राजनीति

सबका साथ सबका विनाश, भा.(२)

-डॉ. मधुसूदन

sindhu_river(एक)भा.(१)की प्रतिक्रियाएँ।

 आलेख की प्रतिक्रिया में, कुछ विद्वानों के विचार और संदेश आए। एक बड़ा दीर्घ (१० पृष्ठ) अंग्रेज़ी आलेख एक प्रोफेसर ने भी भेजा। शायद यह “विनाश” शब्द की प्रेरणा ही मानता हूँ। अनुभव किया है, कि, संकट के नाम से हमारी  भारतभक्ति विशेष जाग जाती है।

 मुझे स्वयं को, उस शीर्षक से हिचकिचाहट हो रही थी। पर *विनाश* जैसा नकारात्मक शब्द संवेदना अवश्य जगाता है।आपात्काल में भी ऐसी ही घोर चिंताएँ भारत की भक्ति जगा जाती थी। ये पाठक हिन्दी पढ़ते हैं, हिन्दी के पुरस्कर्ता भी प्रतीत होते हैं, अभ्यास न होने के कारण, लिखते रोमन में हैं। पर हर कोई चाहता है; कि, इस विनाश को रोका जाए।

(दो) कैसे रूकेगा विनाश? 

किसी भी विनाश को रोकने के लिए कीमत चुकानी पडती है। कुछ दिए बिना कुछ ही नहीं मिलता। कपट का व्यापार नहीं चलता। कर्म किए बिना फल भी नहीं मिलता। 
सब का यदि साथ हो तो विनाश भी रोका जा सकता है; इसी का प्रत्यक्ष उदाहरण आप को कच्छ के अभी अभी मई १ -२०१५ के समाचार में मिलेगा।
ठीक पढ़िए; जहाँ हजारों वर्षों से केवल मृगमरीचिकाएँ देखी जाती थी, उस मरुभूमि कच्छ में साक्षात जल देखनेपर जनता में कैसा उत्साह भर आएगा, इस की कल्पना आप शायद ही कर पाएँ।

(तीन) कच्छ कैसा है?

मुझे भी कच्छ गए बरसों हो गए। और मैं वहाँ गाड़ी से गया हूँ। सहानुभूति शब्द भी अनुभूति के विस्तारक सह के अर्थ से ही सिद्ध होता है। आप कच्छ की कल्पना अवश्य नहीं कर पाएँगे।आप की  सहानुभूति भी आप की अपनी अनुभूति की मर्यादा से बँध जाती है। 

हम सभी के साथ साथ, भारत की ही धरती पर,समय के एक ही बिदुपर, सहअस्तित्व रखती हुयी, करोड़ों की कच्छवासी जनसंख्या अनवरत अमावस के घोर अंधेरे में जीवन धकेलती जी रही थीं। 
अपना एक बैल मरने पर विवशता से, स्वयं को या पत्नी को ही उस बैल की जगह जोत कर हल खींचने वाले कृषकों के उदाहरण कच्छ में सुने-पढ़े हुए हैं। कोई और उपाय ही जब न हो, तो, बेचारा किसान क्या करे?
कितने कितने गाँव, पर सभी गाँवों की एक ही छवि। जैसे अभी अभी मोहेन्जो दड़ो और हरप्पा की सभ्यताओं  से उन्हें उठाकर यहाँ पटका दिया-सा चित्र। 
इससे बड़ा भारतीय संस्कृति पर लांछन और क्या हो सकता है? फिर से धृवपद दोहराऊँ? यह भी ६७ वर्षों की स्वतंत्रता के उपरांत? ये सुनकर आप के कान भी पक चुके होंगे।
 

(चार) कच्छमें १ मई २०१५ की घटना: 

*कच्छ में नर्मदा नीर”==>सदियों का सपना हुआ साकार*  
१ मई २०१५ के, गुजरात टाइम्स का समाचार शीर्षक है; *कच्छ का नर्मदा नीर का सपना* हुआ साकार।
समाचार  का सारांश:
***कच्छ की सदियों पुरानी भीषण जल समस्या सुलझायी गई है।
*** ९०% कच्छ की, पेय जल समस्या का अंत २०१० में ही हो गया था।
***अब सिंचाई जल समस्या का भी अंत होगा।
***कृषकों की आत्महत्याओं पर अंकुश लगेगा। वैसे वहाँ से विशेष आत्महत्याओं के समाचार नहीं पढे।
***हजारों  कच्छवासी कच्छ छोड़कर अहमदाबाद, मुम्बई और कुछ  अफ़्रिका, इंग्लैण्ड, अमरीका, कनाडा इत्यादि देशों में जा बसते थे।
***अब जल समस्या के कारण, और रोटी रोजी के लिए. कच्छ छोड़कर जाने की आवश्यकता नहीं रहेगी। ***समृद्धि ऐसी आएगी, कि, फिर घूमने फिरने पर्यटन के लिए कच्छवासी प्रवास पर निकलेगा।
***पीने का पानी ९० % कच्छ को नर्मदा बाँध के कारण मिलता ही था। अब शेष १० % कच्छ को भी मिलना प्रारंभ हो गया है।
***और कच्छ को सिंचाई के लिए भी पानी मिलने लगेगा। जिससे, उसकी भूमि तीन से चार गुना उपजाऊ होगी।वर्ष भर में एक के बदले ३ से ४ गुना उपज होगी।
***इससे, शेष भारत भी सीख ले सकता है।

 (पाँच) सिंचाई के लिए नर्मदा का पानी:

रापर से १ मई का समाचार है। दशकों से कृषक जिसकी चातक की भाँति बाट देख रहे थे, जो आज तक मात्र सपना था, वह अब साकार हुआ है। कच्छ में सिंचाइ के लिए, फतेहगढ़ से जेसडा की ओर जब पानी छोडा गया, तो वागडवासी प्रजा आनंद से झूम उठी। प्रत्येक वागड वासी के मुख मण्डल पर आनन्द छलक रहा था। वागड को कच्छ का प्रवेश द्वार माना जाता है।
प्रति सेकंद ७८००० लिटर पानी की उद्‍वाहन (पम्पिंग) क्षमता वाले, दो उद्वाहकों (पम्प) द्वारा नर्मदा का पानी कच्छ में पहुंचेगा। इस जलावतरण के कारण कच्छी जनता का कच्छ छोडकर बाहर जानेवाला स्थलान्तर रूकेगा।  कच्छ प्रदेश में नर्मदा के पानी द्वारा सिंचाई से, कृषि उत्पादन बढकर (अनुमानतः) चार गुना तक  होगा। औसत तीन गुना से अधिक ही होगा।इससे भूमि की उर्वरता (उपज क्षमता) बढ जाएगी। कहा जा सकता है, कि, अप्रत्यक्ष रूप से भूमि की समतुल्यता ही बढ़कर तीन से चार गुना हो जाएगी। या यूँ कहे कि, भूमि ही तीन गुना  हो जाएगी।  यह बिना युद्ध प्रदेश को बड़ा करने की विधि है। क्या इस विधि को शेष भारत में अपनाया जा सकता है? क्यों नहीं? 

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छः) बिना युद्ध देश बड़ा करने की विधि :

क्या आप समझ सकते हैं, कि, समस्त भरत-भूमि की  उर्वरता भी ऐसे ही बढाई जा सकती है। अर्थात जो भूमि हमारे पास है, उस से हम कम से कम तीन गुना लाभ ले सकते हैं। दो या ढाई गुना तो अवश्य।  अर्थात अप्रत्यक्षतः हमारी भूमि ढाई-तीन गुना हो जाएगी। और यह है  “बिना युद्ध देश को बड़ा करने की विधि।”   जब कच्छ की भाँति कृषि उपज ही तीन गुना होगी। तो फिर कृषक क्यों आत्महत्याएँ करेंगे?

(सात) समस्या है, मान्सून की अनियमितता।

अमरीका में वर्ष भर में बहुतेरे राज्यों में औसत एक ही उपज होती है। वहाँ  मुख्यतः शीत ऋतु के कारण उपजाऊ ऋतु अल्पकालिक है। उनकी भूमि भारत से तीन गुना है। पर ऋतु के कारण उपज मर्यादित है।
पर हमारी भूमि औसत तीन उपज दे सकती हैं; पर हमारी समस्या मान्सून ऋतु की अनियमितता है। जिसके कारण हमारी भूमि अनियमित और मर्यादित उपज देती है। और, फिर अनियमितता के कारण जब उपज नहीं होती, तो, हमारा कृषक पेड पर चढकर फाँसी लगाता है, या आत्महत्या कर लेता है।
कृषक बेचारा चातक की भाँति आकाश को तकते रहता है। जब पर्याप्त उपज नहीं होती, तो कर्ज की राशि के तले दबा हुआ, लज्जा अनुभव कर आत्महत्या करता है।

(आठ)आत्महत्याएँ बिलकुल नहीं होनी चाहिए:

इस आत्महत्या में भी उसका सत्व  झलकता दिखाई देता है। दूसरों को गोली मारने के बदले वह स्वयं को दोषी मानता है; यह है, उसके चित्त मानस का दर्पण।  पर ऐसी आत्महत्याएँ  भी बिलकुल होनी नहीं चाहिए। किसी भी कीमत पर नहीं होनी चाहिए।और इसे स्थायी रूपसे रोकने में भी आप हम योगदान दे सकते हैं। 

हमारे आदरणीय़ लेखक स्व. धरमपाल जी, “भारतीय चित्त मानस और काल” नामक ४८ पृष्ठों की पुस्तिका में, कहते हैं, कि,हम महानगर वासियों को सच्चे भारत का चित्त-मानस पता ही नहीं हैजो गाँवों में, और कुम्भ मेलों में दिखाई देता है। हम दूरदर्शन से और बचे खुचे बिके हुए, (मीडिया) संचार माध्यम से मतिभ्रमित रहते हैं। कहते हैं, मतिभ्रमित व्यक्ति स्वयं को छोड़कर सदैव सारे संसार को गलत मानता है।

क्या आप भी दूसरों को सदैव गलत मानते हैं? 

भगीरथ ने धरती पर गंगा उतारी थी। आज दूसरे भगीरथ नें कच्छ में नर्मदा उतारी है। लिख के रखिए, नरेंद्र का नाम कच्छ के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखा जाएगा।
 सबेरे ५ बजे जगकर कर्मयोग की लगन से कार्य करनेवाले कितने प्रधानमंत्री हुए हैं? विशेष नहीं।

वंदे मातरम