अमेरिका : लोकतंत्र का सबसे बड़ा गुनहगार

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-कुन्दन पाण्डेय-   america

लोकतंत्र (का मस्तिष्क और हृदय); विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, प्रतिष्ठा और व्यक्ति की गरिमा से जीवंत होता है। वैश्विक लोकतंत्र के स्वयंभू दारोगा अमेरिका ने विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, प्रतिष्ठा और व्यक्ति की गरिमा का गला घोंट दिया है। आधिकारिक रिपोर्ट है कि आधी से अधिक अमेरिकी महिलाएं 18 साल की उम्र से पहले ही रेप की शिकार हो चुकी होती हैं। ऐसा अपराध करके अमेरिका, वैश्विक लोकतंत्र का सबसे बड़ा गुनहगार बन गया है।

हर दशक में उसने ये गुनाह लोकतंत्र का स्वयंभू दारोगा बनकर, लोकतंत्र के नाम पर ही किया है। 1950 के दशक में हिरोशिमा और नागासाकी में मानवता की हत्या करने के पहले से, वह यह काम किसी न किसी रूप में कर रहा है। अमेरिका की केंद्रीय कैबिनेट की बैठक से पहले व्हाइट हाउस ने एक रिपोर्ट जारी की है, इसके अनुसार करीब 2 करोड़ 20 लाख अमेरिकी महिलाओं और 16 लाख पुरुषों को अपनी जिंदगी में बलात्कार का शिकार होना पड़ा है। इनमें आधी से अधिक अमेरिकी महिलाएं 18 साल की उम्र से पहले ही रेप की शिकार हो चुकी होती हैं। रिपोर्ट का सबसे भयानक पहलू यह है हर 5 में से एक छात्रा यौन शोषण का शिकार होती है जबकि हर 8 यौन अपराधों में से एक मामला ही दर्ज हो पाता है।

रिपोर्ट बताता है कि 33.5 फीसदी बहुनस्लीय महिलाओं से बलात्कार किया गया जबकि अमेरिकी-भारतीय मूल और अलास्का नेटिव 27 फीसदी महिलाओं को हवस का शिकार बनाया गया। इसके अतिरिक्त 15 फीसदी हिस्पैनिक, 22 फीसदी अश्वेत और 19 फीसदी श्वेत औरतें इस प्रकार के यौन हमलों की शिकार हुईं।

एक अन्य अध्ययन रिपोर्ट का निष्कर्ष है कि कॉलेज के 7 फीसदी पुरुषों ने रेप की कोशिश करने को स्वीकार किया और उनमें से 63 फीसदी ने माना कि उन्होंने औसतन 6 बार ऐसा करने की पुरजोर कोशिश की। यह विश्व में सबसे विकसित होने का असली चेहरा है? मानवाधिकारों के स्वयंभू वैश्विक दारोगा ने अपनी महिलाओं को कैसा मानवाधिकार दिया है? 2010 के दशक में सुरक्षा परिषद को ताक पर रखकर अफगानिस्तान और इराक को तहस-नहस कर दिया।

2010 के दशक में एक और काम अमेरिकी एनएसए ने किया है, जिसका पूरा नाम नेशनल सिक्योरिटी एजेंसी है। इस एजेंसी ने अपने खुफिया निगरानी कार्यक्रम ‘प्रिज्म’ को क्रियान्वित करते हुए विश्व के 35 प्रमुख देशों के शासकों की जासूसी सफलतापूर्वक की है। लोकतंत्र के स्वयंभू दरोगा ने यह काम किस आधार पर किया है, बताने के लिए अमेरिका को कोई ठोस शब्द नहीं मिल रहा है। एडवर्ड स्नोडेन ने मार्च 2013 में चौंकाने के साथ-साथ चिंतित करने वाले तथ्य भी बताए। स्नोडेन ने बताया कि एनएसए ने अमेरिका में जिन 38 दूतावासों की जासूसी की है उनमें भारतीय दूतावास भी शामिल है। एनएसए ने भारतीयों की 6.3 अरब गोपनीय जानकारियां प्राप्त की हैं।

विश्व की अकेली, अजेय महाशक्ति अमेरिका, अपने नागरिकों को आत्महत्या करने से नहीं रोक पा रही है। किस काम की है ये महाताकत? 2005 के बाद से अमेरिका में आत्महत्या करने वालों की संख्या लगातार बढ़ रही है। केवल 2010 में 38,364 अमेरिकियों ने खुदकुशी की। राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य संस्था के अनुसार आत्महत्या करने वाले 90 फीसदी लोग मानसिक बीमारी से पीड़ित थे। पूरे अमेरिका में 24 घंटे चलने वाले राष्ट्रीय आत्महत्या रोकथाम लाइफ लाइन नेटवर्क के 161 काल सेंटर बनाए गए हैं। इन लाइफ लाइनों में हर साल 15 प्रतिशत काल बढ़ रहे हैं। 2010 के दशक में 35-64 आयु के लोगों में आत्महत्या करने की दर 28.4 प्रतिशत बढ़ गई है।

‘अमेरिकी समाज, बंदूक संस्कृति से संस्कारित समाज है।’ परिवार संस्था को मिटाकर अमेरिका ने व्यक्ति संस्था वाला समाज बनाया है, जहां हर एक व्यक्ति अकेला है, कोई किसी का परिवारीजन नहीं है। अमेरिकी किसी पर भी विश्वास नहीं करते, चाहे वह दोस्त हो या दुश्मन, ऐसा क्यों? क्योंकि उसके समाज में कोई किसी पर विश्वास नहीं करता। अमेरिका को देखकर लगता है कि अति विकास से उत्पन्न समृद्धि में, व्यक्ति अपने आप को अकेला और असुरक्षित महसूस करता है। इसी कारण हर अमेरिकी अपने आप को इतना असुरक्षित महसूस करता है कि वह सबसे पहले अपने बैग में बंदूक रखता है। अमेरिका की जनसंख्या महज 30 करोड़ है, जबकि 31 करोड़ लोगों के पास बंदूकों के लाइसेंस हैं। इसका कारण यह है कि 18 वर्ष के हर अमेरिकी को दो संवैधानिक अधिकार मिलते हैं, एक वोट डालने का और दूसरा राइफल-शाटगन खरीदने का। जेल में बंद या पैरोल पर रिहा लोगों को वोट डालने का अधिकार नहीं होता है। पति से मामूली झगड़ा होने पर भी पत्नियां अपने पास बंदूक रखकर सोती हैं। भारत के एकल परिवारों का भविष्य भी यही हो सकता है।

भारतीय मूल की नीना दावूलुरी ने जब 50 से अधिक प्रतिद्वंद्वियों को हराकर ‘मिस अमेरिका’ का खिताब जीता, तो अमेरिकियों ने सोशल मीडिया पर जमकर नस्लीय टिप्पणियां कीं। अमेरिकियों ने ‘क्या हम 9/11 भूल गए हैं’, ‘मिस टेररिस्ट’, ‘मिस अल कायदा’, ‘अरब ने जीता मिस अमेरिका का ताज’ सहित नीना को काले रंग का तक कहा। जबकि अमेरिका के मूल निवासी रेड इंडियन थे। जिनका शताब्दियों पहले नरसंहार कर दिया गया था, बचे लोगों का जबर्दस्ती यूरोपीयकरण कर दिया गया था। शेष रेड इंडियन आज अमेरिका में आदिवासी हैं। नीना जन्म से अमेरिकी नागरिक हैं, जैसे राहुल गांधी भारतीय नागरिक। क्योंकि नीना का जन्म अप्रैल 1989 को न्यूयॉर्क में हुआ था। डेमोक्रेटिक पार्टी के वरिष्ठ नेता ने भारतीय मूल के निक्की हैली के गवर्नर बनने पर भी नस्ली टिप्पणी की थी।

दुनिया के हर देश के लोगों ने मिलकर आज के अमेरिका को बनाया है। जैसे राष्ट्रपति बराक ओबामा और डांसर माइकल जैक्शन अफ्रीकी मूल के हैं। जॉर्ज बुश ब्रिटानी मूल के हैं। यह वह अमेरिकी समाज है, जो अपने आप को नस्लवाद से मुक्त, लोकतंत्र, अभिव्यक्ति, विविधता, मानवाधिकार आदि का संरक्षक, होने का विश्व में ढ़िढ़ोंरा पिटता रहता है। वैश्वीकरण एक अमेरिकी अवधारणा है जो कहती है कि तकनीक और पूंजी में इतनी ताकत होती है कि वो देश, धर्म, भाषा, जाति, क्षेत्र आदि के भेद को मिटा देता है। लेकिन पूरे विश्व को पूंजी और तकनीक से ‘ग्लोबल विलेज’ बनाने वाले अमेरिकी समाज का, खुदा का असली चेहरा नस्लवादी है।

अमेरिका ने सबसे पहले हिरोशिमा एवं नागासाकी पर अणु-बम बरसाये, फिर वियतनाम में मुंह की खायी। धन के बल पर अपने दुश्मन नम्बर एक रहे सोवियत संघ को अफगानिस्तान से उखाड़ फेंकने के लिए जिस तालिबान नामक दैत्य-संघ को खड़ा किया, उसी ने अमेरिका के गुरूर ‘वर्ल्ड ट्रेड सेन्टर’ को जमींदोज किया। परमाणु बम बनाने के झूठे आरोप में इराक पर हमला करके उसे तहस-नहस किया। सोवियत संघ के विघटन से शीत युद्ध का खात्मा होने पर भी अमेरिका चैन से नहीं बैठा। एकध्रुवीय विश्व के अजेय, एकलौते थानेदार एवं भाई बनने के चक्कर में अमेरिका ने अपना रक्षा व्यय कुल बजट का 36 प्रतिशत तक पहुंचा दिया, जो 698 अरब डॉलर से ऊपर पहुंच चुका है। अमेरिका ने वर्ष 2001 के बाद से अपने रक्षा व्यय में 81 फीसदी की वृद्धि की है। यह जानकर किसी को भी ताज्जुब हो सकता है कि अमेरिकी सैन्य खर्च, वैश्विक सैन्य व्यय का लगभग 43 फीसदी है। आश्चर्यजनक है कि अमेरिका पूरे विश्व में 800 सैन्य बेस चला रहा है। भारत से नजदीकी सैन्य बेस अरब सागर के डियागोगॉर्सिया नामक द्वीप पर है।

जून 1996 में अमरीकी विद्वान नोआन चोम्स्की ने सही कहा था कि, “यूरोप का स्वभाव प्राचीन काल से ही हिंसक रहा है। विशेषकर इंग्लैंड और अमरीका तो पिछले 500 बरसों से पूरी तरह से हिंसक स्वभाव के रहे हैं। वे दूसरों का अस्तित्व या आगे बढ़ना सह नहीं पाते। सबको अपने अधीन ही रखना चाहते हैं।” मानवाधिकारों के वैश्विक दरोगा अंकल सैम ने जूलियन असांजे और एडवर्ड स्नोडेन से कौन सा मानवाधिकार सम्मत व्यवहार किया। जूलियन असांजे को अमेरिका ने हरसंभव तरीके से परेशान किया। स्नोडेन के प्रत्यर्पण के लिए अमेरिका ने एड़ी-चोटी का जोर लगाया, लेकिन सफलता नहीं मिल पाई।

एनएसए, सीआईए को पीछे छोड़ते हुए आज के युग की प्रमुख अमेरिकी खुफिया एजेंसी बन गई है। इसका प्रमाण यह है कि एनएसए के कर्मचारी सीआईए से लगभग दूगने 40 हजार हैं। एनएसए को 2013 में 10.8 अरब डॉलर का बजट मिला जबकि सीआईए को लगभग ढाई गुना कम केवल 4.2 अरब डॉलर का बजट मिला। इस कुख्यात एजेंसी ने ‘प्रिज्म’ नामक गोपनीय अभियान चलाकर जर्मन चांसलर अंगेला मर्केल की फोन कॉल्स को 2002 से ‘सुना’, जबकि जर्मनी अमेरिका का खास दोस्त है। हद तो यह है कि अमेरिका ने नॉटो के सदस्य देशों जर्मनी, फ्रांस और स्पेन तक के राष्ट्राध्यक्षों की भी जासूसी की है।

95 वर्षों के बाद 2011 में शीर्ष वैश्विक क्रेडिट रेटिंग संस्था ‘स्टैंडर्ड एण्ड पुअर’ (एस एण्ड पी) ने अमेरिका की क्रेडिट (साख) रेटिंग ‘एएए’ से घटाकर ‘एए प्लस’ करके अमेरिकी गुरूर को तोड़ दिया। अमेरिका अपना 40 फीसद खर्च कर्ज से चलाता है और 1962 से अब तक कर्ज की सीमा 75 बार बढ़ाई जा चुकी है। अमेरिका की सबसे बड़ी ताकत उसका डॉलर है, जो विश्व अर्थव्यवस्था में सोने से भी विश्वसनीय माना जाता रहा है। ‘ट्रिपल ए’ रेटिंग से अमेरिका को सबसे सस्ता कर्ज मिल जाता था, इसी कारण अमेरिका ने इतना अधिक कर्ज ले लिया कि केवल चीन का कर्ज लौटाने से उसकी अर्थव्यवस्था को बड़ा झटका लग सकता है।

स्थिति यह हो गयी है कि 99 फीसदी साक्षरता जिसमें अधिकतर व्यावसायिक रूप से कुशल हैं, के बावजूद बेरोजगारी की दर अमेरिका में भारत से ज्यादा 11 प्रतिशत हो गयी है। टाइम पत्रिका के अनुसार यदि केवल चीन अमेरिका से कर्ज वापस ले तो इससे उसकी अर्थव्यवस्था में प्रलय की स्थिति निर्मित हो सकती है। अब विश्व अर्थव्यवस्था को डॉलर की स्थानापन्न मुद्रा की खोज तेजी से करनी होगी। यह अमेरिकी वर्चस्व के एक छत्र राज के अवसान का आरंभ हो सकता है। क्योंकि अमेरिका विश्व का सबसे अधिक ऋणी देश बन गया है। उस पर 16 ट्रिलियन डालर का कर्ज है और चीन के बाद जापान, अमेरिका को ऋण देने वाला विश्व का दूसरा सबसे बड़ा देश है।

अमेरिकी सर्वर चलाने वाली कंपनियां, फॉरेन इंटेलिजेंस सर्विलांस एक्ट (फीसा) जैसे अमेरिकी कानूनों के तहत अपने सर्वरों पर रखा डेटा एनएसए को देने के लिए बाध्य हैं। वैश्विक जीवन का अभिन्न अंग बन चुकी फेसबुक, माइक्रोसॉफ्ट, गूगल, याहू, यू-ट्यूब, स्काइप और ऐपल जैसी कंपनियां अपने डेटा, फीसा कानून के कारण अमेरिकी सरकार को देने के लिए बाध्य हैं। अमेरिका की नेशनल सिक्योरिटी एजेंसी (एनएसए) का मुख्य काम इंटरनेट और मोबाइल फोन पर कड़ी निगरानी रखना है। निगरानी की रिपोर्ट व्हाइट हाउस, अमेरिकी खुफिया और सुरक्षा एजेंसियों को देनी होती है। भारत में एक भी ऐसी भारतीय कंपनी नहीं है, जो फेसबुक, गूगल और याहू का मुकाबला कर सके। चीन के प्रखर राष्ट्रवाद ने क्यूक्यू, अलीबाबा, बाइदू, रेनरेन, जैसी विशालकाय स्वदेशी इंटरनेट कंपनियों का गौरवशाली विकास किया है। जबकि भारत में कथित धर्मनिरपेक्षता से उत्पन्न चरित्रनिरपेक्षता ने एक ऐसा भीमकाय दानव पैदा किया है, जिसने भारत के राष्ट्रवाद को उभरने से पहले ही निगल लिया।

सबसे बड़ी सैन्य और आर्थिक महाशक्ति होने के बाद भी अमेरिका हर समय दूसरे देशों को कमजोर करने में लगा रहता है। वह अपने खास दोस्तों और दुश्मनों; दोनों पर जरा भी भरोसा नहीं करता है, इसलिए दोनों की जासूसी करता है। दरअसल दोष अमेरिका का नहीं है, बल्कि उसका समाज ही ऐसा है। अमेरिकी समाज बंदूकची समाज है। माल्कम फोर्ब्स का कथन है कि ‘हार का स्वाद मालूम हो तो जीत हमेशा मीठी लगती है’। अमेरिका को हार का स्वाद पता नहीं है, इसलिए हर निकृष्ट तरीके को अपनाकर वह जीतने की फिराक में लगा रहता है।

पीएमओ, सरकारी तोता की तरह काम करने वाली सीबीआई, रक्षा मंत्रालय, विदेश मंत्रालय, कई देशों में स्थित भारतीय दूतावास सहित भारतीय मिसाइल प्रणालियां भी साइबर हमलों के सामने घुटने टेक चुकी हैं। ये बड़ी भारतीय संस्थाएं विदेशी साइबर हमलों से अपने डेटा की रक्षा नहीं कर पाई। इसका अर्थ यह है कि भारत का कोई भी डेटा साइबर हमलों से सुरक्षित नहीं है, तिस पर यह देश आईटी में सुपर पावर है।

भारतीय संविधान की प्रस्तावना में लिखा है कि, ‘हम, भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व-संपन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष और लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए, तथा उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त कराने के लिए तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवम्बर, 1949 ईस्वी (मिति मार्गशीर्ष शुक्ला सप्तमी, संवत् दो हजार छह विक्रमी) को एतद् द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।’ (स्थान की कमी के कारण इस पूरे पैराग्राफ को हटा सकते हैं।)

भारत सरकार ने संविधान प्रदत्त सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, प्रतिष्ठा और व्यक्ति की गरिमा को बरकरार रखने की संप्रभुता को अमेरिका के सामने गिरवी रख दिया है। नागरिकों और संस्थाओं के निजी डेटा की खुफिया निगरानी लोकतंत्र की हत्या है, जो अक्षम्य अपराध है।

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कुन्दन पाण्डेय
समसामयिक विषयों से सरोकार रखते-रखते प्रतिक्रिया देने की उत्कंठा से लेखन का सूत्रपात हुआ। गोरखपुर में सामाजिक संस्थाओं के लिए शौकिया रिपोर्टिंग। गोरखपुर विश्वविद्यालय से स्नातक के बाद पत्रकारिता को समझने के लिए भोपाल स्थित माखनलाल चतुर्वेदी रा. प. वि. वि. से जनसंचार (मास काम) में परास्नातक किया। माखनलाल में ही परास्नातक करते समय लिखने के जुनून को विस्तार मिला। लिखने की आदत से दैनिक जागरण राष्ट्रीय संस्करण, दैनिक जागरण भोपाल, पीपुल्स समाचार भोपाल में लेख छपे, इससे लिखते रहने की प्रेरणा मिली। अंतरजाल पर सतत लेखन। लिखने के लिए विषयों का कोई बंधन नहीं है। लेकिन लोकतंत्र, लेखन का प्रिय विषय है। स्वदेश भोपाल, नवभारत रायपुर और नवभारत टाइम्स.कॉम, नई दिल्ली में कार्य।

2 COMMENTS

  1. कुन्दन जी—
    शायद आपने American Indian का अर्थ ” अमरिकन भारतीय” लगाया हो सकता है।
    यह शब्द Red Indian का पर्याय है।

  2. पिछले वर्षो में अमेरिका के भारत में हुए राजनेतिक ,सामाजिक ,धार्मिक अमानवीय षडयंत्रो पर कोई रिपोर्ट पाठको को उपलब्ध कराये

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