टूट रही थी तब अडवाणीजी का चेहरा आंसुओं से भरा हुआ था, और अडवाणीजी तो कारसेवकों को रोक रहे थे पर वे मराठीभाषी होने के कारण उनकी भाषा नहीं समझ सके थे। यह बात अलग है कि प्रत्येक चुनाव में अडवानीजी प्रचार करने के लिए महाराष्ट्र जाते रहे हैं और हिन्दी में ही वोट मांगते रहे हैं।

1998 में सरकार बनने पर अटल बिहारी की अलग सी छवि काम आयी और समर्थन देने वाले बाइस दलों में से बीस ने केवल अटलजी के नाम पर ही समर्थन दिया था। कभी बामपंथियों के गठबन्धन में सम्मलित रही तेलगुदेशम ने तो मंत्रिमण्डल में सम्मलित हुये बिना ही बाहर से समर्थन दिया था जो गठबन्धन का सर्वाधिक सद्स्यों वाला दल था। इस अवसर पर उसने कहा था कि वह सिर्फ और सिर्फ अटलजी को ही समर्थन दे रहा है। इसी तरह ममता बनर्जी, रामविलास पासवान, जयललिता, नवीन पटनायक, फारुख अब्दुल्ला, शरद यादव, आदि ने संघ से असहमति दर्शाते हुए अटल जी के नाम पर ही समर्थन देकर धर्म निरपेक्ष जनता के बीच अपना चेहरा बचाया था।

भाजपा, जो अब फिर से सत्ता में आने के सपने देखने लगी है, ने एक बार फिर एक चेहरा उदार और एक कट्टर दिखाने का खेल प्रारम्भ कर दिया है। सम्भावित प्रधानमंत्री के रूप में गुजरात में 2002 के बदनाम मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को सबसे कट्टर प्रचारित कर के यह भ्रम पैदा किया जा रहा है कि लाल कृष्ण अडवानी उदार चेहरा हैं इसलिए कट्टर नरेन्द्र मोदी को आने से रोकने के लिए उन्हें स्वीकार कर लिया जाना चाहिए। एक ओर जहाँ एनडीए के सबसे बड़े हिस्सेदार दल के नीतीश कुमार, नरेन्द्र मोदी के हाथ के साथ हाथ उठाते हुए फोटो छ्पने के बाद भाजपा कार्यकारिणी को दिया जाने वाला लंच केंसिल कर देते हैं और मोदी को विधानसभा चुनाव के प्रचार हेतु बिहार आने पर गठबन्धन तोड़ देने की धमकी देते हैं, वहीं सोची समझी नीति के अंतर्गत वे अडवाणी के रथ को हरी झण्डी दिखा कर उन्हें उदारता का प्रमाण पत्र दे रहे होते हैं। गत वर्षों में जिन्ना की प्रशंसा पर अडवाणीजी को अध्यक्ष पद से निकाल बाहर कर देना भी उनकी छवि को उजली करने की तरह था, पर बाद में हुए लोकसभा चुनाव में उन्हें ही प्रधानमंत्री का उम्मीदवार बनाना भी एक चालाकी का ही हिस्सा रहा होगा। जाहिर है कि बहुत सारे उदारवादी लोग मोदी के कारनामों से आतंकित होकर अडवाणी को समर्थन देने की सोच सकते हैं, और फिर से धोखा खा सकते हैं। सच तो यह है कि ऊपर से भोले दिखने वाले मोदी और अडवाणी में कोई मतभेद नहीं है। वे एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं।

5 COMMENTS

  1. आपके लेख से बहुत लोगो के सहमत होने की गुंजाइश बहुत कम है – मुर्ख कुछ लोगो को बनया जा सकता है सभी या बहुत लोगों को नहीं और अटल को सांप्रदायिक कहकर आप वैसा हे एकः रहे है जैसे काटजू देश भर को(पाने को छोड़) वेवकूफ समझते हैं,

    हिन्दू महासभा इसलिए गयी की आरएसएस का संगठित तंत्र हिन्दुओं को अछा लगा औरर उसीने जनसंघ को पोशा
    समाजवादियों के प्रशंशा करनेवाले आपने 1977 में आन्तरिक बहुमत सांसदों के बीच की बात क्यों नहीं की – तब तो शायद अटलजी जीतता या फिर वहा ओल्ड जनसंघ नहीं चाहे कोई हो – होता
    यानी आपको जीतने के लिए आरएसएस चाहिए पर सत्ता के लिए नहीं वे तो दुसरे बने हैं> अडवानी -मोदी में वैचारिक अंतर क्यों होना चाहिए जबकी वे एक दल में इतने दिनों से है ?
    समाजवादी सुषमा को जो दल पचा सकती है वह सेक्युलर क्यों नही है ? (मैं एक अराजनीतिक व्यक्ति हूँ और ये मेरे निजी विचार हैं )

  2. Bhaajpa ko jntaa smjhne lgi hai aane vaale chunaav me uske jhaanse me mtdaata to pehle se adhik kathit vikaaspurush ke jhoothe prachaar se aa bhi skta hain lekin sehyogi dl nhi milne vaale.

  3. अच्छा लेख था पर राम जन्मभूमि कोइ १०० साल पुराना मुद्दा नहीं है आज़ादी के बाद भी नेहरू ने इस मुद्दे को भुनाने की कोशीश की थी अल्पसंख्यक वोते बटोरने के लिए सिर्फ बी.जे पी को दोष नहीं दे सकते आप

  4. विद्द्वता पूर्ण बढ़िया लेख

    जैन साहब पाठको को कभी जैन धर्म के बारे में भी बताइए .
    हिन्दू धर्म और इस्लाम धर्म के बारे में तो काफी कुछ लिखा जा चूका है .

    जैन धर्म पर थोड़ा प्रकाश दाल कर पाठको को अनुग्रहित करे .

    धन्यवाद

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