कृषि नीति और किसानों की दुर्दशा

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हिंदुस्तान में कृषि और किसान की दुर्दशा किसी से छिपी नहीं है. देश को आजाद हुए 70 बरस से अधिक हो गए हैं, लेकिन किसानों की बदहाली खत्म नहीं हुई है. भारत की बड़ी अर्थव्यवस्था कृषि पर आधारित है और बड़ी आबादी कृषि पर आश्रित है. बावजूद, जिस तरह से अब तक कृषि और किसानों की अनदेखी होती रही है, इसके चलते किसानों की आर्थिक हालत नहीं सुधर सकी है. किसानों के हितों की रक्षा के दावे हमेशा होते रहे हैं. सरकार बदलती है, किसानों की दशा सुधारने के दावे होते हैं, लेकिन ये दावे केवल जुबानी लफ्फाज बनकर रह जाते हैं. देश को किसानों की मेहनत से रोटी मिलती है, लेकिन इन्हीं भूमिपुत्रों के हितों की नीति, सियासी भेंट चढ़ जाती है. देश में किसानों की आत्महत्या, एक ऐसी अभिशाप है, जो देश के माथे पर कलंक है, जिसे मिटाने के लिए किसानों के जीवन में खुशहाली लाना जरूरी है और यह तभी सम्भव होगा, जब किसानों की आर्थिक हालत सुधरेगी. किसानों के हित में कई प्रयास हुए हैं, लेकिन बदलते वक्त के लिहाज से ये नाकाफी ही साबित हुए हैं. किसानों की मुसीबत शुरू से अधिक उत्पादन करने को लेकर बनी हुई थी. नई तकनीक और संसाधन ने उत्पादन तो बढ़ाया, लेकिन किसानों को उन उत्पादों का उचित दाम नहीं मिलता. यह किसानों की विकराल समस्या है, जिसका स्थायी समाधान अब तक सरकार नहीं खोज पाई है. किसानों को लागत मूल्य के हिसाब से बाजार में दाम नहीं मिलता, जिसके कारण किसानों को नुकसान होता है. अक्सर यह बात सामने आती है कि किसानों ने उत्पादन खूब किया, दिन-रात मेहनत की, लेकिन उत्पाद कहां बिकेगा, कितने में बिकेगा, कुछ तय नहीं होता. ऐसी और बातें हैं, जिसके कारण मेहनत के बाद किसानों की कमर टूट जाती है. उत्पादन के बाद बिक्री नहीं होने से सड़कों पर फेंकने और मवेशियों को खिलाने की बातें सामने आती रहती है, यह भी किसानों की किस्मत पर कुठाराघात साबित होती है. फसल पर बीमारी की मार होती है तो यहां पर भी रिस्क किसानों का ही होता है. साथ ही, फसल चौपट हो गई तो किसानों की मेहनत पर पानी फिर जाता है. फसल नुकसान के बीमा का लाभ भी किसानों को नहीं मिलता, मिल भी गया तो इतनी राशि फसल नुकसान की दी जाती है, जैसे किसानों को उनका हक नहीं, खैरात दी जा रही हो ? कृषि की सरकारी नीति में किसानों को गारंटी के साथ सरंक्षण नहीं मिलता. इसी का परिणाम है कि किसानों के आर्थिक हालात नहीं सुधर रहे हैं, उल्टे आर्थिक हालत और बदतर होती जा रही है. कृषि प्रधान देश में अभी तक किसानों के लिए खास नीति नहीं बन सकी है, जिससे कहा जा सके कि अब किसी किसान को नुकसान नहीं होगा और किसी किसान को आत्महत्या जैसे घातक कदम नहीं उठाने पड़ेंगे ? सरकारी नीति भी गजब की है कि उद्योगों को पूरी सुविधा, बड़ी-बड़ी सब्सिडी, और भी बहुत कुछ, लेकिन उसके मुकाबले किसानों के लिए कुछ भी नहीं. कहने के लिए होता है कि भारत, किसानों का देश है और देश की अर्थव्यवस्था कृषि पर टिकी है, लेकिन नीति बनाने की बारी आती है तो किसान पूरी तरह से हाशिए पर होता है. किसानों का दर्द केवल कागजों तक सीमित होता है या फिर किसानों के दर्द के सामने घड़ियाली आंसू बहाए जाते हैं. यह भी बात है कि सरकार ने किसानों का हितचिंतक बनने की पूरी कोशिश की, लेकिन बनी नहीं. नीति पूरी तरह से किसानों से इतर, उद्योगों के लिए बनाई गई. सरकार यह कहने में भी नहीं हिचकती कि देश की आर्थिक हालत में कृषि की बड़ी भूमिका है, लेकिन किसानों की आर्थिक हालत को सुधारने की फिक्र सरकार नहीं करती ? नतीजा, भूमिपुत्रों का जीवन अंधकारमय दिखता है और घाटे के सौदे के कृषि कार्य से निराश होकर किसान घातक कदम उठा लेता है. किसान की खुदकुशी से परिवार पर पूरा असर होता है. ऐसी घटना के बाद भावी पीढ़ी का कृषि से और भी मोह भंग हो जाता है. ऐसे में युवाओं को कृषि से तभी जोड़ा जा सकता है, जब किसानों की जिंदगी खुशहाल होगी ? किसानों की जिंदगी जब प्रेरणादायी बनेगी तो नई पीढ़ी को भी लगेगा कि कृषि भी जीवन का आधार है, केवल सरकारी नौकरी ही आधार नहीं है ? अभी कृषि और किसान की हालत इतनी बदतर है कि देश के युवाओं का कृषि से मोहभंग हो गया है. अपवाद स्वरूप कुछ युवा कृषि को अपनाए हुए हैं और अपने हुनर से कृषि को लाभ का धंधा साबित कर दूसरे युवाओं को संदेश भी दिया है, लेकिन युवाओं की बड़ी आबादी कृषि से दूरी बनाए रखना चाहती है. कृषि को लाभ का धंधा नहीं माना जाता है. नई पीढ़ी कृषि करने रुचि नहीं लेती, स्कूलों में बच्चों से पूछ लो तो कोई नहीं कहता, ‘किसान बनूंगा’, फिर भी देश में किसानों की संख्या अधिक है और देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है, किंतु सरकार की नीति, किसानों के विकास का रीढ़ नहीं बन सकी है. युवाओं में सरकारी नौकरी या प्राइवेट सेक्टर की नौकरी के सुनहरे सपने दिखाई देते हैं, लेकिन एक पल भी युवा मन कृषि के बारे में नहीं सोचता. कृषि की बात आते ही युवाओं को फायदा नहीं दिखता, नुकसान ही नजर आता है. इन्हीं हालातों से कृषि व्यवस्था चरमराई हुई है और किसानों की दशा बिगड़ रही है. इसके लिए पूरी तरह से सरकारी नीति ही जिम्मेदार है. किसानों के उत्थान के लिए स्वामी नाथन कमेटी ने सरकार को कई सिफारिशें की हैं. किसानों की दशा सुधारने वाली सिफारिशों की फाइल धूल फांक रही है और किसानों के जीवन पर भी गरीबी और आर्थिक समस्या छाई है. किसानों के विकास में रोड़े बनी समस्याएं, सरकार को समझ नहीं आती. आती तो किसानों की दशा, कई दशकों पहले सुधर गई होती और आज किसानों को आत्महत्या जैसे घातक कदम नहीं उठाने पड़ते. स्वामीनाथन कमेटी ने किसानों की आय बढ़ाने से लेकर किसानों के फसल उत्पादन को लेकर तमाम रिपोर्ट सरकार को दी हैं, लेकिन बरसों हो गए, लेकिन रिपोर्ट धरातल पर नहीं उतर सकी है और किसानों के जीवन में उजियारा फैलाने वाली नीति नहीं बन सकी है.किसानों को चुनावी वोट बैंक के तौर पर इस्तेमाल किया जाता रहा है. हर चुनाव में किसानों की दशा सुधारने के दावे किए जाते हैं, लेकिन उसके बाद किसान हाशिए पर होते हैं. सत्ता और सरकारी तंत्र के भ्रष्टाचारी जुगलबंदी के आगे, किसानों की दशकों पुरानी समस्या दम तोड़ देती है. किसानों की आत्महत्या जैसी दिल दहलाने वाली घटना भी सत्ताधीशों के दिल को पिघलाने में असफल रही है. ऐसा नहीं होता तो देश के किसानों की तकदीर बदली हुई होती और कृषि को लाभ का धंधा माना जाता. युवा पीढ़ी की पहली पसंद कृषि होती, लेकिन कृषि और किसानों को लेकर जिस तरह से अब तक नीति बनाई गई है, उसने कृषि से युवाओं को जोड़ने के बजाय, तोड़ने का काम किया है. अभी तक किसान केवल वोट बैंक रहा है, सरकार की नीति का हिस्सा नहीं रहा है. अब देखना होगा कि सरकार की नीति, किसानों के जीवन में उजियारा लाने में कब तक कामयाब होती है ? या फिर किसान केवल ‘वोट बैंक’ बना रहेगा ? 
राजकुमार साहू

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