महत्वपूर्ण लेख राजनीति

अन्ना हजारे, अरविन्द केजरीवाल और राजनैतिक विकल्प

दिनांक १८ अगस्त मंगलवार की शाम को मैं संयोग बस Constitution क्लब पहुँच गया था।उड़ती उड़ती खबर मिली थी कि वहाँ अन्ना हजारे आने वाले हैं।अन्ना हजारे और अरविन्द केजरीवाल के सम्बन्ध में मीडिया में बहुत सी परस्पर विरोधी खबरे आ रही थीं।आ रहा था कि अन्ना और केजरीवाल में खटपट हो गयी है। अन्ना हजारे नहीं चाहते कि भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन वाले राजनैतिक पार्टी बनाए उनका शायद यह मानना था कि राजनीति में जाने के बाद इस आन्दोलन का भी वही हस्र होगा जो जय प्रकाश के आन्दोलन का हुआ।अतः सोचा कि इस संयोग का लाभ उठाना चाहिए।उम्मीद थी कि शायद कुछ सवाल जवाब भी हो और अपनी बात कहने का भी मौका मिल जाए।पर सब कुछ अपनी सोच के अनुसार तो होता नहीं।वहाँ भी कुछ ऐसा ही हुआ।

अन्ना के आने का समय छः बजे बताया गया था।मैं वहाँ उसके पहले ही पहुंच गया था। अन्ना हजारे सात बजे के बाद पहुंचे।इन्तजार की घड़ियाँ लम्बी हो गयी थी,पर समय बेकार नहीं गया था,क्योंकि वहाँ बाबू जगजीवन राम की स्मृति में एक गोष्ठी पहले से चल रही थी और अनजाने में ही सही उसका लाभ उठाने का भी मौका मिल गया था।

हाँ तो अन्ना हजारे करीब सवा सात बजे मंच पर आये।उनके साथ मंच पर कोई जाना पहचाना चेहरा नजर नहीं आया।न किरण बेदी और न उन जैसे अन्य जो राजनैतिक पार्टी बनाए जाने के विरोध में हैं और न अरविन्द केजरीवाल और उनके साथी,जो राजनैतिक विकल्प के पक्ष में हैं।मैं मंच के बहुत नजदीक था,अतः लग रहा था कि कुछ प्रश्न पूछने का मौका मिल जाएगा,पर भाषण के प्रारंभ में ही निराशा हुई,,जब अन्ना हजारे ने साफ़ साफ़ शब्दों में कह दिया कि वे केवल अपनी बात कहेंगे।उनसे न कोई प्रश्न करेगा और न वे उसका उत्तर देंगे।उन्होंने यह भी कहा कि अगर किसी ने शोर मचाने का प्रयत्न किया तो वे मंच छोड़ कर चले जायेंगे।इसके बाद तो श्रोताओं के लिए शांति बनाए रखने के अतिरिक्त अन्य कोई चारा नहीं रहा।

अन्ना हजारे ने अपने दस बारह मिनट के भाषण में जो कहा उसका सारांश यही था कि न तो वे कभी चुनाव लड़े हैं और न अब चुनाव के मैदान में कूदना चाहते हैं।उन्होंने अपना पुराना राग दुहराया कि चुनाव में एक एक उम्मीदवार के पीछे करोड़ों रूपये खर्च होते हैं,वह पैसा कहाँ से आयेगा।

दूसरी बात जो उन्होंने कही वह यह थी कि जब परिवर्तन लाने के लिए जेपी के नेतृत्व में लोगों ने चुनाव लड़ा तो उसका हस्र क्या हुआ?लालू जैसे भ्रष्ट नेता पैदा हो गये।प्रश्न पूछने की ईजाजत नहीं थी, नहीं तो मैं अवश्य पूछता कि एक बार परीक्षा में असफल होने के बाद क्या दूसरी बार परीक्षा नहीं दी जाती?क्या जेपी के समय में की गयी गलतियोंको सुधारा नहीं जा सकता है? ऐसे भी सम्पूर्ण दोष लालू या उनके समक्ष जेपी के आन्दोलन के साथ पैदा हुए नेताओं पर नहीं जाता।लालू हो या नितीश या शरद यादव या अन्य जो जेपी के आन्दोलन की देन थे ,ये तो बाद में महत्त्व प्राप्त किये।असल में तो स्वार्थ का नंगा नाच उनलोगों ने दिखाया जिनसे पथ प्रदर्शन की अपेक्षा थी।लालू १९९० में मुख्य मंत्री बने थे ,जबकि जनता पार्टी का प्रयोग १९८० में ही समाप्त हो गया था।आधुनिक भारत के इतिहास के उन काले पृष्ठों से क्या यही सबक मिलता है कि अब वैसा प्रयोग किया ही नहीं जाए और जनता को इन भूखे भेडियों के चंगुल में ही रहने दिया जाए?क्या यह सबक नहीं लिया जा सकता कि उन गलतियों को न दुहराते हुए आगे बढ़ा जाए?

इसके बाद अन्ना हजारे ने साफ़ साफ़ शब्दों में कहा कि अगर कोई पार्टी बनाता है तो वे उसका हिस्सा नहीं बनेंगे।और न उस पार्टी के लिए प्रचार करेंगे।यह अवश्य है कि वे देश भर में घूमेंगे और जनता को जागृत करेंगे।उनसे कहेंगे कि आपलोग ईमानदार और कर्मठ व्यक्तियों को वोट देकर संसद में भेजे ,जिससे वे लोग वहाँ जाकर भ्रष्टाचार के विरुद्ध आवाज उठायें और जन लोकपाल बिल पारित कराने में मदद करें।यह बात अन्ना हजारे ने अवश्य कही कि जो लोग राजनैतिक विकल्प दे रहे हैं उनसे उनका कोई विरोध नहीं है।वे लोग अपने ढंग से भ्रष्टाचार मिटाने का प्रयत्न करेंगे और मैं अपने ढंग से।मेरे विचार से अन्ना हजारे ने इस वक्तव्य में दो महत्त्व पूर्ण बातों पर ध्यान नहीं दिया कि जब पार्टियाँ स्वयं भ्रष्टाचार में निमग्न हैं तो ऐसा उम्मीदवार आयेगा कहाँ से।अगर गलती से कोई आ भी आ गया तो वह पार्टी अनुशासन में बंधा होने के कारण वही करेगा जो आलाकमान की इच्छा होगी।मान लिया जाए कि कुछ निर्दलीय उम्मीदवार वैसा निकले तब भी अकेले या एक दो अन्य को साथ लेकर वे क्या कर पायेंगे?

भाषण समाप्त होते ही वे दनदनाते हुए वहाँ से निकल गए।उन्होंने मुड कर भी देखने का प्रयत्न नहीं किया कि आखिर उनके श्रोताओं की प्रतिक्रिया क्या है।अगर अन्ना हजारे मुड कर देखते तो उन्हें भान हो जाता कि लोग कितने छले हुए महसूस कर रहे थे।

दूसरे दिन भंग टीम अन्ना के सदस्यों के साथ साथ अन्य गण मान्य व्यक्तियों के साथ अन्ना हजारे की मीटिंग उसी जगह सुबह में ही शुरू हो गयी। मीटिंग करीब सात घंटे तक चली। चूंकि यह मीटिंग आम जनता की मीटिंग नहीं थी,अतः मेरे जैसे लोगों का उसका हिस्सा बनने का प्रश्न ही नहीं उठता ।मीटिंग का जो समाचार आया उससे पता चला कि उस सभा में बहुमत राजनैतिक विकल्प के पक्ष में था,पर अन्ना हजारे ने बहुमत के विचारोंको वीटों करते हुए वही राग दुहराया जो उन्होंने अपने पिछले शाम के भाषण में कहा था,पर उस सभा से बाहर निकलने के बाद तो उन्होंने यहाँ तक कह दिया कि बनने वाली पार्टी में उनका नाम नहीं आएगा और न किसी पत्राचार में उनके नाम का उल्लेख होगा।पर उस मीटिंग के अंत में उन्होंने जो बाते कही थी उनका एक वीडियो दूसरे ही दिन यूं ट्यूब पर आ गया।उसमे अन्ना हजारे साफ साफ़ यह कहते हुए दिखाई पड रहे हैं कि भारत के निर्माण और विकास के लिए दो बातों की जरूरत है।एक तो विकास के कामों को गति देनी पड़ेगी और दूसरे भ्रष्टाचार को मिटाना होगा।मैं इस आन्दोलन को बहुत दिनों से चला रहा हूँ।पिछले डेढ़ सालों से जन लोकपाल के लिए आन्दोलन चल रहाहै।अब इस आन्दोलन के दो हिस्से बन गये हैं। एक हिस्सा राजनीति में जाएगा और दूसरा आन्दोलन चलाता रहेगा।दोनों हिस्से महत्त्व पूर्ण हैं।देश को दोनों की आवश्यकता है।भारत को भ्रष्टाचार मुक्त करने और पूर्ण परिवर्तन के लिए त्याग और बलिदान की आवश्यकता है।।मैं मानता हूँ कि देश का युवक वर्ग इसके लिए सामने आयेगा और भ्रष्टाचार मुक्त भारत के निर्माण में मदद करेगा।

एक अन्य बात भी सामने आयी।।वह है अरविन्द केजरीवाल का यह वक्तव्य कि अन्ना तो हमारे गुरु हैं और हमारे ह्रदय में निवास करते हैं। ऊनको मैं अपने दिल से कैसे निकाल सकता हूँ।वे तो हमेशा वहाँ विराजमान रहेंगे।अरविन्द केजरीवाल के इस वक्तव्य ने मुझे एक पुरानी कहानी याद दिला दी।

कविवर सूरदास भगवान कृष्ण के बहुत बड़े भक्त थे।एक बार वे कुएं में गिर पड़े और बचाने के लिए गुहार लगाई।कहा जाता है कि भगवान कृष्ण स्वयं उनको निकालने के लिए पहुँच गए।कविवर को कुएं से निकालने के बाद वे बांह छुडा कर जाने लगे।कविवर को भान हो गया कि उनको कुएं से निकालने वाला कोई अन्य नहीं ,बल्कि स्वयं उनके आराध्य हैं।कहा जाता है कि इस दोहे की रचना कविवर ने उसी समय की थी,

बांह छुडाये जात हो ,निर्बल जानि को मोहि ।

ह्रदय से जब जाहुगे मर्द बखानब तोहि।

अरविन्द केजरीवाल की हालत कुछ वैसी ही लगती है।

————–

ऐसे तो मैं अप्रैल २०११ के अन्ना के अनशन के साथ ही इस आन्दोलन की ओर आकृष्ट हो गया था,पर अगस्त २०११ के अनशन वाले आन्दोलन से मैं बहुत प्रभावित हुआ था।अन्ना हजारे की लोकप्रियता और उनके प्रति लोगों की श्रद्धा मैंने देखी थी।मैं यह मानता हूँ कि आन्दोलन के इस स्वरूप की यह पराकाष्ठा थी। इसके आगे कुछ भी नहीं हो सकता था।अब आवश्यकता थी तो देश भर में घूम घूम कर अलख जगाने की और लोगों के बीच जागरूकता फैलाने की।

जब मुम्बई में यही कार्यक्रम दुहराया जाने वाला था,उस समय मैं विदेश में था।मेरे पास टीम अन्ना के साथ संपर्क करने का कोई साधन नहीं था।और न उम्मीद थी कि कोई मेरे जैसे अदने की बात सुनेगा और उसको समझेगा।फिर भी अपने विचारों से अवगत कराने के लिए और विकल्प के लिए सुझाव देने के लिए मैंने एक मेल किरण बेदी को भेज दिया था। मैंने उसमे लिखा था कि आपलोगों का यह कदम गलत है इसमे आप लोगों को वैसा सहयोग नहीं मिलेगा लोग इसको आपके अगस्त वाले प्रदर्शन से तुलना करेंगे और इसको असफल मानेंगे। हो सकता है की मेरे जैसे मत रखने वाले अन्य लोग भी हों और उन्होंने भी ईसी तरह का सलाह दिया हो,पर वे लोग अपने रास्ते पर चले और आगे मुंबई में जो हुआ ,वह सर्व विदित है

दिल्ली में २६ जुलाई से अनशन ,वह भी अन्ना हजारे के सहयोगियों द्वारा।यह कदम मेरी समझ से परे था।फिर भी मुझे लगा कि शायद ये लोग अपने आलोचकों को बताना चाहते हैं कि हमलोग अन्ना हजारे के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ नहीं करना चाहते और स्वयं बलिदान हेतु प्रस्तुत हैं।।अरविन्द केजरीवाल मधुमेह के रोगी हैं।मैं जानता था कि मधुमेह में उपवास आत्मघाती सिद्ध हो सकता हैं मैं यह भी जानता था कि इन सबका न सरकार पर कोई प्रभाव पड़ेगा और न जनता ही इसमें उतने उत्साह पूर्वक भाग लेगी।मैं दूसरे दिन वहाँ गया था मैंने वहाँ मौजूद कार्य कर्ताओं से कहा था कि यह गलत कदम है।इससे कोई लाभ नहीं होगा।उसी शाम मैंने अरविन्द केजरीवाल को एक पत्र भी लिखा था।बाद में वह एक खुले पत्र के रूप में टाईम्स आफ इंडिया में भी प्रकाशित हुआ था।उसमे मैंने साफ़ साफ़ लिखा था कि राजनैतिक विकल्प को छोड़कर इन गुंडों से निपटने का अन्य कोई मार्ग नहीं है।अगर आपलोग अपनी बात पर अड़े रहे और खुदा न खास्ता कहीं अन्ना हजारे भी इस अनशन में शामिल हो गए तो आपलोग शहीद होने के लिए तैयार हो जाईये सरकार ने तो शायद आपलोगों के लिए कफ़न का भी इंतजाम कर रखा है।उसके बाद होने वाले उपद्रवो के लिए सरकार तैयार नजर आ रही है।कटाक्ष तो चल ही रहा था कि अगर जन लोकपाल बिल पारित कराने का इतना ही शौक है तो चुनाव लड़कर संसद में क्यों नहीं आ जाते।

हुआ वही जिसका डर था।इस बार सरकार के कानों पर जूँ तक नहीं रेंगी। ३ अगस्त को बिना शर्त अनशन समाप्त करने की घोषणा के साथ जो अगला कार्यक्रम तय हुआ कि अब हम राजनैतिक विकल्प देंगे, तो मुझे लगा कि यह अनशन वाला कार्यक्रम जनता को फिर से याद दिलाने और सरकार की वेरूखी का पर्दाफास करने के लिए था,जिससे अगले कार्यक्रम की रूप रेखा तैयार हो सके।उस योजना के कार्यावयन के लिए आगे की रूप रेखा भी बनने लगी थी।लगता था कि वे लोग उस राजनैतिक विकल्प को सामने लायेंगे ,जिसकी जनता वर्षों से प्रतीक्षा कर रही थी। यह भी लगने लगा था कि जय प्रकाश नारायण के सम्पूर्ण क्रांति वाले आन्दोलन की असफलता से सबक लेकर ये लोग सावधानी पूर्वक आगे बढ़ेंगे और उन गलतियों को नहीं दुहराएंगे ,जो उस समय की गयी थी।

पर यह क्या?कुछ ही दिन बीते होंगे कि राजनैतिक विकल्प के विरोध में आवाजें उठने लगी।उसमे सबसे मुखर किरण बेदी और संतोष हेगड़े थे।ऐसे उन लोगों के विरोध का कुछ कुछ कारण मेरी समझ में आ रहा था,पर मैं सोचता था कि अगर बहुमत राजनैतिक विकल्प के पक्ष में है तो देर सबेर वे भी इसमे शामिल हो ही जायेंगे। उसी समय जी समाचार चैनल ने एक सर्वे भी कराया था जिसमे देश के कोने कोने से लोगों ने राजनैतिक विकल्प के पक्ष में वोट दिया था।आई।ए।सी। ने अपना अलग से सर्वे भी कराया, उसमे भी जी वाले परिणाम की पुनरावृति हुई। अब तो लगने लगा था कि नया विकल्प आकर ही रहेगा। पर हुआ तो कुछ और ही।अन्ना हजारे ने तो सबके विचारों की अवहेलना करते हुए वीटो का इस्तेमाल कर दिया।पता नहीं उनकी सोच क्यों बदल गयी?जिन लोगों ने ३ अगस्त को जंतर मंतर के मंच से दिया हुआ उनका भाषण नहीं सुना होगा या उसका लाइव ब्रोडकास्ट नहीं देखा होगा ,वे तो यह कह सकते हैं कि शायद अन्ना हजारे ने ऐसा कहा ही नहीं हो,पर अन्ना हजारे अपने लाखों समर्थकों और कार्यकर्ताओं को अपने बदलने का क्या कारण बताएँगे?