अन्ना ने इस देश की आत्मा को छू लिया है

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भ्रष्टाचार विरोधी जनांदोलन ने देश को एक सूत्र में बांधा

संजय द्विवेदी

अन्ना हजारे ने सही मायने में इस देश की आत्मा को छू लिया है। सच मानिए उनकी गांधी टोपी, बालसुलभ उत्साह, उनकी भारतीय वेशभूषा और बातों की सहजता कुल मिलाकर एक भरोसा जगाती हैं। अन्ना आज जहां हैं उसके पीछे कहीं न कहीं वह छवि जिम्मेदार है जो उन्हें महात्मा गांधी से जोड़ती है। इसलिए जब कांग्रेस के अहंकारी प्रवक्ता उनके बारे में कुछ कहते हैं, तो दर्द देश को होता है। अन्ना हजारे सही मायने में एक भारतीय आत्मा के रूप में उभरे हैं। उन्होंने देश की नब्ज पर हाथ रख दिया है।

कांग्रेस के दिशाहीन और जनता से कटे नेतृत्व की छोड़िए उन्होंने विपक्ष के भी नाकारेपन का लाभ उठाते हुए यह साबित कर दिया है कि लोकशाही की असल ताकत क्या है। जनता के मन में इस कदर उनका बस जाना और नौजवानों का उनके पक्ष में सड़कों पर उतरना, इसे साधारण मत समझिए। यह वास्तव में एक साधारण आदमी के असाधारण हो जाने की परिघटना है। हमारी खुफिया एजेंसियां कह रही थीं- ‘अन्ना को रामदेव समझने की भूल न कीजिए।’ किंतु सरकारें कहां सुनती हैं। पूरी फौज उतर पड़ी अन्ना को निपटाने के लिए। क्या कांग्रेस के प्रवक्ता, क्या मंत्री सब उनकी ईमानदारी और निजी जीवन पर ही कीचड़ उछालने लगे। लेकिन क्या हुआ कि तीन दिनों के भीतर देश के गृहमंत्री को लोकसभा में उन्हें ‘सच्चा गाँधीवादी’ बताते हुए ‘सेल्यूट’ करना पड़ा। समय बदलता है, तो यूं ही बदलता है।

राजनीतिक दलों के लिए चुनौतीः

अन्ना आज राजनीतिक दलों के लिए एक चुनौती और देश के सबसे बड़े यूथ आईकान हैं। वे लोकप्रियता के उस शिखर पर हैं जहां पहुंचने के लिए राजनेता, अभिनेता और लोकप्रिय कलाकार तरसते हैं। महाराष्ट्र के एक गांव राणेगण सिद्धि के इस आम इंसान के इस नए रूपांतरण के लिए आप क्या कहेंगें? क्या यह यूं हो गया ? सच है समय अपने नायक और खलनायक दोनों तलाश लेता है। याद कीजिए यूपीए-1 की ताजपोशी का समय जब मनमोहन सिंह, एक ऐसे ईमानदार आईकान के तौर पर प्रधानमंत्री पद की शपथ लेते हैं जो भारत का भविष्य बदल सकता है, क्योंकि वह एक अर्थशास्त्री के तौर पर दुनिया भर में सम्मानित हैं। आज देखिए उनकी ईमानदारी और अर्थशास्त्र दोनों औंधे मुंह पड़े हैं। अमरीका से हुए परमाणु करार को पास कराने के लिए अपनी जान लड़ा देने वाले अमरीका प्रिय प्रधानमंत्री के सहायकों की बेबसी देखिए वे यह कहने को मजबूर हैं कि अन्ना के आंदोलन के पीछे अमरीका का हाथ है। अमरीका की चाकरी में लगी केंद्र सरकार के सहयोगियों के इस बयान पर क्या आप हंसे बिना रह सकते हैं? लेकिन उलटबासियां जारी हैं। सबसे ईमानदार प्रधानमंत्री के राज में भ्रष्टाचार के रिकार्ड टूट रहे हैं, और विद्वान अर्थशास्त्री को प्रधानमंत्री बनाने की सजा यह कि महंगाई से जनता त्राहि-त्राहि कर रही है।

विपक्ष भी करता रहा निराशः

इस समय में तो विपक्ष भी आशा से अधिक निराश कर रहा है। प्रामणिकता के सवाल पर विपक्ष की भी विश्वसनीयता भी दांव पर है। यह साधारण नहीं है कि जिन राज्यों में विपक्षी दलों की सरकारें हैं वहां भी भ्रष्टाचार अपने चरम पर है। केरल में वामपंथियों को ले डूबने वाले विजयन हों, कर्नाटक के भाजपाई मुख्यमंत्री रहे वीएस येदिरेप्पा या उप्र की मुख्यमंत्री मायावती। सब का ट्रैक बहुत बेहतर नहीं है। शिबू सोरेन, लालूप्रसाद यादव और मुलायम सिंह यादव की याद तो मत ही दिलाइए। राज्यों की विपक्षी सरकारें लूट-पाट का उदाहरण बनने से खुद को रोक नहीं पायीं। ऐसे में राजनीतिक विश्वसनीयता के मोर्चे पर वे कांग्रेस से बहुत बेहतर स्थिति में नहीं हैं। कम से कम भ्रष्टाचार के मामले पर मुख्यधारा के राजनीतिक दलों का राष्ट्रीय चरित्र एक सरीखा है। सो इस राजनीतिक शून्यता और विपक्ष के नाकारेपन के बीच अन्ना आशा की एक किरण बनकर उभरते हैं। विपक्ष वास्तव में सक्रिय और विश्वसनीय होता तो अन्ना कहां होते? इसलिए देखिए कि सारे दल अपनी घबराहटों के बावजूद लोकपाल को लेकर किंतु-परंतु से आगे नहीं बढ़ रहे हैं। अन्ना हजारे के नैतिक बल और व्यापक जनसमर्थन ने उन्हें सहमा जरूर दिया है किंतु वे आज भी आगे आकर सक्षम लोकपाल बनाने के उत्सुक नहीं दिखते। राजनीतिक दलों का यही द्वंद देश की सबसे बड़ी पीड़ा है। जनता इसे देख रही है और समझ भी रही है।

टूटा राज्य का दंभः

सवाल यह भी नहीं है कि अन्ना सफल होते हैं या विफल किंतु अन्ना ने जनशक्ति का भान, मदांध राजनीति को करा दिया है। राज्य( स्टेट) को यह जतला दिया है उसका दंभ, जनशक्ति चाहे तो चूर-चूर हो सकता है। बड़बोले, फाइवस्टारी और गगनविहारी नेताओं को अन्ना ने अपनी साधारणता से ही लाजवाब कर दिया है। अगर उन्हें दूसरा गांधी कहा जा रहा है तो यह अतिरंजना भले हो, किंतु सच लगती है। क्योंकि आज की राजनीति के बौनों की तुलना में वे सच में आदमकद नजर आते हैं। यह सही बात है अन्ना के पास गांधी, जयप्रकाश नारायण और वीपी सिंह जैसा कोई समृद्ध अतीत नहीं है। उनके पास सिर्फ उनका एक गांव है, जहां उन्होंने अपने प्रयोग किए, उनका अपना राज्य है, जहां वे भ्रष्टों से लड़े और उसकी कीमत भी चुकायी। किंतु उनके पास वह आत्मबल, नैतिक बल और सादगी है जो आज की राजनीति में दुर्लभ है। उनके पास निश्चय ही न गांधी सरीखा व्यक्तित्व है, ना ही जयप्रकाश नारायण सरीखा क्रांतिकारी और प्रभावकारी व्यक्तित्व। वीपी सिंह की तरह न वे राजपुत्र हैं न ही उनका कोई राजनीतिक अतीत है। किंतु कुछ बात है कि जो लोगों से उनको जोड़ती है। उनकी निश्छलता, सहजता, कुछ कर गुजरने की इच्छा, उनकी ईमानदारी और अराजनैतिक चरित्र उनकी ताकत बन गए हैं।

हाथ में तिरंगा और वंदेमातरम् का नादः

आजादी के साढ़े छः दशक के बाद जब वंदेमातरम, इंकलाब जिंदाबाद, भारत माता की जय की नारे लगाते नौजवान तिरंगे के साथ दिल्ली ही नहीं देश के हर शहर में दिखने लगे हैं तो आप तय मानिए कि इस देश का जज्बा अभी मरा नहीं है। इन्हें फेसबुकिया, ट्विटरिया गिरोह मत कहिए- यह चीजों का सरलीकरण है। संवाद के माध्यम बदल सकते हैं पर विश्वसनीय नेतृत्व के बिना लोगों को सड़कों पर उतारना आसान नहीं होता। गौहाटी से लेकर कोलकाता और लखनऊ से लेकर हैदराबाद तक बड़े और छोटे समूहों में अगर लोग निकले हैं तो इसका मजाक न बनाइए। कुछ करते हुए देश का स्वागत कीजिए। युवा अगर देश जाति, धर्म,राज्य और पंथ की सीमाएं तोड़कर ‘भारत मां की जय’ बोल रहा है तो कान बंद मत कीजिए। सबको पता है कि अन्ना गांधी नहीं हैं, किंतु वे गांधी के रास्ते पर चल रहे हैं। वे विवेकानंद भी नहीं हैं पर विवेकानंद के अध्ययन ने उनके जीवन को बदला है। इतना तय मानिए कि वे हिंदुस्तान के आम और खास हर आदमी की आवाज बन गए हैं। अन्ना को नहीं उस भारतीय मनीषा को सलाम कीजिए जो अपने गांव की माटी और इस देश के आम आदमी में परमात्मा के दर्शन करता है। अन्ना के इस आध्यात्मिक बल को सलाम कीजिए। इस देश पर पड़ी गांधी की लंबी छाया को सलाम कीजिए कि जिनकी आभा में पूरा देश अन्ना बनने को आतुर है। अन्ना अगर गांधी को नहीं समझते, विवेकानंद को नहीं समझते तो तय मानिए वे देश को भी अपनी बात नहीं समझा पाते। उनका नैतिक बल इन्हीं विभूतियों से बल पाता है। उनको मीडिया, ट्यूटर और फेसबुक की जरूरत नहीं है, वे उनके मददगार हो सकते हैं किंतु वे अन्ना को बनाने वाले नहीं हैं। अन्ना के आंदोलन को बनाने वाले नहीं हैं। अन्ना का आंदोलनकारी व्यक्तित्व भारत की माटी में गहरे बसे लोकतांत्रिक चैतन्य का परिणाम है। जहां एक आम आदमी भी अपनी आध्यात्मिक चेतना और नैतिक बल से महामानव हो सकता है। गांधी ने यही किया और अब अन्ना यह कर रहे हैं। सफलताएं और असफलताएं मायने नहीं रखतीं। गांधी भी देश का बंटवारा रोक नहीं पाए, अन्ना भी शायद भ्रष्टाचार को खत्म होता न देख पाएं, किंतु उन्होंने देश को मुस्कराने का एक मौका दिया है। उन्होंने नई पीढ़ी को राष्ट्रवाद की एक नई परिभाषा दी है। खाए-अधाए मध्यवर्ग को भी फिर से राजनीतिक चेतना से लैस कर दिया है। एक लोकतंत्र के वास्तविक अर्थ लोगों को समझाने की कोशिशें शुरू की हैं। एक पूरी युवा पीढ़ी जिसने गांधी, भगत सिहं, डा.लोहिया, दीनदयाल उपाध्याय या जयप्रकाश नारायण को देखा नहीं है। उसे उस परंपरा से जोड़ने की कोशिश की है। अन्ना ने जनांदोलन और उसके मायने समझाए हैं।

सवाल पूछने लगे हैं नौजवानः

कांग्रेस के एक जिम्मेदार नेता कहते हैं कि यह फैशन है। अगर यह फैशनपरस्ती भी तो भी वह अमरीका की तरफ मुंह बाए खड़ी, एनआरआई बनने, अपना घर भरने और सिर्फ खुद की चिंता की करने वाली पीढ़ी का एक सही दिशा में प्रस्थान है। यह फैशन भी है तो स्वागत योग्य है क्योंकि अरसे बाद शिक्षा परिसरों में फेयरवेल पार्टियों, डांस पार्टिंयों और फैशन शो से आगे अन्ना के बहाने देश पर बात हो रही है,भ्रष्टाचार पर बात हो रही है, प्रदर्शन हो रहे हैं। नौजवान सवाल खड़े कर रहे हैं और पूछ रहे हैं। अन्ना ने अगर देश के नौजवानों को सवाल करना भर सिखा दिया तो यह भी इस दौर की एक बड़ी उपलब्धि होगी। अन्ना हजारे की जंग से बहुत उम्मीदें रखना बेमानी है किंतु यह एक बड़ी लड़ाई की शुरूआत तो बन ही सकती है। अन्ना की इस जंग को तोड़ने और भोथरा बनाने के खेल अभी और होंगें। सत्ता अपने खलचरित्र का परिचय जरूर देगी। किंतु भारतीय जन अगर अपनी स्मृतियों को थोड़ा स्थाई रख पाए तो राजनीतिक तंत्र को भी इसके सबक जरूर मिलेगें। क्योंकि अब तक हमारा राजनीतिक तंत्र भारतीय जनता के स्मृतिदोष का ही लाभ उठाता आया है। अब उसे लग रहा है कि हम ‘पांच साल के ठेकेदारों’ से पांच साल से पहले ही सवाल क्यों पूछे जा रहे हैं। इसलिए वे ललकार रहे हैं कि आप चुनकर आइए और फिर सवाल पूछिए। पर यह सवाल भी मौंजू कि एक अरब लोगों के देश में आखिर कितने लोग लोकसभा और राज्यसभा में भेजे जा सकते हैं? यानि सवाल करने का हक क्या संसद में बैठे लोगों का ही होगा, किंतु अन्ना ने बता दिया है कि नहीं हर भारतीय को सवाल करने का हक है। “हम भारत के लोग” संविधान में लिखी इन पंक्तियों के मायने समझ सकें तो अन्ना का आंदोलन सार्थक होगा और अपने लक्ष्य के कुछ सोपान जरूर तय करेगा।

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  1. अन्ना के आन्दोलन ने जे पी के आन्दोलन के दौरान उभरे कुछ अनुत्तरित प्रश्नों को फिर से जिन्दा कर दिया है. कांग्रेस के मंत्री कपिल सिबल जो कानून के बड़े ज्ञाता हैं लोगों से पूछ रहे हैं की अन्ना को संविधान के अंतर्गत ऐसा कोई अधिकार नहीं है की सरकारी लोकपाल की जगह जन लोकपाल बिल के लिए मांग करें. अब ‘विद्वान्’ कपिल सिबल को कौन बताये की संविधान में अध्याय तीन भी है जो देश के नागरिकों को अभिव्यक्ति का, संगठन का व किसी सरकारी निति का विरोध करने का अधिकार देता है. लगता है की कपिल सिबल कहीं से नक़ल टेप कर वकालत पास किये होंगे अन्यथा संविधान की इस महत्वपूर्ण व्यवस्था से अनजान न होते. लोकनायक जे पी के आन्दोलन के दौरान एक मांग राईट तो रिकाल भी उठी थी जिसके अनुसार एक बार चुने जाने के बाद किसी को पांच साल तक निर्बन्धन मुक्त राज की ताकत नहीं होगी और जन अपेक्षाओं पर खरा न उतरने पर मतदाताओं का एक निश्चित प्रतशत यदि उस जनप्रतिनिधि को वापस बुलाने की मांग करे तो उस स्थान पर दिब्र मतदान कराकर पुष्टि की जाये की लोग उस प्रतिनिधि का समर्थन करते हैं या नहीं. समर्थन न होने की दशा में उस सीट को खली घोषित करके दोबारा चुनाव कराया जाये. इससे लोगों को चुने जाने के बाद निरंकुश होने से रोका जाने में कुछ मदद मिलेगी. काले धन का सबसे ज्यादा दुरूपयोग चुनावों में होता है अतः चुनाव का सारा खर्च राज्य(सर्कार) को वहां करना चाहिए. कंपनियों को मेज के नीचे से राजनीतिक दलों को पैसा देने की बजे चेक से चंदा देने को कानूनी मान्यता बहाल की जाये जो इंदिरा गाँधी ने समाप्त करी थी.इसी प्रकार से चुनाव सुधर के लिए लिस्ट सिस्टम को भी लागू करने पर विचार होना चाहिए. एक और सुधार बहुत आवश्यक है. चुनाव में मतदाताओं की य्स्थ्संभव शतप्रतिशत हिस्सेदारी. इसके लिए वोटिंग मशीन को ऐ टी एम्/क्रेडिट कार्ड मशीन की तरह का बनाया जाये और वोटर कार्ड को ऐ टी एम्/ क्रेडिट कार्ड की तरह. इसमें बायो मीट्रिक फीचर्स दर्ज हों ताकि फर्जी मतदान संभव न हो सके.इन सभी सुधारों के साथ ही भ्रष्टाचार समाप्त हो सकेगा. केवल लोकपाल, कितना भी सशक्त क्यों न हो, सफल नहीं हो पायेगा. कपिल सिबल जैसे वकील इसकी ऐसी तैसी करने को हमेशा तत्पर रहेंगे.

  2. कभी कभी मैं सोचता हूँ की हम एक ही देश के निवासी हैं,पर हमारी विचार धाराएँ कितनी अलग अलग है.यहीं दो लेख हमारे सामने है ,एक तो यह और दूसरा इंजीनियर दिवस दिनेश गौड़ का.कितना अंतर ही इन दोनों लेखों में ? आखिर ऐसा क्यों है?.

  3. इन इरादों को बदलने का तू सोच मत
    नाव है तूफ़ान में, अफवाह पर यकीं मत कर
    ये दौर परिवर्तन को देखने को मचल रहा है जब
    तू अब ऐसे में कानून का – वक़्त का इंतज़ार मत कर
    देर तो पहले ही बहुत हो चुकी है
    अब और हुई
    तो क्रांति की चिंगारी का फिर सामना तू कर
    लेकिन सदियाँ तेरे नाम को बदनाम करें
    ऐसा कुछ ना हो वैसा प्रयास कर
    तू कर सकता है
    तू बदल सकता है
    मौका है
    केवल लोकतंत्र का ही नहीं
    तू दिलों का राजा बन सकता है
    बदल ले बदल ले
    आज हिंदुस्तान तुझमे हिंदुस्तान की आस्था का संबल देख रहा है …….रवि कवि

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