सुबह-सुबह जब धूप गुनगुनी,
छत पर आती है|
सूरज कि किरणों में बैठी,
मां मुस्कराती है।
आसमान भी देख देख कर,
गदगद हो जाता|
जब छत रूपी बिटिया को,
हँसकर दुलराती है।
ठंडी शीतल हवा झूमती,
नदियों के ऊपर|
लहरों पर भी खुशियों की,
चादर बिछ जाती है|
बिजली के तारों पर बैठी,
चिड़ियों की पंक्ति|
चें चें चूं चूं चीं चीं का,
मृदु गान सुनाती हैं।
बचपन में जब कभी सार में,
,गाय रंभाती थी|
खपरेलों वाले उस घर की,
याद आ जाती है|
गाय लगाते हँसकर,
मटकी जांघों पर रखकर|
वह सूरत बापू की,
आँखों में आ जाती है|