सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर ने ही वेद के द्वारा मनुष्यों को वाणी एवं ज्ञान दिया

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मनमोहन कुमार आर्य

      हमारा आज का संसार 1.96 अरब वर्ष पूर्व तब अस्तित्व में आया था जब सृष्टिकर्ता परमात्मा ने इस सृष्टि में प्रथमवार अमैथुनी सृष्टि में मनुष्यों को उत्पन्न किया था। मनुष्यों की उत्पत्ति से पूर्व परमात्मा अन्न, ओषधियां और वनस्पतियां तथा अन्य प्राणियों को उत्पन्न कर चुके थे। सर्वत्र शुद्ध वायु व जल भी उपलब्ध था। चैत्र शुक्ल प्रतिपदा का अवसर था। इसके प्रथम दिन ही मनुष्यों की उत्पत्ति होकर वेदों का ज्ञान दिया गया था। परमात्मा ने मनुष्यों की सृष्टि युवावस्था में की थी। स्त्री व पुरुषों की संख्या का अनुपात लगभग समान था। परमात्मा से मनुष्यों की उत्पत्ति हो जाने पर पहली आवश्यकता इन सभी मनुष्यों को वाणी व ज्ञान देने की थी। वाणी, भाषा तथा ज्ञान देने के लिए माता-पिता, शिक्षक अथवा आचार्य की आवश्यकता होती है। उस समय सभी मनुष्य युवा थे परन्तु वाणी, भाषा व ज्ञान किसी को नहीं था। इन मुनष्यों में अग्नि, वायु, आदित्य, अंगिरा व ब्रह्मा नाम के पांच ऋषियों को भी परमात्मा ने उत्पन्न किया था। यह जब उत्पन्न तो मनुष्य हुए थे परन्तु परमात्मा द्वारा प्रथम चार ऋषियों को एक-एक वेद का ज्ञान दिया गया था। उसके बाद उन चार ऋषियों द्वारा ब्रह्मा जी को सभी चारों वेदों का ज्ञान देने से यह सभी पांच युवा मनुष्य ऋषि कहलाये। जिन चार वेदों का ज्ञान दिया गया था वह ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद थे।

यह लोग संस्कृत भाषा नहीं जानते थे। अतः भाषा, शब्दार्थ, वेद मंत्रों के अर्थ व ज्ञान परमात्मा ने ही इन्हें वेदमन्त्रों के पदार्थ सहित दिया था। वेद का ज्ञान प्राप्त कर ही यह ऋषि बोलने में समर्थ हुए थे। वेद ज्ञान प्राप्त कर इन ऋषियों ने ब्रह्मा जी को चारों वेदों का ज्ञान कराया। हमारा अनुमान है कि जब अग्नि ऋषि ने ब्रह्मा जी को ऋग्वेद का ज्ञान कराया था, तब वहां उपस्थित वायु, आदित्य व अंगिरा भी अवश्य सुन रहे होंगे। इन तीनों ऋषियों को भी ऋग्वेद का ज्ञान हो गया था। इसी प्रकार से एक एक करके इन पांचों ऋषियों को चारों वेदों का ज्ञान हो गया। इन पांच ऋषियों ने अपना कर्तव्य समझ कर उसका पालन करते हुए शेष सभी मनुष्यों को शिक्षक, अध्यापक व आचार्य की भांति सभी वेदों का ज्ञान कराया था। भाषा का ज्ञान भी इन ऋषियों ने पहले सभी मनुष्यों को करा दिया था जिससे यह अपने सभी व्यवहार व विचारों का परस्पर आदान प्रदान करने में समर्थ हो गये थे। इस प्रकार से वेदों का ज्ञान प्राप्त होने पर यह सभी ऋषि व मनुष्य भाषा, शब्द व उनके व्यवहार को जान सके थे। पूरी पृथिवी सर्वत्र खाली पड़ी होने के कारण कुछ कुछ मनुष्य आगे आगे बढ़ते गये और वहां बसते रहे। उन्होंने वहीं पर रहना आरम्भ कर दिया था। जनसंख्या बढ़ने पर उनकी सन्ततियां और आगे जाकर बसती रहीं और इस प्रकार विगत 1.96 अरब वर्षों में इस सारी पृथिवी पर मनुष्य बस गये। महाभारत काल तक संसार के सभी मनुष्यों का एक ही धर्म वेद व वैदिक धर्म था। कालान्तर में किन्हीं कारणों से जहां जहां अविद्या उत्पन्न हुई, वहां के मनुष्यों ने अपने बीच के दूसरों से कुछ अधिक बुद्धिमान मनुष्य की शिक्षाओं को ही धर्म व परम्परा मानना आरम्भ कर दिया।  इस प्रकार दूसरे देशों में महाभारत काल के बाद मत व सम्प्रदाय आदि की उत्पत्ति व व्यवहार हुआ। महाभारत काल के बाद भारत में भी अविद्या के कारण नाना मत-मतान्तर उत्पन्न हुए जिनमें प्रथम बौद्ध मत, उसके बाद जैन मत तत्पश्चात स्वामी शंकर द्वारा प्रवर्तित अद्वैत मत प्रचलन में आया। इसके बाद तो मत-मतान्तरों की बाढ़ सी आ गई। इन सभी मतों की मान्यताओं में न्यूनाधिक भेद व अन्तर थे। इन कारण से मनुष्यों का संगठन भंग हो गया और ईसा की आठवीं सदी से भारत धीरे धीरे पतन की ओर बढ़ते हुए गुलाम हो गया।

सृष्टि के आरम्भ में मनुष्यों की भाषा वेदों पर आधारित संस्कृत थी। यह सभी मनुष्य आज के संसार के सभी लोगों के प्रथम पूर्वज थे। संसार के सभी लोग इन्हीं पूर्वजों की सन्तानें हैं जो करोड़ों पीढ़ियों बाद आज की स्थिति को प्राप्त हुए हैं। प्रथम मनुष्य संस्कृत बोलते थे और बाद में लोगों के दूर दूर जाकर बसने से उनमें भाषा की वह शुद्धता न रही। इस प्रकार से अनेक पीढ़ियों के गुजरने पर उनकी अन्यान्य भाषायें बनती बिगड़ती व संशोधित होती रही। आज संसार में जितनी भाषायें हैं वह वेदों की संस्कृत भाषा के ही विकारों के कारण से हैं। अनेक विद्वानों ने संसार की भाषाओं के अनेक शब्दों को संस्कृत का विकार बताया है और इसके उदाहरण भी प्रस्तुत किए हैं। आज जो भाषायें हैं आज से सहस्रों वर्षों बाद उनका स्वरूप क्या होगा, इसे जानना सम्भव नहीं है परन्तु अनुमान से कहा जा सकता है कि इनमें भी परिवर्तन हो सकता है। इस सबके होने पर भी संस्कृत भाषा अपने पूर्व, वर्तमान रूप में बनी रहेगी क्योंकि इसका आधार अष्टाध्यायी-महाभाष्य पद्धति व निरुक्त के निर्वचन आदि हैं। हमें लगता है कि जिस प्रकार वेद के मन्त्रों व शब्दों तथा उनके अर्थों में विकार व परिर्वतन नहीं हुआ इसी प्रकार से व्याकरण पर आधारित संस्कृत भाषा में किसी प्रकार का विशेष परिवर्तन नहीं होगा।

एक प्रश्न यह भी विचारणीय है कि यदि सृष्टि के आरम्भ में परमात्मा वेदों और इनकी भाषा संस्कृत का ज्ञान न देता तो क्या मनुष्य भाषा उत्पन्न कर उसका प्रचलन कर सकते थे? हमें इसका उत्तर यह मिलता है कि मनुष्य स्वयं किसी भाषा की उत्पत्ति नहीं कर सकते। भाषा में विकार होकर तो नई भाषा का आरम्भ स्वतः व सुनियोजित रूप से हो सकता है परन्तु सृष्टि के आरम्भ में प्रथम भाषा का बनाना किसी मनुष्य व मनुष्य समुदाय के वश की बात नहीं है। संसार में समय समय पर इससे संबंधित कुछ प्रयोग भी किए गये हैं परन्तु सबका निष्कर्ष यही निकला है कि मनुष्य दूसरों से बिना सुने किसी शब्द का उच्चारण भी नहीं कर सकते, भाषा बनाना तो बहुत दूर की बात है। इसका कारण यह है कि भाषा के लिए व्याकरण, वाक्य और शब्द चाहियें। शब्द अक्षरों से मिलकर नियमपूर्वक बनते हैं। अक्षरों की सभी प्रकार की ध्वनियों को अपने भीतर समेटे हुए एक वर्णमाला होती है। उस वर्णमाला का सबसे पहले निर्माण करना आवश्यक होता है। सृष्टि के आरम्भ में यदि परमात्मा भाषा और वेद का ज्ञान न देता तो यह मनुष्य सर्वथा भाषा व ज्ञान से शून्य होते। उस अवस्था में वह परस्पर बोल नहीं सकते थे। बोलने के लिए विचार चाहिये और विचार के लिए भी भाषा की आवश्यकता होती है। हम बिना भाषा, जो कि प्रायः हमारी मातृभाषा होती है, उसमें विचार करते हैं। आदिकाल के मनुष्यों के पास कोई भाषा न होने के कारण वह विचार नहीं कर सकते थे। जब विचार ही नहीं कर सकते थे तो वर्णमाला के अक्षर, उनसे शब्द और शब्दों से वाक्य व व्याकरण के नियमों के अनुसार भाषा बनाना सम्भव नहीं था। अतः यह सिद्धान्त स्वीकार करना पड़ता है कि मनुष्य को मानव शरीर, यह सृष्टि व उसके सभी पदार्थ, माता-पिता आदि जिस प्रकार अपौरूषेय सत्ता ईश्वर की देन हैं, उसी प्रकार आंखों, कान, मुहं, जिह्वा आदि को भाषा में प्रवृत कराने के लिए मूल भाषा का ज्ञान भी परमात्मा से ही प्राप्त हुआ था। यदि परमात्मा भाषा और वेदों का ज्ञान न देता तो मनुष्य आज तक बहरा व गूंगा होता और ईश्वर, जीवात्मा व अन्य पदार्थों का जो ज्ञान वेदों में व उसके बाद ऋषियों, ज्ञानियों व विज्ञानियों ने दिया है, वह भी न होता। मनुष्य होता भी, इसमें भी सन्देह है।

भाषा और वेदों का ज्ञान सृष्टि के आरम्भ मे ंपरमात्मा से मिला, यह वेद, तर्क व युक्ति आदि सभी प्रकार के प्रमाणों से सिद्ध है। संसार के सभी लोगों को इस सिद्धान्त को स्वीकार करना चाहिये। इसलिए स्वीकार करना चाहिये कि सत्य को मानना और मनवाना मनुष्य का कर्तव्य है। जो ऐसा नहीं करता वह मनुष्य नहीं अपितु पशु श्रेणी का ही व्यक्ति कहा जा सकता है। इसके साथ हम यह भी कहना चाहते हैं कि सभी मनुष्यों के पूर्वजों को ईश्वर व ऋषियों से प्राप्त वेद ज्ञान की रक्षा करनी चाहिये। पूर्वजों की विरासत होने से यह सबका धर्म व कर्तव्य है। सबको अपने कर्तव्य को जानकर उसका पालन करना अभीष्ट है। यदि नहीं करते तो ऐसे लोगों का मनुष्य होकर भी मनुष्यता के कार्य न करने से यह स्थिति प्रशंसनीय नही होगी। ओ३म् शम्।

 

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