
प्रमोद भार्गव
महाराष्ट्र व हरियाणा के विधानसभा चुनाव परिणामों से जुड़े
जनमत सर्वेक्षण गलत साबित हुए हैं। जमीनी सच्चाई से दूर इन अनुमानों में दावा किया
गया था कि दोनों राज्यों में राजग, यानी भाजपा गठबंधन को भारी जीत मिलने जा रही है।
इसकी तुलना में संप्रग यानी कांग्रेस गठबंधन को मजबूत नेतृत्व के अभाव में करारी
हार का सामना करना पड़ेगा। हालांकि इंडिया टुडे-एक्सिस माई इंडिया एक मात्र मतदान
के बाद आया ऐसा सर्वेक्षण रहा है, जिसके पूर्वानुमान इन दोनों राज्यों में वास्तविक
परिणामों के बहुत करीब रहे हैं। इस सर्वे में 288 सदस्यीय महाराष्ट्र विधानसभा में भाजपा-शिवसेना
को 166-194 और कांग्रेस-राष्ट्रीय
कांग्रेस पार्टी गठबंधन को 72 से 90 सीटें मिलने का अनुमान लगाया था। इसी तरह 90 सदस्यीय हरियाणा विधानसभा में भाजपा
को 32 से 44, कांग्रेस को 30 से 42 तथा जननायक जनता पार्टी को 6 से 10 सीटें मिलने की उम्मीद जताई थी। मतगणना के बाद ये
अनुमान सर्वेक्षण की तराजू पर लगभग खरे उतरे। भाजपा-शिवसेना को महाराष्ट्र में 162, कांग्रेस-राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी
को 98 और हरियाणा
में भाजपा को 40, कांग्रेस को 31 और जेजेपी को 10 सीटों पर जीत हासिल हुई है।
जबकि अन्य सर्वे दोनों राज्यों में राष्ट्रवाद का झंडा फहराते
हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आंधी आने की संभावना जता रहे थे। महाराष्ट्र में
एबीपी-सीवोटर, राजग 204, संप्रग 69, इंडिया न्यूज- पोल स्ट्रेट 194-209, संप्रग 79-84, रिपब्लिक-जन की बात राजग 216-230, संप्रग 50-59, टीवी 9-सिसेरो, राजग 192-202, संप्रग 70-80 और न्यूज 18-इप्साॅस, राजग 243, संप्रग 39 सीटें दे रहे थे। हरियाणा में
एबीपी-सीवोटर राजग 72, कांग्रेस 8, इंडिया न्यूज-पोल स्ट्रेट, राजग 75-80, संप्रग 9-12, रिपब्लिक-जन की बात, राजग 52-63, संप्रग 15-19, टीवी 9-सिसेरो, राजग 69, संप्रग 11 और न्यूज 18-इप्साॅस, राजग 75, संप्रग 10 सीटें बताईं थीं। ये अनुमान यदि औसत
अनुमान के रूप में परिणाम में बदले दिखाई देते तो महाराष्ट्र में राजग को 213, संप्रग को 64 तथा हरियाणा में राजग को 70 और संप्रग को 11 सीटें मिलनी चाहिए थीं, लेकिन इन सर्वेक्षणों के परिणाम औसत
सीटों के आस-पास भी दिखाई नहीं दिए। इससे पता चलता है कि इंडिया टुडे का सर्वे छोड़, बाकी सर्वे टेबल पर बैठकर किए गए
हैं। वैसे भी पिछले 22 चुनावों के एग्जिट पोल बमुश्किल 60 प्रतिषत ही सही साबित हुए हैं। इन
सर्वेक्षणों ने ओपोनियन पोल यानी मतदान से पहले किए गए सर्वे के बहाने नरेंद्र
मोदी और भाजपा का गुणगान करके भी उसे अप्रत्यक्ष लाभ पहुंचाया है। इसीलिए ओपोनियन पोल पर प्रतिबंध
लगाने की बात उठती रही है।
फिलहाल हमारे देश में चुनाव पूर्व जनमत सर्वेक्षण एक नया विषय
है। यह ‘सेफोलाॅजी’ मसलन जनमत सर्वेक्षण विज्ञान के अंतर्गत आता है। भारत के
गिने-चुने विश्वविद्यालयों में राजनीति विज्ञान के पाठ्यक्रम के तहत सेफोलाॅजी को
पढ़ाने की शुरूआत हुई है। जाहिर है, विषय और इसके विशेषज्ञ अभी अपरिपक्व अवस्था में
हैं। परिपक्व चुनाव विष्लेशक के रुप में अब तक योगेन्द्र यादव को माना जाता रहा
है। इस नजरिए से उनका सम्मान और विश्वसनीयता भी जनता में बरकरार रही थी। लेकिन बाद
में वे आम आदमी पार्टी की सदस्यता लेकर प्रत्यक्ष राजनीति के पैरोकार बन गए थे, इसलिए चुनाव पूर्व आने वाले जनमत
सर्वेक्षण से भरोसे के नहीं रह गए हैं।
सर्वेक्षणों पर षक की सुई इसलिए भी जा ठहरती है कि पिछले कुछ
सालों में निर्वाचन-पूर्व सर्वेक्षणों की बाढ़ सी आई हुई है। इनमें तमाम कंपनियां
ऐसी हैं, जो धन लेकर
सर्वे करती हैं। गोया, छोटे पर्दे पर नतीजे इकतरफा नहीं आने के क्रम में
कांग्रेस प्रवक्ता सुश्मिता देव ने एजेंसियों के सर्वेक्षण पर तंज कसते हुए कहा भी
कि इन्हें अभी और सीखने की जरूरत है, जिससे परिणाम परिपक्व दिखें। चूंकि अनुमान सटीक
नहीं बैठे, इसलिए
एजेंसियों को दलों और मतदाताओं से विनम्रता के साथ माफी भी मांगनी चाहिए। बेवाकी
के लिए मशहूर दिग्विजय सिंह कह रहे हैं कि ‘धन देकर पार्टिया अपने अनुकूल सर्वे
करा लेती हैं।‘ इसे नकारने की बजाय, गंभीरता से लेने की जरुरत है। दिग्विजय सिंह की यह बात
भरोसा करने वाली है कि सर्वे संस्थान धन लेकर जनमत सर्वेक्षण करने में लगे हैं।
वैसे भी किसी भी प्रदेश के करोड़ों मतदाताओं की मंशा का आकलन महज कुछ हजार मतदाताओं
की राय लेकर
सटीक नहीं किया जा सकता है। कभी-कभी ये अटकलें खरी उतर जाती हैं। इसलिए चुनाव
सर्वेक्षणों के प्रसारण व प्रकाशन पर रोक लगनी चाहिए।
ओपिनियन पोल मतदाता को गुमराह कर निश्पक्ष चुनाव में बाधा बन
रहे हैं। इसीलिए पूर्व महाधिवक्ता गुलाम ई वाहनवती ने केंद्र सरकार को निर्वाचन
पूर्व सर्वेक्षणों पर रोक लगाने की सलाह दी थी। वैसे भी ये सर्वेक्षण वैज्ञानिक
नहीं हैं, क्योंकि
इनमें पारदर्षिता की कमी है और ये किसी नियम से बंधे नहीं हैं। साथ ही ये सर्वे
कंपनियों को धन देकर कराए जा सकते हैं। बावजूद इन्हें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के
बहाने ढोया जा रहा है। जबकि ये पेड न्यूज की तर्ज पर ‘पेड ओपोनियन पोल‘ में बदल गए
हैं। इसीलिए इनके परिणाम भरोसे के तकाजे पर खरे नहीं उतरते। सर्वे कराने वाली
एजेंसियां भी स्वायत्त होने के साथ जवाबदेही के बंधन से मुक्त हैं। गोया, इन पर भरोसा किस बिना पर किया जाए ?
दरअसल चुनाव आयोग ने 21 अक्टूबर 2013 को सभी राजनीतिक दलों को एक पत्र लिखकर, चुनाव सर्वेक्षणों पर राय मांगी थी।
दलों ने जो जवाब दिए, उससे मत भिन्नता पेश आई। वैसे भी बहुदलीय
लोकतंत्र में एकमत की उम्मीद बेमानी है। जाहिर है, कांग्रेस ने सर्वेक्षण निश्पक्ष चुनाव प्रक्रिया
को प्रभावित करने वाले बताए थे। बसपा ने भी असहमति जताई थी। माकपा
की राय थी कि निर्वाचन अधिसूचना जारी होने के बाद सर्वेक्षणों के प्रसारण और प्रकाशन
पर प्रतिबंध जरुरी है। तृणमूल कांग्रेस ने आयोग के फैसले का सम्मान करने की बात
कही थी। जबकि भाजपा ने इन सर्वेक्षणों पर प्रतिबंध लगाना संविधान के विरुद्ध माना
था। उस समय ज्यादातर चुनाव सर्वेक्षण भाजपा के पक्ष में आ रहे थे। उसने तथ्य दिया
था कि सर्वेक्षणों में दर्ज मतदाता या व्यक्ति की राय वाक्, भाशण या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
के अधिकार क्षेत्र का ही मसला है। तय है, दलों के अलग-अलग रुझान भ्रम और गुमराह की
मनस्थिति पैदा करने वाले थे, इसलिए आयोग भी हाथ पर हाथ धरे बैठा रह गया।