विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश और विकसित राष्ट्रों की श्रेणी में
शुमार होने के लिए तेजी से अग्रसित राष्ट्र एकाएक आखिर किस दिशा में मुड़
गया है? जिस देश का इतिहास ईमानदारी, कर्त्तव्यनिष्ठा, देशभक्ति,
परोपकारिता, मानवता, भातृभावना, कर्मठता, सौहार्द, समर्पणता, शौर्य,
त्याग, बलिदान, शहादत, सादगी, सकारात्मकता, सात्विक आस्था जैसी अनेक
अनूठी, अद्भूत, उल्लेखनीय एवं अनुकरणीय मिसालों से भरा रहा हो और ‘यूनान
मिश्र रोमां सब मिट गए जहां से, कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी’
जैसे आत्मिक उद्गारों पर सदैव गर्व एवं गौरव की अनूभूति पर इतराता रहा
हो, आखिर वह देश अपने गौरवमयी इतिहास एवं परंपरा को एकाएक क्यों भूला
बैठा है? ‘दिल भी दिया है, जान भी देंगे, ऐ वतन तेरे लिए’, ‘मेरी शान
तिरंगा है, मेरी आन तिरंगा है’, ‘वन्देमातरम’, ‘जय जवान जय किसान’, ‘जय
हिन्द की सेना’, ‘है प्रीत जहां की रीत सदा, मैं गीत वहां के गाता हूँ’
जैसे अनगिनत गीतों को गुंजायमान करते-करते आखिर हमने एकाएक किस तरह के
बेसुरे, विभत्स, अभद्र, अनैतिक, अमर्यादित रागों का अनर्गल प्रलाप करना
शुरू कर दिया है? बुराई पर अच्छाई की, असत्य पर सत्य की और अधर्म पर धर्म
की जीत के लिए जीने व मरने वाले आखिर क्यों अपना पाला बदल बैठे हैं? ये
सवाल अकारण ही पैदा नहीं हुए हैं। ये सुलगते सवाल वर्तमान समीकरणों के
हैं। ये सवाल भले ही पहली नजर में तीखे हों, लेकिन यदि तेजी से बदलते
समीकरणों की समीक्षा करेंगे तो पाएंगे कि ये सवाल समय की कसौटी पर
शतप्रतिशत खरे हैं।
यह देश ‘जय जवान और जय किसान’ के नारे को बुलन्द करते हुए गर्व एवं गौरव
की अनुभूति करता आया है। लेकिन, वर्तमान समीकरणों के हिसाब से हम इस
अनुभूति को अकाल मौत की भेंट चढ़ाने के लिए दिनरात एक करने में लगे हुए
हैं। आज देश में न तो जवान (सैनिक) के शौर्य व सम्मान की कोई परवाह की जा
रही है और न ही किसान की मेहनत व उसके खून-पसीने को कोई तवज्जो दी जा रही
है। देश की सेना के जवानों के सम्मान और किसानों की जान से सरेआम खिलवाड़
होने लगा है। कहना न होगा कि पिछले कुछ माह से जिस तरह से थल सेनाध्यक्ष
जनरल वी.के. सिंह को अपने आत्म-सम्मान के रक्षार्थ, लोकतांत्रिक व
संवैधानिक व्यवस्था की सूत्रधार सरकार को सर्वोच्च न्यायालय में
प्रतिद्वन्द्वी बनाने को विवश होना पड़ा, वह इस देश के गौरमयी इतिहास और
उसकी आन-बान और शान पर एक अशोभनीय अमिट कलंक है। इस प्रकरण की जिस तरह से
इतिश्री हुई, उसे भी संतोषजनक नहीं ठहराया जा सकता।
थल सेनाध्यक्ष द्वारा प्रधानमंत्री को सेना की वस्तुस्थिति से अवगत
करवाने हेतु लिखे गये गोपनीय पत्र के लीक हो जाने की घटना, राष्ट्र की
स्वतंत्रता, एकता, अखण्डता एवं उसकी अस्मिता को सरेआम नंगा करने के समान
है। निश्चित तौरपर इससे बढ़कर अन्य कोई ‘देशद्रोह’ मामला नहीं हो सकता। यह
मामला सिर्फ चन्द दिनों तक सनसनी बना और उसके बाद स्वतः समाप्त हो गया।
इस ‘देशद्रोह’ का दोषी कौन था और उसकी मंशा क्या थी आदि सभी सवाल समय की
गर्त में मिल गए। सेनाध्यक्ष ने अपने पत्र में जिन विकट चुनौतियों का
जिक्र किया, उन्हें भी जुबानी जंग की भेंट चढ़ा दिया गया। मार्च में
हिमाचल प्रदेश के संवेदशील इलाके में पड़ौसी देश चीन का विमान पन्द्रह
मिनटों तक घूमकर आराम से चला गया और सरकार मौनी बाबा बने रहने के सिवाय
कुछ नहीं कर पाई। देश की सीमाओं की रक्षा करने के लिए प्रदेश के
मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर बुनियादी
ढ़ांचे को मजबूत करने की गुहार लगाई, उसके बारे में भी सरकार की तरफ से
कोई सकारात्मक टिप्पणी सुनने में नहीं आई।
एक अंग्रेजी के राष्ट्रीय समाचार पत्र ने जनवरी माह के दूसरे पखवाड़े में
सेना के औपचारिक सैन्य अभ्यास पर उंगली उठाकर एक अलग ही रंग दे दिया है।
इस रंग से सम्मानित सेना और सरकार किस हद तक बदरंग हुई और देश को उसका
भविष्य में क्या खामियाजा भुगतना पड़ सकता है, इसका सहज अन्दाजा लगाया जा
सकता है। ये सभी समीकरण देश के भविष्य के लिए अच्छे कदापि नहीं कहे जा
सकते। बेहद दुःख और विडम्बना का विषय यह है कि इन समीकरणों पर विराम लगने
की बजाय, ये तेजी से और भी नए खतरनाम रूप में सामने आ रहे हैं। देश के
अगले सेनाध्यक्ष पर भी गंभीर विवाद सामने आ चुका है। सर्वोच्च न्यायालय
में 66 पन्नों की एक जनहित याचिका दायर की गई है, जिसमें लेफ्टि. जनरल
विक्रम सिंह पर वर्ष 2001 में जम्मू में फर्जी मुठभेड़ करने व भ्रष्टाचार
में संलिप्त होने जैसे कई गंभीर आरोप लगाए गए हैं और उनकी नियुक्ति रद्द
करने की गुहार लगाई गई है। इस प्रकरण पर निर्णय जो भी आए, उससे देश की
सम्मानित सेना की गरिमा पर दाग तो लग ही गया है।
देश में जवान के बाद किसान की भी हालत अत्यन्त दयनीय हो चुकी है। देश का
अन्नदाता किसान नेशनल क्राइम रिकार्ड की एक रिपोर्ट के मुताबिक देश में
प्रतिदिन 46 की औसत से आत्महत्या करने का विवश है। यदि पिछले कुछ सालों
की रिपोर्टों के मूल नतीजों पर गौर फरमाएं तो आदमी सन्न रह जाता है।
रिपोर्टों के अनुसार वर्ष 1997 में 13,622, वर्ष 1998 में 16,015, वर्ष
1999 में 16,082, वर्ष 2000 में 16,603, वर्ष 2001 में 16,415, वर्ष 2002
में 17,971, वर्ष 2003 में 17,164, वर्ष 2004 में 18241, वर्ष 2005 में
17,131, वर्ष 2006 में 17,060, वर्ष 2007 में 17,107 और वर्ष 2008 में
16,632 किसानों को कर्ज, मंहगाई, बेबशी और सरकार की घोर उपेक्षाओं के
चलते आत्महत्या करने को विवश होना पड़ा। इस तरह से वर्ष 1997 से वर्ष 2006
के दस वर्षीय अवधि में कुल 1,66,304 किसानों ने अपने प्राणों की बलि दी
और 1995 से वर्ष 2006 की बारह वर्षीय अवधि के दौरान कुल 1,90,753 किसानों
ने अपनी समस्त समस्याओं से छुटकारा पाने के लिए आत्महत्या का सहारा लेना
पड़ा।
देश में केवल जवान और किसान ही नहीं, आम इंसान भी त्राहि-त्राहि कर रहा
है। भय, भूख और भ्रष्टाचार के साए में जीने को विवश है। देश में गरीबी का
ग्राफ निरन्तर बढ़ता चला जा रहा है। देश का योजना आयोग हास्यास्पद आंकड़े
पेश करके गरीबी के ग्राफ को घटाने की कवायद में जुटा है। योजना आयोग के
आंकड़ों के अनुसार गत वर्ष गाँव में 26 रूपये और शहरों में 32 रूपये
रोजाना खर्च करने वाले व्यक्ति गरीबी के दायरे से बाहर थे और इन आंकड़ों
पर देशभर में काफी फजीहत झेलने के बाद इस वर्ष योजना आयोग ने इन आंकड़ों
को सुधारते हुए क्रमशः 22 रूपये और 28 रूपये निर्धारित किया है। गरीबों
के साथ देश में इससे बढ़कर क्या और कोई अन्य क्रूर मजाक हो सकता है? देश
के प्रधानमंत्री द्वारा लालकिले की प्राचीर से स्वतंत्रता दिवस के पावन
अवसर पर लगातार पन्द्रह मिनट तक निरंकुश भ्रष्टाचार पर राग अलापना और
गतदिनों देश के 60 प्रतिशत कुपोषित बच्चों की राष्ट्रीय सर्वेक्षण
रिपोर्ट पर ‘राष्ट्रीय शर्म’ की संज्ञा देना, आदि सब समीकरण सहज बोध करवा
रही हैं कि इस समय हम किस दिशा में बढ़ते हुए, कहां तक आ पहुंचे हैं और
जल्द ही कहां पहुंचने वाले हैं।
‘यत्र नार्यन्तु पूज्यते, तत्र रमन्ते देवता’ उक्ति का अनुसरण करने वाले
देश में महिलाओं की भी स्थिति दिनोंदिन अत्यन्त नाजुक होती चली जा रही
है। अनुमानतः हर तीन मिनट में एक महिला किसी भी तरह के अत्याचार का शिकार
हो रही है। देश में हर 29वें मिनट में एक महिला की अस्मत को लूटा जा रहा
है। हर 77 मिनट में एक लड़की दहेज की आग में झोंकी जा रही है। हर 9वें
मिनट में एक महिला अपने पति या रिश्तेदार की क्रूरता का शिकार हो रही है।
हर 24वें मिनट में किसी न किसी कारण से एक महिला आत्महत्या करने के लिए
मजबूर हो रही है। नैशनल क्राइम ब्यूरो के अनुमानों के अनुसार ही प्रतिदिन
देश में 50 महिलाओं की इज्जत लूट ली जाती है, 480 महिलाओं को छेड़खानी का
शिकार होना पड़ता है, 45 प्रतिशत महिलाएं पति की मार मजबूरी में सहती हैं,
19 महिलाएं दहेज की बलि चढ़ जाती हैं, 50 प्रतिशत गर्भवती महिलाएं हिंसा
का शिकार होती हैं और हिंसा का शिकार 74.8 प्रतिशत महिलाएं प्रतिदिन
आत्महत्या का प्रयास करती हैं। आजकल महिलाओं व नाबालिग लड़कियांे के साथ
होने वाले गैंगरेपों के समाचार, निरन्तर हो रही कन्या भू्रण हत्याएं और
बढ़ते दहेजप्रथा के मामले आदि देश की दशा और दशा का सहज बोध करवा रहे हैं।
देश का युवा बेरोजगारी और बेकारी के चलते आपराधिक मार्ग पर अग्रसित होता
चला जा रहा है। इसी के चलते देश में चोरी, डकैती, लूट खसोट, छीना-झपटी,
हत्या जैसी घटनाओं में तेजी से इजाफा हो रहा है। शिक्षा के नाम पर
व्यवसाय होने लगा है। प्रतिभावान बच्चे पिछड़ रहे हैं और फर्जी डिग्री
लेने वाले मौज कर रहे हैं। देश का आपसी भाईचारा और सौहार्द भाव संकीर्ण
राजनीति की भेंट चुका है। अब हर मामले में संकीर्ण राजनीति जड़ तक पहुंच
चुकी है। वोट नोट का पर्याय बन गए हैं। देश के अन्दर व बाहर बहुत बड़े
काले धन का साम्राज्य स्थापित हो चुका है। बड़ी विडम्बना का विषय है कि
राजनीतिक लोग अपना विश्वास खो चुके हैं, जिसके चलते आज देश के पास एक भी
ऐसा नेता नहीं है, जिसे आदर्श माना जाए। इससे भी बढ़कर विडम्बना का विषय
तो यह है कि देश की जनता अपने नेताओं व सरकार के विरूद्ध अपना विरोध,
अविश्वास और आक्रोश अण्णा हजारे व बाबा रामदेव के राष्ट्रव्यापी
आन्दोलनों के जरिए संवैधानिक रूप से दर्ज करवा चुकी है। लेकिन, देश की
सरकार व नेता इन सब मसलों पर एकदम लापरवाह, चिकने घड़े और असंवेदनशील बने
हुए हैं। कुल मिलाकर सभी समीकरण व हालात एकदम नकारात्मक दिशा की तरफ
निरंतर बढ़ते चले रहे हैं, जोकि देश के भविष्य के लिए कदापि अच्छे नहीं
होंगे।
यह सब बातें अब इतिहास बन गयी हैं. उजला इतिहास केवल पढने में ही अच्छा लगता है साहब.क्योंकि इन सब कामों के लिए त्याग, बलिदान, समपर्ण ,निस्वार्थता ,की जरूरत होती हेँ, और इन गुणों की फसल अब नहीं होती,शायद इनका बीज अब ख़तम हो गया हैं यदि अन्ना जैसा कोई पोधा उग भी जाता है तो उसे जड़ से ही उखाड़ने की कोशिश की जाती है ताकि फिर कहीं ऐसी फसल उगनी शुरू हो जाये.
मैं यह बात निराश हो कर नहीं कह रहा हूँ, आज की जो प्रवर्ती दिखाई दे रही हैं उस पर अपना मूल्यांकन लिख रहा हूँ.बहुत से मित्र मेरे साथ सहमती न रखतें हों पर इस सची बात से मुहं कब तक छिपाएंगे .