राष्ट्रीय समृद्धि के लिए कृषि प्रौद्योगिकी

भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली ने देश को खाद्यान्न-संकट से उबार कर आत्मनिर्भर बनाने में उल्लेखनीय योगदान सन् 1905 में स्थापित होने से लेकर अब तक दिया है। संस्थान के क्रिया-कलापों को किसानों और जन-सामान्य तक पहुंचाने तथा यहां विकसित नवीनतम प्रौद्योगिकियों से उन्हें अवगत कराने हेतु इसी माह संस्थान में ‘कृषि विज्ञान मेला’ आयोजित किया गया।

भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली द्वारा विभिन्न फसलों की अनेक उन्नत किस्में विकसित की गई हैं जिनमें से 100 से भी अधिक किस्में किसानों के बीच बेहद लोकप्रिय हैं और राष्ट्रीय समृद्धि में योगदान कर रही हैं।

अब महानगरों में ही नहीं वरन् छोटे शहरों में भी आर्थिक सम्पन्नता के साथ-साथ उपभोक्ताओं के खान-पान में भी बदलाव आ गया है। इस वर्ष अक्टूबर माह में राष्ट्रमंडल खेलों का आयोजन देश की राजधानी दिल्ली में होने जा रहा है। लगभग उसी समय पवित्र त्यौहार नवरात्रों की भी शुरूआत हो रही है। राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन की भारत सरकार व्यापक स्तर पर तैयारी कर रही है। आशा है कि लगभग 1.5 से 2.0 लाख खिलाड़ी, दर्शक, प्रबंधक आदि मेहमान इस अवसर पर दिल्ली व दिल्ली राष्ट्रीय राजधनी क्षेत्र में रहेगें जिसके चलते यहाँ पर फल-फूल व सब्जियों के साथ-साथ अन्य कृषि उत्पादों की भारी माँग रहेगी। सब्जियों में खासकर गैर-परम्परागत सब्जियां जैसे ब्रोकोली, लैटयूस, चैरी टमाटर, खीरा, प्रैंफचबीन, टमाटर, पत्ती वाली सब्जियां, गाजर, प्याज, लहसुन, मूली, शिमला मिर्च, फूलगोभी इत्यादि की मांग बढ़ेगी, लेकिन इन सभी के उत्पादन के लिए दिल्ली के आसपास का मौसम उस समय अनुकूल रहेगा। कुछ की खेती पर्वतीय क्षेत्रों जैसे उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश व जम्मू-कश्मीर या फिर मैदानी भागों में संरक्षित खेती करके इस मांग की आपूर्ति करके किसान भाई अधिक लाभ कमा सकते हैं। पूसा संस्थान में सब्जियों व फलों की संरक्षित व्यावसायिक खेती के लिए कम लागत के पॉलीहाउस, ग्रीनहाउस व नैटहाउस प्रौद्योगिकियों को मानकीकृत किया है। राष्ट्रमंडल खेलों के दौरान उद्यमी संरक्षित तकनीक का इस्तेमाल कर उच्च गुणवत्ताा वाली गैर मौसमी एवं विदेशी सब्जियों तथा फलों की खेती कर अधिकतम लाभ प्राप्त कर सकते हैं।

फलों में, भारतीय सेब अपने स्वाद के लिए विश्वविख्यात है जो खेलों के आयोजन के दौरान बड़ी मात्रा में उपलब्ध होगा लेकिन इसकी गुणवत्ता को बढ़ाना व रासायनिक अवशेषों को न्यूनतम करना होगा। सेब की फसल में इस समय जीवाणु खादों का प्रयोग व जैविक पीड़कनाशी का प्रयोग एकीकृत बीमारी व कीट प्रबंधन के लिए करना लाभदायक होगा।

बागवानी, धन्य, दलहनी व तिलहनी फसलों में तुड़ाई उपरांत क्षति को कम करना, उनके प्रसंस्करण जैसे कि ज्वार के फ्रलैक्स, बेर के पापड़ व आंवले की कैंडी बनाने, विभिन्न फलों के पेय तथा टमाटर का गूदा निकालने की सरल तकनीकों का विकास पूसा संस्थान द्वारा किया गया है। किसानों के खेत पर ही भंडारण सुविधा, पूसा शून्य ऊर्जा शीत गृह, सब्जियों तथा फलों के लिए अत्यंत उपयोगी है। 100 किग्रा क्षमता वाली इसकी संरचना को लगभग रू 3500 में तैयार किया जा सकता है। उपरोक्त तकनीकें अपनाकर किसान मूल्य संवर्धन करके अपनी आय बढ़ा सकते हैं।

बासमती धान की खेती के अंतर्गत 1.5 मिलियन हैक्टेयर क्षेत्रफल के लगभग 55 प्रतिशत क्षेत्र में पूसा 1121 की खेती हो रही है क्योंकि इस धन का पका हुआ चावल विश्व में सबसे लंबा होता है और इसकी औसत पैदावार 50 क्विंटल प्रति हैक्टेयर है। बासमती चावल का निर्यात कर विदेशी मुद्रा कमाने में पूसा संस्थान की किस्में, पूसा बासमती 1 एवं पूसा 1121 का सबसे बड़ा योगदान है। संस्थान द्वारा तैयार कम अवधि में पककर तैयार होनी वाली किस्म, पूसा संकर धान 10 किसानों में, खासकर आलू, गन्ना एवं मटर उगाने वाले क्षेत्रों के किसानों के लिए वरदान साबित हो रही हैं। इसका क्षेत्रफल पंजाब, हरियाणा व उत्तार प्रदेश में तेजी से बढ़ रहा है। नई बासमती किस्म, पूसा-1401 अपनी पैदावार एवं कुकिंग क्वालिटी में पूसा 1121 से भी बेहतर है। संस्थान की नई किस्म उन्नत पूसा बासमती 1 ; पूसा 1460, किसानों को खेत पर 60-65 क्विंटल प्रति हैक्टेयर पैदावार क्षमता के साथ-साथ जीवाणु अंगमारी रोग हेतु प्रतिरोध क्षमता भी प्रदान करती है।

गेहूं की उत्कृष्ट किस्मों के विकास में संस्थान का महत्वपूर्ण योगदान है। वर्तमान में एच डी 2932, एच डी 2733, एच डी 2851 तथा एच डी 2687 किसानों के बीच व्यापक रूप से लोकप्रिय हैं। नई किस्मों एच डी 2894 तथा एच डी 4713 का प्रदर्शन देखकर किसान उत्साहित है।

दलहनी फसलें, किसानों के लिए अधिक लाभकारी व मृदा की उर्वरा शक्ति बढ़ाने में सहायक हैं। संस्थान की अधिक उपज देने वाली चने की किस्में, पूसा 1053, पूसा 1088, पूसा 1103 तथा पूसा 1108 आदि 20-25 क्विंटल प्रति हैक्टेयर उपज देने की क्षमता वाली किस्में हैं। ये किस्में अधिक उत्पादन के साथ-साथ अपने मोटे चमकीले दानों के लिए किसानों व उपभोक्ताओं में लोकप्रिय हो रही है। इसी प्रकार अन्य दलहनों में अरहर की किस्म पूसा 991, पूसा 992 व पूसा 2001, 140-150 दिनों में 18-20 क्विंटल प्रति हैक्टेयर की क्षमता रखती है। संस्थान द्वारा विकसित की गई मूंग की किस्में, पूसा विशाल, पूसा रत्ना, पूसा 9351, 65-70 दिन की अल्प अवधि में 12-16 क्विंटल प्रति हैक्टर पैदावार दे सकती हैं। इनकी खेती से किसान 70 दिन में 50 हजार की आमदनी एक हैक्टेयर क्षेत्रफल से गर्मी के मौसम में कमा सकते हैं। ये किस्में गन्ना व कपास के साथ अंत:फसल के रूप में उगाई जा सकती है जिससे देश को दाल के संकट का समाधन करने में सफलता मिल सकती है।

तिलहनी फसलों के विकास में संस्थान का उल्लेखनीय योगदान रहा है। देश के बहुत बड़े क्षेत्र पर उगाए जाने वाली, बड़े दाने वाली किस्म, पूसा बोल्ड व अगेती परिपक्व होने वाली ;100-120 दिन किस्म, पूसा तारक, पूसा अग्रणी उच्च पैदावार एवं अधिक आय देने के कारण किसानों में बहुत लोकप्रिय हो रही हैं। इसकी कटाई के बाद कद्दूवर्गीय सब्जियों की फसल लेकर किसान भाई अधिक आमदनी ले रहे हैं। कम इरूसिक अम्ल युक्त किस्म पूसा मस्टर्ड 21 एवं पूसा सरसों 24 भी इसी संस्थान की देन हैं।

लेवलर द्वारा समतलीकरण, हाईड्रोजैल के उपयोग को बढ़ावा, मेड़ों पर गेहूं, कपास व अन्य फसलों की बुवाई तथा धन को सघन पति द्वारा उगाने की विधियों को अपनाने की सिफारिश की गई है तथा इनके प्रदर्शन किसानों के खेतों पर भी किए गए हैं, जिससे उत्पादन में वृद्धि के साथ-साथ 20-35 प्रतिशत जल की बचत भी हुई है।

फसलों के प्रबंधन एवं मौसम आधारित फसलों के विषय में जानकारी के लिए नियमित रूप से किसानों को सलाह, समाचार पत्रों एवं इंटरनेट के माधयम से दी जाती है। जैव आधरित टिकाऊ खेती को बढ़ावा देने के लिए समेकित नाशीजीव प्रबंधन पध्दतियों की सलाह दी गई है। नाशीजीव प्रबंधन के लिए पादप ; विशेषकर नीम (आधरित संरूपण, मृदाजन्य रोगों और सूत्राकृमि प्रबंधन हेतु ‘कालीसेना’, नाशीरूपण के साथ-साथ सूक्ष्मजैवीय उर्वरक- राईज़ोबियम, एज़ोटोबैक्टर, एज़ोस्पाइरिलम, फॉस्पफोरस घुलनशील जीवाणु और बेहतर मृदा स्वास्थ्य के लिए रासायनिक उर्वरकों के प्रभावी विकल्प और अनुपूरक के रूप में वर्मीकम्पोस्ट तथा रॉक फॉस्फेट कम्पोस्ट को बढ़ाने की सिफारिश की गई है। बरानी क्षेत्रों में दीमक के प्रबंधन के उपाय भी समय-समय पर किसानों को दिए गए हैं।

हमारे देश के ग्रामीण क्षेत्रों में चारा काटने का कार्य हस्तचलित चारा कटाई मशीन द्वारा किया जाता है, इससे कई बार किसान भाइयों अथवा इनके परिवार के सदस्यों का हाथ या अंगुलियां कट जाती है। जिससे हजारों बच्चे-बड़े अपाहिज हुए हैं। संस्थान ने इससे बचने के लिए एक सस्ता उपकरण बनाया है, जिससे इस तरह की दुर्घटनाओं से बचा जा सकता है।

संस्थान ने राज्य कृषि विश्वविद्यालयों, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् के संस्थानों व गैर-सरकारी संगठनों के सहयोग से औपचारिक समझौता ज्ञापन के साथ लाखों दूर-दराज के किसानों तक पहुँचाने के लिए एक राष्ट्रीय प्रसार कार्यक्रम चलाया है जिससे देश के लगभग प्रत्येक भाग में सक्षम प्रौद्योगिकियों के प्रसार में सुविधा व सहयोगियों के विकास में उनके धन की बचत हो रही है।

संस्थान ने समय-समय पर प्रशिक्षण कार्यक्रमों का आयोजन कर देश के लगभग दस राज्यों के किसानों को नवीनतम तकनीकों व प्रौद्योगिकियों के विषय में प्रशिक्षित किया है। इन प्रयासों से नवीनतम प्रौद्योगिकियों का देश भर में प्रसार हो रहा है और संस्थान किसानों से सीधे जुड़ रहा है। आगे भी किसानों को इस कार्यक्रम से जोड़ने की योजना है।

संस्थान के वैज्ञानिकों के प्रयास व प्रशिक्षण से देश में 100 से अधिक बायोगैस संयंत्र लगवाए गए हैं जिससे हमारे पर्यावरण में सुधार एवं मृदा-स्वास्थ्य में उल्लेखनीय वृध्दि हुई है। संस्थान द्वारा प्रशिक्षित कई किसान बीज उत्पादक, सब्जी उत्पादक, फूल उत्पादक के रूप में अथवा कृषि आधारित अन्य उद्यम अपनाकर अपने क्षेत्र के विकास में अहम योगदान दे रहे हैं। किसानों से सम्पर्क बनाए रखने व प्रौद्योगिकियों के प्रसार के लिए यह संस्थान नियमित रूप से कृषि प्रसार की त्रौमासिक पत्रिका ‘प्रसार दूत’ का प्रकाशन कर रहा है तथा संस्थान के वैज्ञानिक एवं तकनीकी कर्मचारी सरल भाषा में विभिन्न विषयों पर कृषि साहित्य का प्रकाशन कर रहे हैं। इसी कड़ी में, सीधे सम्पर्क हेतु पूसा हैल्पलाईन (011-25841670) के माध्‍यम से यह संस्थान किसानों की सेवा में कार्यरत है।

-आशीष कुमार ‘अंशु’

3 COMMENTS

  1. इअरी किसानो को मार्गदर्सन कराती है जिससे किसान कम म्हणत व कम लागत में अच्छा मुनाफा लेते है

  2. कविता, कहानी वगैरह से दिगर ऐसे लेख हिन्दी ब्लॉगरी को समृद्ध करते हैं और साथ ही ज्ञानवर्धन भी।
    अनुसन्धान संस्थान के तमाम शोध खेतों तक नहीं पहुँच पाते। पूर्वी उत्तर प्रदेश इस मामले में पिछड़ा है। सरकारी कृषि केन्द्र हर टाउन में हैं लेकिन टिपिकल सरकारी तरीके से काम करते हैं। कोई और तंत्र सामने आए तो बात बने।

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