व्यंग्य बाण : दर्द का हद से गुजरना है…

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विजय कुमार

दुनिया में शायद ही कोई हो, जिसे कभी दर्द का अनुभव न हुआ हो। बूढ़ों में सिर, हाथ, पैर या पूरे शरीर का दर्द, बच्चों में विद्यालय न जाने के लिए पेट का दर्द और युवाओं के दिल में दर्द प्रायः देखने में आता हैं; पर लेखकों को एक विशेष प्रकार का दर्द होता है, जिसके लिए कोई नाम अब तक निर्धारित नहीं हुआ।

बात कुछ दिन पहले की है। कवि अखंड जी हांफते हुए एक हाथ में कागज और दूसरे में बुद्धिप्रकाश (मोटा डंडा) लिए कवि प्रचंड जी के पीछे दौड़ रहे थे। काफी प्रयास के बाद उन्होंने प्रचंड जी का क१लर पकड़ ही लिया।

लोगों ने पूछा, तो वे भड़क कर बोले- पिछले दो घंटे से यह मुझे अपनी कविता सुना रहा है। तीन कप चाय और चार पंराठे खा चुका है यह पापी; पर जब मेरा कविता सुनाने का नंबर आया, तो भाग खड़ा हुआ।

– पर अखंड जी, इसे दोपहर का खाना भी बनाना है। बीवी-बच्चे भूखे बैठे होंगे। – मैंने समझाने का प्रयास किया।

– जी नहीं, इसे दोपहर का ही नहीं, चाहे रात का खाना भी खिलाना पड़े; पर मैं कविता सुना कर ही रहूंगा।

तो साहब, यह है कवियों का दर्द। ‘जाके पैर न पड़ी बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई.’…शायद ऐसे लोगों के लिए ही कहा गया है।

गद्य लेखकों के दर्द कुछ दूसरे हैं। कोई कहानी, व्यंग्य, लेख, निबन्ध, संस्मरण आदि लिखने के बाद यदि वह प्रकाशित न हो, तो उनका रक्तचाप बढ़ जाता है। किसी पत्र-पत्रिका को भेजने के बाद यदि महीने भर तक उसका उत्तर न आये, तो वह बौराने लगते हैं। डाकिये को देखकर कुछ आशा बंधती है; पर जब वह बिना इधर देखे निकल जाता है, तो अपना ही मुंह नोचने की इच्छा होने लगती है। रचना छपने के बाद यदि पारिश्रमिक न मिले, तो दिल के साथ जेब भी दर्द करने लगती है।

आजकल लिखने के लिए कम्प्यूटर और पत्र-पत्रिकाओं में भेजने के लिए अतंरजाल (इंटरनेट) का भी उपयोग होने लगा हैं; पर कई बार याद दिलाने पर भी जब उत्तर नहीं आता, तो लेखक की आंखें और उंगलियां दर्द करने लगती हैं; लेकिन क्या करे ? आदत से मजबूर लेखक फिर पिल जाता है और शाम तक एक नयी रचना तैयार।

कुछ लेखक कविता या कहानी की बजाय सीधे पुस्तक लिखना ही पसंद करते हैं। ऐसे लोगों के भी अपने दर्द हैं।

बात बहुत पुरानी है। एक प्रकाशन की पत्रिका में एक विवादित साक्षात्कार प्रकाशित हुआ। कई बड़े लेखकों ने उसकी आलोचना करते हुए वहां से छपी अपनी पुस्तकें वापस लेने की घोषणा कर दी। प्रकाशक कुछ दिन तो चुप रहे; पर बात बढ़ने पर उन्होंने एक लेखक को फोन किया।

– आप अपनी पुस्तक वापस लेना चाहते हैं ?

– जी हां, मैं क्या बहुत से लेखक वापस ले रहे हैं।

– ठीक है, तो कल कार्यालय में आकर हिसाब कर लें।

अगले दिन लेखक जी सीना चौड़ा कर कार्यालय पहुंच गये। हर बार तो प्रकाशक उन्हें चाय के साथ समोसा खिलाता था; पर आज उसने खाली चाय ही मेज पर रखवा दी।

– महोदय, आपकी पुस्तक के लिए हमने 20,000 रु0 अनुबंध राशि दी थी। चूंकि आप किताब वापस ले रहे हैं, तो कृपया वह राशि भी वापस कर दें।

लेखक को लगा, मानो कुर्सी के नीचे बम रखा हो। वे बोले – वह तो खर्च हो चुकी है। फिर भी धीरे-धीरे वापस कर दूंगा।

– ठीक है। पुस्तक की 1,000 प्रतियां छपी थीं। उसमें से 200 बिकी हैं। शेष आप ले जाएं। यों तो पुस्तक का मूल्य 150 रु0 है; पर आपको 100 रु0 में ही दे देंगे। कृपया 80,000 रु0 देकर उन्हें उठवा लें।

लेखक को कुर्सी में कांटें से लगने लगे। वे उठते हुए बोले – यह तो बड़ा झंझट है। मैं पुस्तकें कहां बेचता फिरूंगा ? चलिए छोड़िए, मैं अपना निर्णय वापस लेता हूं।

– पर हम अपना निर्णय वापस नहीं ले सकते। यदि एक महीने में आपने हिसाब नहीं किया, तो आपकी पुस्तकें रद्दी में बेचकर शेष राशि के लिए आप पर न्यायालय में दावा ठोक दिया जाएगा।

लेखक जी तब से घर पर ही हैं। उनके सिर से लेकर पैर तक हर अंग में दर्द है। शरीर कांपने और जीभ लड़खड़ाने लगी है। हर रात सपने में कबाड़ी नजर आता है। लिखने में भी अब मन नहीं लगता। काश, उन्हें यह पता होता कि चाकू और खरबूजे के युद्ध में कटता सदा खरबूजा ही है।

किसी ने कहा है- दर्द का हद से गुजरना है दवा हो जाना। ऐसे दर्द के लिए हमदर्द वालों ने कोई झंडू बाम बनाया हो, तो दस-बीस डिब्बे मुझे भी भिजवाइये, क्योंकि मैं और मेरे कई मित्र इस दर्द से परेशान हैं।

2 COMMENTS

  1. चलिए इसी बहाने आप तो छप गए नहीं तो आपको भी यह दर्द सताने लगता.

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