महत्वपूर्ण लेख साक्षात्‍कार

‘आर्य भारत के ही मूल निवासी थे’

– डॉ. रामविलास शर्मा, प्रख्यात मार्क्‍सवादी समालोचक

राष्‍ट्रवादी साप्‍ताहिक पत्र ‘पाञ्चजन्य (13 फरवरी 2000)’ ने एक लम्बे साक्षात्कार में डॉ. रामविलास शर्मा से साहित्य, संस्कृति, धर्म, दर्शन के साथ भारतीयता पर चर्चा की थी। हम इस महत्‍वपूर्ण साक्षात्‍कार को संदर्भ के लिए यहां प्रकाशित कर रहे हैं : 

>>स्वदेशी की उपेक्षा से जो खतरा है, वह भविष्य की बात नहीं है, वह वर्तमान काल में घटित हो रहा है। 

>>संचार माध्यमों से अपसंस्कृति का प्रसार हो रहा है, देशी-विदेशी पूंजी के गठबंधन की भाषा अंग्रेजी है। उसका वर्चस्व निरंतर बढ़ रहा है। लेकिन मिथिला से मालवा तक और मालवा से कुरुक्षेत्र तक “रामचरितमानस’ ने हिन्दी प्रदेश की जनता को एकताबद्ध किया है, उसकी भूमिका समाप्त नहीं हुई। 

>>वैचारिक प्रगति के लिए वादों का अस्तित्व आवश्यक है। लेकिन सिद्धान्तहीन गुटबंदी -साहित्य और राजनीति, दोनों के लिए हानिकारक है। 

>>जब लोग काम करना बंद कर देते हैं, तब उत्तराधिकार की बात सोचते हैं,अभी तो मैं काम कर रहा हूं। 

 

आर्य कौन थे? आर्य संस्कृति क्या थी? 

वर्तमान कुरूक्षेत्र में सरस्वती नदी के तट पर, प्राचीन काल में भरतजन रहते थे। इनके कवियों ने ऋग्वेद के सूक्त रचे थे। दासों से भिन्न उन्होंने स्वाधीन गृहस्थों के लिए आर्य शब्द का व्यवहार किया था। पाश्चात्य विद्वानों ने इस शब्द का व्यवहार विशेष रंग, रूप और शारीरिक गठन वाले मानव समुदाय के लिए किया। ऐसा कोई मानव समुदाय भारत में नहीं था। महाकाव्यों के दो नायक राम और कृष्ण अपने श्यामवर्ण के लिए प्रसिद्ध थे। इससे गोरी आर्य नस्ल की धारणा खंडित हो जाती है।

भरत जन खेती करते थे, लकड़ी और धातु से नित्य कामकाज की बहुत सी चीजें बनाते थे, नावों और रथों से यात्रा करते थे। दूर-दूर के जनपदों से उनके व्यापारिक सम्बंध थे, उनमें कुटुम्ब सम्पत्ति का चलन था, धनी- निर्धन का भेद पैदा हो गया था, परंतु वर्णों अथवा वर्गों का निर्माण नहीं हुआ था। इस समाज में यथेष्ट सांस्कृतिक विविधता थी। भरतजन से पृथक कोई आर्य जनसमुदाय नहीं है। आर्य भारत के ही मूल निवासी थे, वे बाहर से नहीं आए थे।

आपने अपनी शीघ्र प्रकाश्य पुस्तक में लिखा कि है आर्य संस्कृति में शूद्र और ब्राह्मण का कोई वर्गीकरण नहीं था, तब यह विभाजन कब शुरू हुआ? 

ऋग्वेद के कवि श्रम करते थे, यज्ञ करते थे और काव्य रचते थे। फिर एक ऐसा वर्ग बना जो दूसरों के लिए यज्ञ करता-कराता था, दूसरों के बनाए हुए सूक्त पढ़कर दान-दक्षिणा लेता था, स्वयं श्रम नहीं करता था, दूसरों के श्रम फल के सहारे जीता था, जो श्रम करे वह नीच, जो श्रम न करे, वह ऊंचा- यह भाव पैदा हुआ। सहज देवोपासना का स्थान द्रव्य साध्य कर्मकाण्ड ने लिया। कुछ धनी लोगों ने निर्धन किसानों की भूमि हथिया ली। शासक पहले निर्वाचित होता था, अब वह कुल और वंश के आधार पर शासन करना अपना अधिकार मानने लगा। इस प्रकार ब्राह्मण और क्षत्रिय दो वर्ण बने। शारीरिक श्रम करने वाले वैश्य और शूद्र कहलाए। यजुर्वेद के रचनाकाल तक वर्ण व्यवस्था प्रतिष्ठित हो चुकी थी पर उसमें जड़ता न आयी थी। वेद पढ़ने का अधिकार सभी वर्णों को था।

मार्क्‍सवाद धर्म को नकारता है। क्या आपकी दृष्टि में भी धर्म का कोई अस्तित्व है? 

धर्म शब्द का मूल अर्थ है-प्रकृति और समाज के नियम। आकाश और पृथ्वी, वरुणस्य धर्मणा, वरुण के धर्म अर्थात् नियम से धारण किए गए, स्थिर नियम अनेक हैं। नियम के अनुसार जो कार्य किया जाए, वह भी धर्म कहलाएगा।

मनुष्य अच्छे काम करते हैं, बुरे काम करते हैं, अच्छे काम धर्म कहलाए। धर्म का सम्बंध सदाचार से जुड़ा है। महाभारत के “शान्ति पर्व’ में भीष्म युधिष्ठिर से कहते हैं, “आचार (शौचाचार, सदाचार) ही धर्म का आधार है’ (259.6) सदाचार का सम्बंध सत्य और अहिंसा से जोड़ा गया। इसी पर्व में भीष्म कहते हैं, “सत्य से बढ़कर दूसरा कोई धर्म नहीं है’ (259.10)।

उद्योग और विज्ञान की प्रगति के साथ धर्म का पुराना कर्मकाण्ड वाला पक्ष समाप्त होता जाता है। नैतिकता वाला पक्ष ही बचा रहता है। तुलसीदास ने कहा-“परहित सरिस धर्म नहीं भाई’। यह नैतिक पक्ष वाला धर्म है। उन्होंने यह भी कहा-बेचहिं बेद धर्म दुहि लेहीं। यह कर्मकाण्ड पक्ष वाला धर्म है।

मार्क्‍सवाद की दृष्टि में भारतीयता क्या है? भारतीयता का मार्क्‍सवादी दर्शन क्या है? 

भारतीयता के आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक भाषायी, अनेक पक्ष हैं। यूरोप की अपेक्षा यहां भाषायी विविधता अधिक है, फिर भी यहां के विभिन्न भाषा समुदायों में वाक्यरचना की जैसी समानता है, वैसी यूरोप की भाषाओं में नहीं है। प्रदेशगत जातियां यूरोप में हैं, भारत में भी हैं, पर भारत में राष्ट्रीयता का जैसा विकास हुआ, वैसा यूरोप में नहीं हुआ। अठाहरवीं सदी में भारत का कपड़ा यूरोप और अमरीका तक बिकता था। तेरहवीं सदी से अठारहवीं सदी तक बंगाल, महाराष्ट्र आदि प्रदेशों के आपसी सम्बंध बराबर सुदृढ़ हुए, जातीय प्रदेश भी आन्तरिक रूप से कहीं कम, कहीं ज्यादा एकताबद्ध हुए। यही कारण है यूनान के विपरीत तुर्क आक्रमणकारी यहां की जातियों में खप गए।

अत्यंत प्राचीनकाल से अनेक भाषाएं बोलने वाले, अनेक धर्म मानने वाले भारत में रहते आये हैं। इन्हें पारस्परिक सहिष्णुता का पाठ कवियों ने पढ़ाया है।

भारत में अनेक भाषाएं बोलने वाली, अनेक प्रादेशिक जातियां हैं। इनकी संस्कृतियों के सामान्य तत्वों को हम भारतीयता कहते हैं। सामाजिक जीवन पर जितना ही जाति प्रथा और संप्रदायवाद का असर कम होगा, उतनी ही भारतीयता पुष्ट होगी।

भारत की प्राचीन, समृद्ध संस्कृति, चिन्तन के बारे में आपके विचार? 

भारतीय चिन्तन का आदि ग्रंथ ऋग्वेद है। इसके संवेदनशील कवि प्रकृति और मनुष्य से सहज आत्मीय सम्बंध कायम करते हैं। काव्य में अपने भाव व्यक्त करने के साथ वे पर्यवेक्षण और विवेचन द्वारा मनुष्य और प्रकृति का ज्ञान अर्जित करते हैं। समस्त ब्राह्माण्ड उनके पर्यवेक्षण का विषय है। प्रकृति की समग्रता में जो दर्शन उसका अध्ययन करता है, वह सांख्य है। प्रकृति पहले अव्यक्त थी, उससे व्यक्त प्रकृति का विकास हुआ। प्रत्यक्षत: सत-अजायत-अक्षत् अर्थात् अव्यक्त प्रकृति से क्षत् अर्थात् व्यक्त प्रकृति का जन्म हुआ, यह स्थापना ऋग्वेद में है। जो दर्शन मनुष्य के अंतर्जगत् का अध्ययन करता है, वह योग है। कवि अपने मन को एकाग्र करता है, तब ऋचाएं अपने आप उसके सामने आती हैं। जो जागता है, ऋचाएं उसे प्यार करती हैं, यह सामान्य जागरण नहीं, योगी का जागरण है।

पदार्थों के अल्पतम घटक के आधार पर जो दर्शन उनका अध्ययन करता है, वह वैशेषिक है। प्रकृति का अल्पतम घटक अणु है, समय का अल्पतम घटक क्षण है। वैदिक साहित्य में अणु की धारणा विद्यमान है साथ ही क्षण की भी। इसी के अनुरूप प्रकृति में सत, रज, तम-तीन गुणों की, शरीर में वात, पित्त, कफ-तीन तत्वों की कल्पना की गयी, शरीर विज्ञान का श्रेष्ठ ग्रंथ चरक संहिता है। धातु, प्रत्यय, उत्सर्ग के घटक बनाकर शब्दों का अध्ययन पाणिनि की “अष्टाध्यायी’ में है। समाज की समग्रता में उसका अध्ययन करने वाला ग्रंथ कौटिल्य का अर्थशास्त्र है।

भारतीय चिन्तन की एक शक्तिशाली धारा पुरोहितों के पाखण्ड और सामन्तों के शोषण का विरोध करती रही है। वाल्मीकि रामायण में जाबालि ने राम से कहा-“लोग जो अष्टकादि श्राद्ध कर्म पितरों के उद्देश्य से प्रतिवर्ष किया करते हैं, उससे लोग अन्न का कैसा नाश करते हैं। भला कहीं कोई मरा हुआ भी कभी भोजन करता है?’ (चतुर्वेदी द्वारका प्रसाद शर्मा द्वारा संपादित और अन्वादित, अयोध्याकाण्ड, पृ.1040) निरंकुश राजा के बारे में स्वामी दयानन्द ने “सत्यार्थ प्रकाश’ में “शतपथ ब्राह्मण’ का यह कथन उद्धृत किया है, “अकेला राजा स्वाधीन या उन्मत्त होकर प्रजा का नाशक होता है, जैसे मांसाहारी सिंह हृष्ट-पुष्ट पशु को मार कर खा लेता है वैसे स्वतंत्र राजा प्रजा का नाश करता है’ (पृ.136)। वर्तमान राजनीति के संदर्भ में यह स्थापना अत्यन्त प्रासंगिक हैं।

साहित्य की कसौटी क्या है?

साहित्य की कसौटी संवेदनशील मनुष्य का सहज बोध है। साहित्य हमारे भावों, विचारों और संवेदनों का परिष्कार करता है। कितना करता है, यह हम अपने सहज बोध से ही जांच पाते हैं।

जब आप पाश्चात्य दर्शन का भारतीय दर्शन के साथ तुलनात्मक अध्ययन करते हैं तो किस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं? 

पाश्चात्य दर्शन की मुख्यधारा द्वैतवादी है। वह चेतना को पदार्थों से अलग करके देखती है। इसलिए वह पदार्थ विज्ञान के विकास में बाधक रही है और सहज ही वह चर्च की समर्थक बन गयी। सांख्य, योग, वैशेषिक, स्यादवाद (अनेकान्त वाद)-ये दर्शन प्रकृति को परिवर्तनशील और विकासशील मानते हैं, संसार में सबसे पहले चार्वाक ने पदार्थों से चेतना की उत्पत्ति का सिद्धान्त प्रतिपादित किया था। यथार्थवादी दृष्टिकोण का प्रतिफलन, खगोल, रसायन आदि विद्याओं तथा नृत्य, संगीत, चित्र, वास्तु, शिल्प आदि कलाओं के विकास में हुआ। भारतीय दर्शन पदार्थ विज्ञान के विकास में सहायक है।

भारतीय भाषाओं में आप जीवन-दृष्टि कहां तक पाते हैं? 

भारतीय भाषाओं में (आशय उनमें रचे हुए साहित्य से होगा) जीवनदृष्टि, जीवन की स्वीकृति के रूप में दिखायी देती है। हम कर्म पहले करते हुए सौ बरस तक जियें-यह प्राचीन आदर्श भारतीय साहित्यकारों की दृष्टि से कभी ओझल नहीं हुआ, बीसवीं सदी में जीवन की स्वीकृति के इस दर्शन का प्रतिपादन सचेत रूप से सुब्राह्मण्यम् भारती और प्रेमचंद जैसे साहित्यकारों ने किया।

आज स्वदेशी-विदेशी का मुद्दा खूब उठ रहा है। इसे 50-60 साल पहले गांधी जी ने भी उठाया था। क्या आज जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में स्वदेशी की उपेक्षा और विदेशी का स्वीकार आपको भारतीय अस्मिता के लिए खतरा नहीं लगता? 

स्वदेशी की उपेक्षा से जो खतरा है वह भविष्य की बात नहीं है, वह वर्तमान काल में घटित हो रहा है। विकास के नाम पर विदेशी बैंकों से लिए हुए ऋण के ब्याज के रूप में, बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के मुनाफे के रूप में जनता की गाढ़ी कमाई का बहुतांश बाहर चला जाता है, जीवन के हर क्षेत्र में विदेशी पूंजी की पैठ है, आर्थिक परनिर्भरता देश की राजनीति को प्रभावित करती है। अमरीकी पूंजीवाद इस प्रयत्न में है कि पाकिस्तान की तरह भारत को अथवा पिछलग्गू बना ले। सामंती व्यवस्था की तलछट-सम्प्रदायवाद, जातिबिरादरीवाद, हर तरह का अवसरवाद राष्ट्रीय जीवन को दूषित कर रहा है, संचार माध्यमों से अपसंस्कृति का प्रसार हो रहा है, देशी-विदेशी पूंजी के गठबंधन की भाषा अंग्रेजी है। उसका वर्चस्व निरंतर बढ़ रहा है। लेकिन मिथिला से मालवा तक और मालवा से कुरुक्षेत्र तक “रामचरितमानस’ ने हिन्दी प्रदेश की जनता को एकताबद्ध किया है, उसकी वह भूमिका अभी समाप्त नहीं हुई।

क्‍या “वाद’-चाहे राष्ट्रवाद हो या मार्क्‍सवाद- साहित्य का वादों में बंटना ठीक है? 

हर व्यक्ति का, संसार और समाज को देखने का, दृष्टिकोण होता है, वह उसे जानता हो, चाहे न जानता हो, इसी को हम वाद कहते हैं, वादों में परस्पर स्पद्र्धा हो सकती है, सहयोग भी हो सकता है वैचारिक प्रगति के लिए वादों का अस्तित्व आवश्यक है। पुराने लोग कहते थे-“वादे वादे मायते तत्वबोध:’- सिद्धान्तहीन गुटबंदी -साहित्य और राजनीति, दोनों के लिए हानिकारक है।

आज आप जीवन भर के अनुभवों को समेटे हुए जब चिन्तन की मुंडेर पर बैठते हैं तो क्या कुछ याद आता है? अतीत के कुछ स्मरणीय अनुभव। 

मैं चिंतन की मुंडेर पर नहीं, दहलीज पर हूं। घर का कुछ भाग देखा है और बहुत सा देखना शेष है। सबसे अधिक निराला जी के साथ बिताया हुआ समय याद आता है। उसकी स्मृति मेरे साहित्यिक कर्म की मूल प्रेरणा है।

आलोचना की एक स्वस्थ परम्परा जो डा. नगेन्द्र ने और आपने शुरू की क्या उसे कोई सही उत्तराधिकारी मिला? 

आधुनिक हिन्दी आलोचना की शुरुआत भारतेन्दु हरिश्चन्द्र और बालकृष्ण भट्ट ने की थी, उसे महावीर प्रसाद द्विवेदी और रामचंद्र शुक्ल ने, फिर जयशंकर प्रसाद, निराला, पंत आदि कवियों ने समृद्ध किया। इसी की एक कड़ी मेरी पीढ़ी के लोग हैं। जब लोग काम करना बंद कर देते हैं, तब उत्तराधिकार की बात सोचते हैं, अभी तो मैं काम कर रहा हूं। (प्रस्‍तुति : विनीता गुप्ता)