परिचर्चा

धारा 370 के कुछ ज्वलंत प्रश्न

-विनोद कुमार सर्वोदय-
jammu and kashmir

जम्मू-कश्मीर के भूतपूर्व राज्यपाल श्री जगमोहन मल्होत्रा जी द्वारा भूतपूर्व प्रधानमंत्री श्री राजीव गांधी को लिखे गये ‘खले पत्र’ से

कश्मीर में अपनी सारी भूलों और अपराधों के पाप छिपाने की कोशिश में और अपनी उस ओछी राजनीति के अनुसार जो राष्ट्र को टुकड़े-टुकडे़े करने और वोट-बैंक निर्माण करने से आगे कहीं नहीं जा सकती, आपने बड़ी ही खास प्रयत्नों से उसे सारी श्रद्धा और सम्मान-भावना को ध्वस्त करने में अपनी तरफ से कोई कसर नहीं छोड़ी है जो कश्मीरी जनता के, यहां तक कि मुस्लिम युवकों के हृदयों में भी, मेरे लिए मेरे पहले शासन काल 27 अप्रैल 1984 से 12 जुलाई 1989 तक के दौरान स्थापित हुई थी। कोरे तथ्यों, अकाट्य साक्ष्यों और आपके अपने पहले के वक्तव्यों के भी विरुद्ध आपने मेरे ऊपर ‘मुस्लिम विरोधी’ होने के लेबल लगाना शुरू कर रखा है। आप तो 7 मार्च 1990 को भी जब सर्वदलीय समिति श्रीनगर गई थी तो एक नाटक करने में नहीं चूके जिसमें जनता के मन में यह बिठाना चाहा कि मैं 1986 में धारा 370 को हटवाना चाहता था। संकट की उस घड़ी में, मैं मानों दीवार से पीठ टिका कर आतंकवादी ताकतों के विरुद्ध जी जान से टक्कर लेने में जूझ रहा था। अपनी कोशिशों से, 26 जनवरी के षड्यन्त्र को दबाकर मैं संघर्ष का पासा पलटने के मोड़ पर स्थिति को ले आया था, तो आपने मेरे विरुद्ध सारे संदर्भ से नाता तोड़ कर आरोप लगाते हुए विरोध की एक जबर्दस्त भावना खड़ी करने की कोशिश की आप का यह कृत्य राष्ट्रीय था या राष्ट्र विरोधी, यह तय करना मैं राष्ट्र के लिये छोड़ देता हूं।

मैंने 1986 में जो कहा था वह सचमुच यह था, ‘‘धारा 370 इस स्वर्ग के हृदय का रक्त चूसने वाले परजीवी कीड़ो के लिए पोषक खाद्य है। वह गरीब की खाल उतारती है। एक मगृतृष्णा का आभास पैदा करके वह उन्हें छलती है। सार रूप में वह एक न्याय-रहित क्षेत्र, पिछड़ेपन और अंतर्विरोधों से छाई हुई एक भूमि तैयार करती है। वह धोखे, दोहरे मुखौटे और भ्रमपूर्ण भाषाणों की राजनीति का पोषण करती है। वह विध्वंस के कीटाणुओं को पनपाती है। वह द्विराष्ट्रवाद की अपवित्र विचारधारा को जीवित रखती है। अखंड भारत की भावना और कश्मीर से कन्याकुमारी तक एक महान सामाजिक और सांस्कृतिक धरती की कल्पना को धूमिल करती है। यह एक दिन घाटी में एक भयंकर ज्वालामुखी-विस्फोट का कारण बन सकती है, जिसके झटके भयंकर आघात के साथ सारे देश को हिला देंगे और अभूतपूर्व विनाशकारी प्रभाव का घटाटोप निर्माण कर देंगे।

मैंने तर्क दिया था: ‘‘धारा 370 को हटाने या बनाए रखने के विवाद में जो एक मूलभूत पक्ष भुला दिया गया है वह है उसका दुरुपयोग। अनेक वर्षों से वह राजनीतिक सत्ताधारी, सम्भ्रान्त परिवारों, और अफसरशाही, व्यापारी वर्ग, न्यायपालिका, वकील आदि निहित स्वार्थों के हाथों में शोषण का माध्यम बन गई है। राजनीतिज्ञों के अलावा संपन्न वर्गों को धन बटोरने और स्वस्थ तथा न्यायकारी कानून न बनने देने में इससे बड़ी सुविधा मिली है। धारा 370 के बहाने से सम्पत्ति कर, शहरी भूमि सीमा कानून, उपहार-कानून आदि लोकोपकारी केन्द्रीय कानून राज्य में लागू नहीं होने दिए गए हैं। आम आदमी को यह ज्ञान भी नहीं होने दिया गया है कि धारा 370 वास्तव में उन्हें अभाव ग्रस्त बनाए हुए है और उन्हें न्याय तथा आर्थिक विकास में भागीदारी से वंचित किए हुए है।

मेरी स्थापना यह थी कि धारा 370 की दुर्ग दीवार के साए में कश्मीर की गरीब जनता का बुरी तरह शोषण हुआ है और उनकी सही स्थिति की जानकारी उन्हें देने की जरुरत है। मैंने इस संबंध में उसके शासन के ढांचे में सुधार तथा पुनर्गठन के बारे में कई सुझाव दिए थे। परन्तु इन सबकी उपेक्षा की गई। इस प्रकार एक बहुमूल्य अवसर खो दिया गया।

बाद की घटनाओं ने मेरे इस मत की पुष्टि की है कि धारा 370 और उसी के पूरक-प्रावधान, जम्मू-कश्मीर के अलग विधान को हटाना आवश्यक है। न केवल इसलिए कि यह कानून और संविधान से उचित है, अपितु इसलिए भी कि यह हमारे इतिहास और युगीन जीवन के वृहत्तर और अधिक मूलभूत चिंतन की मांग है। धारा 370 केवल भ्रष्ट सामंतशाही के उदभ्व और विकास पीढ़ी के मन में भ्रांत धारणाएं बैठती है। इसी से क्षेत्रीय तनावों और संघर्षों को बल मिलता है और जिस स्वायत्तता की कल्पना की गई थी वह भी व्यवहार में प्राप्त नहीं हो पाती। कश्मीर की विशिष्ट पहचान और अस्मिता की रक्षा उसके बिना भी अच्छी तरह हो सकती है। सामाजिक दृष्टि से यह धारा पश्चगामी है। उससे ऐसी स्थितियां पैदा होती हैं जिनमें महिलाएं अगर राज्य के बाहर के लोगों से विवाह कर ले तो उनके अधिकार छिन जाते हैं। 44 वर्ष से भी ज्यादा से राज्य में बसे लोग प्राथमिक मानवीय तथा लोकतांत्रिक अधिकारों से वंचित है और सबसे बड़ी बात यह है कि यह धारा भारत की विस्तृत तथा वैविध्यपूर्ण वास्तविकता एवं आवश्यकता के अनुरूप नहीं बैठती।

वोट-बैंकों के ठेकेदार बनने को उत्सुक सभी लोग यही कहे जाते हैं कि धारा 370 एक ‘आस्था’ है। परन्तु वे इससे आगे नहीं बढते। वे अपने से यह नहीं पूछते कि इस ‘आस्था’ का क्या अर्थ है। उसका क्या औचित्य है? क्या राज्य को भारतीय संविधान के सम्पूर्ण ढांचे के अंतर्गत लाने से आस्था की चमक और उसकी मर्मस्पर्शियता बहुत अधिक नहीं बढ़ जाएगी और फिर यह ‘आस्था’ और अधिक न्यायोचित और सार्थक नहीं हो जाएगी?
इसी स्वर में ‘ऐतिहासिक आवश्यकता’ ‘स्वायत्तता’ आदि शब्दाबली का प्रयोग होता है। इन शब्दों का व्यवहार में क्या अर्थ होता है? क्या ‘ऐतिहासिक आवश्यकता’ का अर्थ यह है कि आप बड़ा मोल चुकाकर कश्मीर को भारतीय संघ में लाते हों और व्यवहार में उसे सोने की तश्तरी पर रखकर वापिस कर देते हो? और स्वायत्तता या 1953 से पूर्ववर्ती या 1947 स्थिति का क्या अर्थ है? क्या इसका मतलब कश्मीरी नेताओं का यह कथन नहीं हो जाता कि ‘‘आप कमाइए और हमें खिलाइए। आपको कोई हक नहीं है कि मुझे भ्रष्ट या हृदयहीन अफसरशाही करने से और आपके (भारत) सिर से ‘अलग होने’ की तलवार सदा लटकाए रखने की स्थिति निर्माण करने से रोकें?