विविधा

अन्ना हजारे, एनजीओ राजनीति और मीडिया का कटु सत्य

जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

अन्ना हजारे वायदे के मुताबिक आज सुबह 10 बजे अनशन तोड़ देंगे और अपने ठीया पर चले जाएंगे। अन्ना हजारे का अनशन निश्चित रूप से एक सकारात्मक अनशन था। यह अनशन नव्य उदार राजनीति की दबाब की राजनीति का हिस्सा है। नव्य उदार राजनीति अनेक काम जनता के दबाब से करती है।सत्ता पर्दे के पीछे रहती है और आंदोलनकारी आगे रहते है। यह पॉलिटिक्स फ्रॉम विलो का खेल है। आम तौर पर जमीनी राजनीति प्रतिवादी होती है रीयलसेंस में। लेकिन नव्य उदार परिप्रेक्ष्य में काम करने वाले संगठनों के द्वारा सत्ता,संगठन और आंदोलन का दबाब की राजनीति के लिए इस्तेमाल हो रहा है। अन्ना हजारे का आमरण अनशन उसका ही हिस्सा है।

अन्ना हजारे ने जो कहा और किया है उस पर कम से कम इस आंदोलन के संदर्भ में गंभीरता के ताथ विचार करने की जरूरत है। अन्ना का मानना है लोकपाल बिल के लिए जो कमेटी बने उसका प्रधान किसी ऐसे व्यक्ति को बनाया जाए जो अ-राजनीतिक हो। आयरनी यह है कि अन्ना की तरफ से सह-अध्यक्ष के रूप में शांतिभूषण का नाम दिया गया जो आजीवन राजनीति करते रहे हैं ,देश के कानून मंत्री रहे हैं। वे वाम ऱूझान की राजनीति करते रहे हैं। अतः अन्ना की कथनी और करनी में अंतर है।

दूसरी बात यह कि एनजीओ की राजनीति करने वाले संगठनों में सूचना अधिकार रक्षा आंदोलन से जुड़े केजरीवाल भी राजनीति कर रहे हैं। यह बात दीगर है कि वे किसी दल से जुड़े नहीं हैं। जनाधिकार,मानवाधिकार आंदोलनों से जुड़े प्रशांतभूषण पेशे से वकील है लेकिन मानवाधिकार राजनीति से जुड़े हैं। हां संतोष हेगडे राजनीति से जुड़े नहीं हैं। उससे भी बडा सवाल यह है कि एनजीओ वाले जिस अ-राजनीति की राजनीति की हिमायत करते हैं उसका लक्ष्य भी राजनीति है।

भारतीय लोकतंत्र में नामांकित लोकतंत्र नहीं चलता जैसा अन्ना हजारे और उनके जैसे समाजसेवी सोच रहे हैं। वे जानते हैं कि अमेरिका में सिविल सोसायटी आंदोलन बहुत ताकतवर है लेकिन वे लोकतंत्र में चुनाव नहीं जीत पाते।सिविल सोसायटी आंदोलन का आर्थिक स्रोत है कारपोरेट घराने। अन्ना हजारे और उनके समर्थकों को राजनीति की गंदगी को साफ करना है तो उन्हें चुनाव लड़ना चाहिए। चुनाव लड़कर ईमानदार छवि के लोगों को जिताना चाहिए। वे यह भी देखें कि आम जनता कितनी उनकी सुनती है ? कितना उनके साथ है ?यह भी तय हो जाएगा कि मोमबत्ती मार्च और जनता के मार्च में कितना साम्य और बैषम्य है ? मोमबत्ती वाले युवा कितने टिकाऊ हैं ? कितने संघर्षशील है ?

 

अन्ना हजारे जानते हैं तथाकथित सिविल सोसायटी के नेतागण सिर्फ मीडियावीर हैं। जनता में बहुमत का समर्थन पाना उनके बूते के बाहर है। लोकतंत्र को हम सिविल सोसायटी के नाम पर ऐसे लोगों के रहमोकरम पर नहीं छोड़ सकते जिनकी कोई राजनीतिक जिम्मेदारी नहीं है।भ्रष्टाचार के खिलाफ बाबू जयप्रकाश नारायण का जनता पार्टी का प्रयोग पूरी तरह फेल हुआ है। केन्द्र में सत्ता मिलने के बाबजूद जनता पार्टी की सरकार भ्रष्टाचार के खिलाफ लोकपाल बिल पास नहीं करवा पायी। उस सरकार में स्वयं शांतिभूषण भी थे। आज वही शांतिभूषण कह रहे हैं कि हम 1978 का लोकपाल बिल पास कराना चाहते हैं। अजब बात है जब स्वयं सत्ता में थे तो कर नहीं पाए और अब दूसरों के कंधे पर बंदूक रखकर चलाना चाहते हैं।

 

अन्ना हजारे जानते हैं राजनीतिक दलों में वामपंथियों ने लंबे समय से लोकपाल बिल के दायरे में प्रधानमंत्री को भी शामिल करने की मांग की थी,उस समय इसका सभी ने विरोध किया। यहां तक बाबू जयप्रकाश नारायण भी पीछे हट गए।भाजपा और कांग्रेस ने भी विरोध किया था। खैर अब देखना होगा कि वामदलों की लोकपाल बिल के बारे में एक जमाने में सुझायी सिफारिशों के अलावा कौन सी नई चीज है जिसे नयी कमेटी सामने लाती है।

अन्ना हजारे का टेलीविजन चैनलों से जिस तरह धारावाहिक कवरेज हुआ है वह अपने आप में खुशी की बात है लेकिन इस कवरेज में एक बात साफ निकलकर आयी है लोग भ्रष्टाचार से दुखी हैं। वे इससे मुक्ति की आशा में ही आए थे,लेकिन लोकपाल बिल का आम जीवन में व्याप्त भ्रष्टाचार से कोई संबंध नहीं है। इसका संबंध जन प्रतिनिधि के भ्रष्टाचार से है। सरकारी अफसरों के खिलाफ भ्रष्टाचार विरोधी ढ़ेर सारे कानून आज भी हैं और सबसे ज्यादा भ्रष्ट कौन हैं ? हमारे आईएएस-आईपीएस अफसरान ।

विगत 60 सालों में भ्रष्ट अफसरों की एक पूरी पीढ़ी पैदा हुई है। यह पीढ़ी भ्रष्टाचार विरोधी कानूनों के होते हुए पैदा हुई है। इनसे भी ज्यादा करप्ट हैं देशी-विदेशी कारपोरेट घराने जो येन-केन प्रकारेण काम निकालने के लिए खुलेआम भ्रष्ट तरीकों का इस्तेमाल करते हैं। कारपोरेट भ्रष्टाचार पर अन्ना हजारे ने कोई मांग क्यों नहीं उठायी ? अन्ना जानते हैं कि सरकारी बैंकों का 80 हजार करोड़ रूपया बिना वसूली के डूबा पड़ा है और उसमें बड़ी रकम कारपोरेट घरानों के पास फंसी पड़ी है। क्या कोई समाधान है जन लोकपाल बिल में ?कारपोरेट करप्शन के 2 जी स्पेक्ट्रम मामले में हाल के बरसों में टाटा-अम्बानी आदि का नाम आया है। क्या राय है अन्ना हजारे की ? किसने हल्ला मचाया करपोरेट लूट के खिलाफ ? राजनीतिक दलों ने।

 

देश के एनजीओ आंदोलन की धुरी है देशी-विदेशी कारपोरेट घरानों का डोनेशन। इसके जरिए विभिन्न स्रोतों से 5 हजार करोड़ रूपये से ज्यादा पैसा विदेशों से एनजीओ संगठनों को आ रहा है । क्या गांधी के अनुयायियों को यह पैसा लेना शोभा देता है ? गांधी ने भारत में आंदोलन के लिए विदेशी धन नहीं लिया था। लेकिन एनजीओ आंदोलन,सिविल सोसायटी आंदोलन , तथाकथित गांधीवादी,मानवाधिकारवादी,पर्यावरणपंथी संगठन विदेशी फंडिंग से चल रहे हैं।

सवाल यह है कि वे देश की जनता की सेवा के लिए यहां की जनता से चंदा लें,विदेशी ट्रस्टों,थिंकटैंकों,कारपोरेट धर्मादा दानदाता संस्थाओं से चंदा क्यों लेते हैं ? क्या यह गांधीवादी राजनीति के साथ राजनीतिक भ्रष्टाचार नहीं है ?यदि है तो अन्ना हजारे सबसे पहले एनजीओ संगठनों को विदेशी धन लेकर संघर्ष करने से रोकें। ध्यान रहे एनजीओ को विदेशी धन ही नहीं आ रहा , राजनीति करने के विदेशी विचार भी सप्लाई किए जा रहे हैं। वे विदेशी राजनीति की भारतीय चौकी के रूप में काम कर रहे हैं। काश अन्ना उसे रोक पाते !