अहिल्यादेवी होलकर: दूरदर्शी एवं साहसी महिला शासक

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अहिल्याबाई होलकर: 31 मई 2025 तीन सौवीं जन्म जयन्ती
– ललित गर्ग –

भारतीय संस्कृति के उज्ज्वल इतिहास के सुवर्ण पृष्ठों पर अनेक शील, शौर्य, शक्ति एवं पराक्रम संपन्न नारियों के नाम अंकित हुए हैं। शील, भक्ति, आस्था, शौर्य, शक्ति एवं धर्मनिष्ठा के अद्वितीय प्रभाव के कारण ही वे प्रणम्य हैं। ऐसी ही श्रृंखला में एक नाम है राजमाता अहिल्याबाई होलकर का, जो परम विदुषी, सनातन धर्म-शासन प्रभाविका, मातृहृदया, कुशल शासक एवं प्रबल धर्मनिष्ठा पूज्याप्रवर हैं। वे हिन्दू धर्म की उच्चतम परम्पराओं, संस्कारों और जीवनमूल्यों से प्रतिबद्ध एक महान विभूति थी, शासक रश्मि थी, सृजन रश्मि थी, नेतृत्व रश्मि थी, विकास रश्मि थी। सनातन धर्म की ध्वजवाहिका थी, एक ऊर्जा थी। उन्होंने ने न केवल कुशल-शासक व्यवस्था के मूल्य मानक गढ़े, बल्कि सामाजिकता, सेवा एवं परोपकार के नये आयाम भी उद्घाटित किये। जन कल्याण एवं सेवा के क्षेत्र में भी उन्होंने अनेक कार्य किए। भारत ऐसी ही आदर्श नारी चरित्रों की गौरव-गाथा से विश्व गुरु कहलाता था। इस वर्ष 31 मई, 2025 को उनकी जन्म जयन्ती का त्रिशताब्दी दिवस है।
कभी-कभी वास्तविक जीवन की घटनाएं कहानियों से भी अधिक अद्भुत, साहसी, रोमांचकारी एवं विलक्षण होती है। सच यह भी है कि कभी-कभी जिन्दगी की किताब के किरदार कहानियों, फिल्मों एवं उपन्यासों के किरदारों से भी कहीं अधिक सशक्त और अविस्मरणीय होते हैं। लौह महिला महारानी अहिल्याबाई होल्कर का व्यक्तित्व व कृतित्व भी ऐसा ही है, जो उन्हें विश्व की श्रेष्ठतम महिलाओं की पंक्ति में अग्रणी बनाता है, जिनका भारत के इतिहास और जनमानस पर विशेष प्रभाव रहा है। वे भारतीय इतिहास की एक विलक्षण, साहसी, दूरदर्शी, दार्शनिक एवं पराक्रमी नायिका है। राजमाता अहिल्याबाई होलकर, मालवा साम्राज्य की होलकर रानी थीं। उन्हें भारत की सबसे दूरदर्शी एवं साहसी महिला शासकों में से एक माना जाता है। 18वीं शताब्दी में, मालवा की महारानी के रूप में, धर्म का संदेश फैलाने में, नयी शासन-व्यवस्था स्थापित करने और औद्योगीकरण के प्रचार-प्रसार में उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा था। अतीत से आज तक वे व्यापक रूप से अपनी बुद्धिमत्ता, साहस और प्रशासनिक कौशल के लिए जानी जाती हैं।
31 मई 1725 को जामखेड, अहमदनगर (महाराष्ट्र) के चोंडी गाँव में जन्मी अहिल्या, एक साधारण परिवार से थीं। उनके पिता मनकोजी राव शिंदे, ग्राम प्रधान थे, जिन्होंने उन्हें पढ़ना-लिखना सिखाया था। एक युवा लड़की के रूप में, उनकी सादगी और सुचरित्र के संयोजन ने, मालवा क्षेत्र के राजा मल्हार राव होलकर का ध्यान उनकी ओर आकर्षित किया। वे युवा अहिल्या से इतने प्रभावित थे कि 1733 में जब वे मुश्किल से आठ साल की भी नहीं हुई थीं, तब उन्होंने उनका विवाह अपने बेटे खंडेराव होलकर से करवा दिया। उनकी शादी के बारह साल बाद, कुम्हेर किले की घेराबंदी के दौरान, उनके पति खंडेराव की मृत्यु हो गई। अहिल्याबाई इतनी आहत हुईं कि उन्होंने सती होने का फ़ैसला कर लिया। लेकिन उनके ससुर मल्हार राव ने उन्हें इतना कठोर कदम उठाने से रोक लिया और अहिल्या को अपनी छत्र-छाया में लेकर, उन्हें सैन्य, राजनीतिक और प्रशासनिक मामलों में प्रशिक्षित किया। राज-काज की बारीकियां समझाई।
‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’- मुझे अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो। ज्योति की यात्रा मनुष्य की शाश्वत अभीप्सा है। इस यात्रा का उद्देश्य है, प्रकाश की खोज। प्रकाश उसे मिलता है, जो उसकी खोज करता है। कुछ व्यक्तित्व प्रकाश के स्रोत होते हैं। वे स्वयं प्रकाशित होते हैं और दूसरों को भी निरंतर रोशनी बांटते हैं। अहिल्याबाई ऐसा ही एक लाइटहाउस था यानी प्रकाश-गृह, जिसके चारों ओर रोशनदान थे, खुले वातायन थे। उनका चिंतन, शासन-व्यवस्था, संस्कृति-प्रेम, संभाषण, आचरण, सृजन, सेवा, परोपकार- ये सब ऐसे खुले वातायन थे, जिनसे निरंतर आलोक प्रस्फुटित होता रहा और पूरी मानवजाति को उपकृत किया। राजमाता अहिल्याबाई होलकर का जीवन अनेक संकटों एवं संघर्षों का साक्षी बना। एक के बाद एक पहाड जैसे दुःख, आघात उन्हें झेलने पड़े। 1766 में अहिल्या के ससुर मल्हार राव का भी निधन हो गया। उसके अगले ही वर्ष, उन्होंने अपने बेटे माले राव को भी खो दिया। बेटे को खोने का दुःख उन्होंने अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया। राज्य और अपनी प्रजा के कल्याण को ध्यान में रखते हुए उन्होंने पेशवा से, मालवा के शासन को संभालने की अनुमति मांगी। हालांकि, कुछ अभिजातों ने इसका विरोध किया, लेकिन उन्हें सेना का समर्थन प्राप्त था। सेना को उन पर पूरी श्रद्धा और विश्वास था, क्योंकि वह सैन्य और प्रशासनिक मामलों में अच्छी तरह से प्रशिक्षित थीं। उन्होंने कई मौकों पर सेना का नेतृत्व किया था और एक सच्चे योद्धा की तरह लड़ाई लड़ी थी। 1767 में, पेशवा ने अहिल्याबाई को मालवा पर अधिकार करने की अनुमति दे दी। 11 दिसंबर 1767 को वे गद्दी पर बैठीं और इंदौर की शासक बनीं। अगले 28 वर्षों तक महारानी अहिल्याबाई ने न्यायोचित, बुद्धिमत्तापूर्ण और ज्ञानपूर्वक तरीके से मालवा पर शासन किया। अहिल्याबाई के शासन के तहत, मालवा में शांति, समृद्धि, खुशहाली और स्थिरता बनी रही। साथ ही साथ उनकी राजधानी साहित्यिक, संगीतात्मक, कलात्मक और औद्योगिक गतिविधियों के एक बेहतरीन स्थान में परिवर्तित हो गई। कवियों, कलाकारों, मूर्तिकारों और विद्वानों का उनके राज्य में स्वागत किया गया, क्योंकि वे उनके काम को बहुत सम्मान दिया करती थीं।
रानी अहिल्याबाई ने अपने समय में विभिन्न दिशाओं में सृजन की ऋचाएं लिखी हैं, नया इतिहास रचा है। अपनी योग्यता और क्षमता से स्वयं को साबित किया है। नारी शासक के रूप उन्होंने एक छलांग लगाई, राज-व्यवस्था एवं उन्नत समाज संरचना को निर्मित करते हुए जीवन की आदर्श परिभाषाएं गढ़ी थीं। वह अपनी प्रजा को अपनी संतान मानती थी। उन्होंने अपने शासनकाल में कई कानूनों को समाप्त किया, किसानों का लगान कम किया, कृषि, उद्योग धन्धों को सुविधा देकर विकास के अनेक काम किए। चोर, डाकुओं एवं अन्य अपराधियों को सही रास्ते पर लाकर उनके जीवन में सकारात्मक परिवर्तन लाकर उनकी जीवन दिशाएं बदली। रानी अहिल्याबाई महान् परोपकारी, संवेदनशील एवं करूणामयी थी। राहगीरों, गरीबों, विकलांगों, साधु- संतों,पशु-पक्षियों, जीव-जंतुओं सभी का ध्यान रखती थी यहां तक कि अपने सैनिकों, कर्मचारियों के कल्याण के लिए भी वह कभी पीछे नहीं हटी। मन्दिरों का जीर्णाेद्धार, पर्यावरण एवं जलसंधारण, विधि एवं न्याय व्यवस्था, नारी सम्मान और नारी शिक्षा, व्यापार, कौशल-विकास आदि उनके शासन की विशेष उपलब्धियां बनी। अहिल्याबाई का हृदय समाज के सभी वर्गों के लिए धड़कता था।
रानी अहिल्याबाई हिन्दू धर्म की पुरोधा, उन्नायक एवं रक्षक थी। उन्होंने बद्रीनाथ, केदारनाथ, रामेश्वरम, जगन्नाथ पुरी, द्वारका, पैठण, महेश्वर, वृंदावन, सुपलेश्वर, उज्जैन, पुष्कर, पंढरपुर, चिंचवाड़, चिखलदा, आलमपुर, देवप्रयाग, राजापुर स्थानों पर मंदिरों का पुनर्निर्माण करवाया तथा घाट बनवाएं और धर्मशालाएं खुलवाए, जहां लोगों को प्रतिदिन भोजन मिलता था। काशी विश्वेश्वर मंदिर के साथ-साथ पूरे देश के मंदिरों का निर्माण व पुनर्निर्माण का कार्य रानी ने करवाया। त्र्यंबकेश्वर ज्योतिर्लिंग में तीर्थ यात्रा के लिए विश्रामगृह, अयोध्या, नासिक में भगवान श्रीराम के मंदिरों का निर्माण, सोमनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण, उज्जैन में चिंतामणि गणपति मंदिर निर्माण-ये सभी कार्य रानी ने दिल खोलकर किए हैं। उन्होंने कल्याणकारी व परोपकारी कार्यों द्वारा राष्ट्र निर्माण का महत्ती कार्य भी किया तथा देश में धार्मिक, सामाजिक, राष्ट्रीय एकता कायम करने के लिए सराहनीय प्रयास किए। अहिल्याबाई ने महेश्वर में वस्त्र उद्योग भी स्थापित किया, जो वर्तमान में अपनी महेश्वरी साड़ियों के लिए बहुत प्रसिद्ध है। शासन से लेकर संस्कार तक, साहित्य से लेकर समाज-निर्माण तक अनुभव गुम्फित है। न केवल राजनीति के क्षेत्र में बल्कि व्यक्ति निर्माण एवं समाज निर्माण के क्षेत्र में भी आपके विचारों का क्रांतिकारी प्रभाव देखने को मिलता है।
‘दार्शनिक महारानी’ की उपाधि से सम्मानित, अहिल्याबाई का 13 अगस्त 1795 को सत्तर वर्ष की आयु में निधन हो गया। रानी अहिल्याबाई में इतिहास के गौरवशाली वीरों के गुण देखने को मिलते हैं। कोई भी महिला इतनी सर्वगुण संपन्न कैसे हो सकती है? इतिहास, वर्तमान और भविष्य में केवल एक ही नारी में इतने गुणों का समावेश होना संभव ही नहीं है। धर्माचरण, शासन प्रबंध, विद्वानों का सम्मान व न्याय, दानशीलता ,उदार धर्म नीति, भक्ति भावना, वीरता, त्याग व बलिदान, साहस, शौर्य से परिपूर्ण रानी अहिल्याबाई युगों- युगों तक अमर रहेगी। 

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