क्या आप सचमुच जा रहे हैं?

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संस्मरण

सन 1961 में मैंने असम के बराक घाटी स्थित सिलचर के जी.सी. कॉलेज में व्याख्याता के पद पर योगदान दिया था। हमारे कॉलेज के प्राचार्य प्रोफेसर डीएन राय दर्शन शास्त्र के विद्वान थे। अनेक पुस्तकों के लेखक थे। उन्होंने बच्चों के लिए भी कई पुस्तिकाएँ लिखी थी। वे इन पुस्तिकाओं का भारतीय भाषाओं में अनुवाद कराना चाहते थे। बांग्ला विभाग के प्रोफेसर अंशुमान भट्टाचार्य बांग्ला में अनुवाद कर रहे थे। उन दिनों उस अंचल में हिन्दी के जानकार लोगों की संख्या नगण्य थी। हमारे कॉलेज में मेरे अलावे प्रो कैलाश नाथ एकमात्र हिन्दी भाषी थे। स्थानीय स्कूलों में नियुक्त हिन्दी शिक्षक भी ठीक से हिन्दी बोल नहीं पाते थे। एक दिन प्रिंसिपल साहब ने एक पुस्तिका का मुझे हिन्दी में अनुवाद करने का अनुरोध किया। मैंने सहर्ष स्वीकार कर लिया। उसके बाद उन्होने पाण्डुलिपि मेरे हवाले कर दी।
उस समय मैं असम राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के स्थानीय प्रमुख श्री दत्तात्रेय मिश्र के साथ रहता था। एक दिन श्री मिश्र ने मुझे बताया कि प्रो. अंशुमान से उनकी भेंट हुई थी,बातों बातों में मेरा जिक्र आया था, तो उन्होंने बता दिया था कि इन दिनों मैं उनके साथ रह रहा हूँ। इसके एक दिन बाद ही सुबह को प्रिंसिपल साहब का चपरासी उनका एक छोटा सा नोट लेकर आया। फ्रिंसिपल साहब ने यह कहते हुए अपनी पांडुलिपि वापस चाही य़ी कि कुछ तथ्य समय के साथ बदल गए हैं। उन्हें बदलना है। मुझे दत्तात्रेयजी की बातें याद आईं। मैं समझ गया कि अंशुमान ने प्राचार्य महोदय के मन में आशंका पैदा कर दी है कि दत्तात्रेय मिश्र की प्ररोचना से उनकी किताब के साथ छेड़छाड़ की जा सकती है।
मुझे अपमान सा लगा। मैंने उससे कहा, कि प्रिंसिपल साहब को बता देना कि मैं एक घंटे बाद उनके आवास पर उनसे मिलूँगा। उसने जोर देकर कहा कि उसे निर्देश है कि पांडुलिपि साथ में लेकर ही आए। पर मैं अपनी बात पर कायम रहा। क्योंकि मैं उनके साथ मिलकर अपनी भावनाएँ बताना चाहता था। अपना प्रतिवाद व्यक्त करना चाहता था। जब मैं प्राचार्य आवास पर पहुँचा तो चपरासी ने बताया कि प्रिंसिपल साहब कहीं बाहर गए हैं और कह गए हैं कि मैं आऊँ, तो पाण्डुलिपि उसके हवाले कर दूँ। मैं समझ गया कि वे मेरे सामने होने से बचना चाहते हैं। इसलिए जानबूझकर बाहर निकल गए हैं। बुरा लगा, पर अपमान जैसा नहीं लगा. शायद प्रिंसिपल साहब की छवि मेरे दिमाग में अच्छी थी इसका ही असर था। मैंने मान लिया था कि अंशुमान ने उनके कान भरे और सरल व्यक्ति होने के कारण प्रभावित हो गए थे। मन मसोसकर मैंने पाण्डुलिपि चपरासी के हवाले कर दी और वापस आ गया।
मैंने सोचा था कि प्राचार्य महोदय से मुलाकात होने पर मैं उनसे पांडुलिपि वापस लिए जाने की वजह जानना चाहूँगा । पर मैंने पाया कि वे मुझसे कतराने लगे हैं। वे मेरे अभिवादन का उत्तर नहीं देते। तो मैंने भी अभिवादन करना बन्द कर दिया। अब मुझे आशंका हो रही थी कि वे मुझे परेशान करेंगे। पर वैसा कुछ भी नहीं हो रहा था। बस हमारे बीच अबोला कायम हो गया, जैसे संयुक्त परिवार में हुआ करता है। मेरे प्रति उनके आचरण में कहीं नाराजगी की झलक नहीं थी। बस, न मैं उनको नमस्ते करता, ना वे मुझसे मुखातिब होते।
अन्त में वह दिन आया जब मुझे बिहार के सीवान के कॉलेज से नियुक्ति पत्र मिला। मैंने सिलचर छोड़ने का फैसला लिया। कायदे से मुझे तीन महीने की अग्रिम सूचना या तीन महीनों का वेतन जमा करना होता। पर प्राचार्य महोदय ने कोई अड़ंगा नहीं डाला।
अन्तिम दिन कॉलेज के छात्रों की ओर से मेरी विदाई का औपचारिक आयोजन हुआ। उसमें सहकर्मियों तथा छात्रों के द्वारा भावुकतापूर्ण वक्तव्य पेश किए गए। प्राचार्य महोदय उपस्थित थे। उन्होंने भी औपचारिक भाषण दिया था। bfb
आयोजन के बाद मैं प्राचार्य कक्ष में relieving letter लेने गया। वे बहुत सदाशयता से मिले। मेरी तारीफ की, विदा समारोह में छात्रों एवम् मेरे सहकर्मियों द्वारा व्यक्त की गई भावनाओं का उल्लेख करते हुए उन्होंने मेरी प्रशंसा की। मुझे अपनी भड़ास निकालने का अवसर मिला, मैंने कहा, लेकिन आप तो मुझे अच्छा व्यक्ति नहीं समझते हैं। उन्होंने झेंपते हुए कहा, नहीं नहीं ऐसी कोई बात नहीं है। तो मैंने कहा, फिर आपने मुझसे बात करना क्यों बन्द किया था उनके चेहरे पर खिसियानी मुस्कान उभड़ आई। फिर मैंने झुककर उनके पाँव छुए और उन्होंने मेरी पीठ सहलाई। relieving letter लेकर मैं बाहर निकला , तो वाणिज्य विभाग के प्रोफेसर रमेन बाबू को अपने इन्तजार में खड़ा पाया। उन्होंने मुझसे पूछा, सचमुच जा रहे हैं? मैंने कुछ नहीं कहा। सर झुकाकर खड़ा हो गया। कुछ पलों के बाद रमेन बाबू ने कहा, जाइए। मैं आगे बढ़ गया।

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