मुख्यमंत्री का पद ठुकुराने वाली एक भारतीय आत्मा-पद्मभूषण डाॅ. माखनलाल चतुर्वेदी

4 अप्रेल उनकी जयंती पर विशेष

 आत्माराम यादव
आजादी के बाद सन् 1956 में मध्यप्रदेश राज्य गठन के पश्चात राज्य के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर किसे बिठाया जाये, इसे लेकर पण्डित माखनलाल चतुर्वेदी, पण्डित रविशंकर शुल्क एवं पण्डित द्वारकाप्रसाद मिश्रा में से किसी एक नाम को लेकर सहमति हेतु विचारविमर्श हुआ, सर्वसम्मति से तीन कागजों की पर्चिया बनाकर लाटरी से इन तीन नामों में से जिसका नाम निकले उन्हें प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाये जाने की सहमति बनी। जब लाटरी निकाली गयी तब पण्डित माखनलाल चतुर्वेदी को स्वतंत्र भारत  के प्रथम मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री के नाम निकला और उन्हंें ही प्रदेश के मुख्यमंत्री की जिम्मेदारी सौंपे जाने का निर्णय लिया जाकर काॅग्रेस के अनेक वरिष्ठ नेता श्री चतुर्वेदी के खण्डवा स्थित निवास पर पहुॅचे तब  उन्हें बॅधाईयाॅ देकर मुख्यमंत्री के पद को सॅभालने का आग्रह किया, जिसे सुनकर श्री चतुर्वेदी ने काॅग्रेस नेताओं को जबाव दिया कि मैं एक शिक्षक और साहित्यकार होने के नाते ‘‘देवगुरू‘‘ के आसन पर विराजमान हॅू मेरा ओहदा घटाकर तुम ’’देवराज’’ के पद पर बैठाना चाहते हो, यह मुझे स्वीकार नहीं है। माखनलाल दादा के इस तरह के उत्तर देकर मुख्यमंत्री का पद स्वीकारे न जाने से बाद में रविशंकर शुक्ल को मुख्यमंत्री के रूप में कुर्सी पर बैठाया गया, चॅूकि यह जिक्र श्रीकांत जोशी की पुस्तक यात्रा पुरूष में भी किया गया है, इन्हीं महान कवि को आगे देश ने एक भारतीय आत्मा व साहित्य का देवता के रूप में सम्मान दिया।
राजस्थान की जयपुर रियासत का राणीला ग्राम चतुर्वेदीजी का आदिस्थान माना है जिसमें उनके प्रपितामह डूगरसिंह शास्त्री नर्मदापुरम (तत्कालीन होशंगाबाद) के बाबई नामक ग्राम में आकर बस गये थे। ’’आईने अकबरी’’ के अनुसार यह जिला मालवा सूबा का अंग था और बाबई को ओरंगजेब के बाद हवेली बािगड नाम से विख्यात था जिसमें गढ का राजा राज करता था। यही बाबई प्रख्यात कवि, पद्भूषण डाक्टर माॅखनलाल चतुर्वेदी का जन्मभूमि है और उनका जन्म चैत्रशुक्ल कामदा एकादशी, विक्रमी संवत 1946 दिनाॅंक-4 अप्रेल 1889 को पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र में दिन के ग्यारह बजे बाबई ग्राम में पण्डित नंदलाल चतुर्वेदी के यहाॅ माता सुन्दरीबाई के यहाॅ हुआ। इनके पिता नन्दलाल चतुर्वेदी एवं माता सुन्दरीबाई थे, जन्म के समय नामकरण संस्कार में इनका नाम मोहनलाल अभिज्ञेय प्राप्त हुआ किन्तु परिवारजनों ने मोहनलाल के स्थान पर माखनलाल नाम रखा जो आज एक भारतीय आत्मा के नाम से अपनी एक पृथक पहचान बनाये हुये है। चतुर्वेदी जी के सम्बन्ध में कहा जाता है कि वे आदिगौड ब्राम्हण और घूसावट चैबे थे। कालान्तर में यह ’’चैबे’’ शब्द हिन्दी कारणों से ’’चतुर्वेदी’’ में परिवर्ति हो गया जिसे अधिकांश परिवारों ने अपना लिया। इनका गोत्र वशिष्ठ है तथा इनका परिवार बाबई में पुरोहिती का व्यवसाय करते थे और इनकी बुआ चाहती थी कि माखनलाल भी पुरोहिती करें किन्तु पूत के पाॅव पालने में दिख जाते है ओर इनके द्वारा 1912 में सुबोधसिन्धु के हिन्दी संस्करण में शक्तिपूजा पर प्रकाशित लेख पर पुलिस ने उनपर राजद्रोह का आरोप लगाकर कार्यवाही शुरू की किन्तु माणिकचन्द जैन अधिवक्ता की बु;िमानी और कवि की कार्यकुशलता एवं सवधानी के कारण यह आरोप उन्होंने गलत साबित किये और वे इस उलझन से बच गये तथा घर पर ही संस्कृत, अंग्रेजी, बंगला, गुजराती, उर्दू और फारसी भाषा का ज्ञान प्राप्त किया।    
भारतीय साहित्य की यह शंखध्वनि बाल्यावस्था से ही प्रदीप्त हो उठी जब वे बालक माखनलाल के रूप में नर्मदा नदी के उस पार बसे ग्राम नांदनेर में अपने चाचा पण्डित बंशीधर के पास रहते हुये संस्कृत सीखी और भगवान कृष्ण के जीवन पर आधारित गोरखपुर प्रेस का ग्रंथ प्रेमसागर पहली बार पढ़कर हिन्दी साहित्य से परिचित हुये और इसे बार-बार पढ़कर आॅखों में अशुधारा बहाते थे। माखनलाल जी को बचपन में जितना प्रिय नांदनेर था उतना ही हिरनखेडा था, सिवनीमालवा था,जहाॅ इन्होंने स्वतंत्रतासंग्राम में भाग लिया ओैर क्रान्तििकारियों के साथ राष्ट्रप्रेम की ज्वाला मन में जाग्रत कर काॅग्रेस मे ंशामिल हुये। सुभाषचन्द बोस के जबलपुर आगमन पर माखनलाल चतुर्वेदी ने सन 1920 में अपना अखबार कर्मवीर की शुरूआत की और पहली ही बार सागर के पास रतौना नामक गाॅव में  2500 गायों के रोज कत्ल करने वाले कारख्चााने की नींव भारतीय पूंजीपतियों के पैसों से अंग्रेजों की मदद से डाले जाने से पूर्व उसे बंद कराकर अंग्रेजों को घुटने टेकने को मजबूर किया। ऐसे बहुआयामी प्रतिभा के धनी दादा माखनलाल चतुर्वेदी के जीवन पर लिखने का अवसर प्राप्त हुआ है। उनके द्वारा कर्मवीर के अलावा प्रभा पत्रिका का संपादन किया गया तथा युगचरण, हिमकिरीटनी, हिमतंरगनी, वेणुलो गूंजे धरा काव्यसंग्रह, साहित्य देवता,काजल, बीजुरी, समय के पाॅव, माॅ, गरीब इरादे, अमीर इरादे की रचना की गयी। 1943 मंें हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष बने, वही हिन्दी साहित्य का सबसे बडा देवपुरस्कार, हिमकिरीटनी के लिये दिया गया, वहीं 1954 में साहित्य अकादमी का प्रथम पुरस्कार उनकी कृति हिमतरंगनी को प्राप्त हुआ। उनकी अमरकृति अमरराष्ट्र उदण्ड राष्ट्र यह मेरी बोली, यह सुधार समझौते वाली भाॅति नहीं मुझे ठिठोली के लिये सागर विश्वविद्यालय ने सन 1959 में डीलिट की मानद उपाधि से विभूषित किया। भारत सरकार ने 1963 में उन्हें पद्मभूषण से अलंकृत किया किन्तु 10 सितम्बर 1967 को राजभाषा हिन्दी पर आघात करने वाले राजभाषा संविधान संशोधन विधेयक के विरोध में उनके द्वारा यह पद्मभूषण अलंकार सरकार को लौटा दिया।
30 जनवरी 1968 को नर्मदा माटी का यह सपूत, हिन्दी के राष्ट्रवादी कतियों का अंतिम मुकुट भी भारतमाता के चरणों में समर्पित हो गया, जिस दिन इन्होंने अपने प्राण त्यागे। वे हिन्दी के निराले और प्राणवान कवि ही नहीं कुलगुरू के रूप में अपने त्याग, समपर्ण की एक नयी इबारत लिख गये। हिन्दी साहित्यकारों, कवियों, लेखकों, और पत्रकारों को परोक्ष में ही नहीं प्रगट में इनसे प्रेरणा मिलती रहेगी, जो एक भारतीय आत्मा की उपाधि को कल्पित नहीं अपितु भारत की आत्मा के रूप में राष्ट्र की तरूणायी के लिये शताब्दियों तक उनका आव्हान कर डाक्टर, पदभूषण, दादा, कवि, साहित्यकार, क्रांतिकारी, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी जैसी अनेक विभूतियों से अलंकृत कर आजादी के बाद उनकी तिल तिल होने वाली शहादत को हिन्दी साहित्य के इतिहास में एक पावन अभिलेख बनकर रह गयी हैं। 

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