सुशील कुमार नवीन

सुशील कुमार नवीन

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लेखक दैनिक भास्कर के पूर्व मुख्य उप सम्पादक हैं। पत्रकारिता में 20वर्ष का अनुभव है। वर्तमान में स्वतन्त्र लेखन और शिक्षण कार्य में जुटे हुए हैं।

लेखक - सुशील कुमार नवीन - के पोस्ट :

राजनीति

जाग रहा है जनगणमन, निश्चित होगा परिवर्तन…

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समझ से परे कर्नाटक पर संघ गतिविधियों पर रोक सुशील कुमार ‘नवीन’ सन 2000 में अभिषेक बच्चन और करीना कपूर स्टारर रिफ्यूजी फिल्म आई थी। फिल्म के एक गीत की पंक्तियां जब जब भी सुनाई पड़ती है तो एक अलग ही अनुभव होता है। गीत है – पंछी, नदिया, पवन के झोंके, सरहद न कोई इन्हें रोके। यह गीत केवल प्रकृति की आज़ादी की नहीं, बल्कि विचारों की स्वतंत्रता की भी बात करता है। गीत से इतर अब सीधे मुद्दे पर आते हैं। गुरुवार को कर्नाटक मंत्रिमंडल ने सरकारी स्कूलों और कॉलेज परिसरों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की गतिविधियों पर रोके लगाने के उद्देश्य को लेकर नियम लाने का फैसला किया है। कैबिनेट द्वारा आरएसएस पर रोक लगाने की इस कार्रवाई ने देशभर में बहस छेड़ दी है। शाखा या संघ की अन्य गतिविधि संचलन आदि में ऐसा क्या होता है, जिसके लिए कर्नाटक सरकार को इतना बड़ा कदम उठाना पड़ा। इस पर भी विचार करना जरूरी है।  संघ स्वयंसेवकों की मानें तो आरएसएस की शाखा और संचलन अनुशासन और सेवा के विद्यालय हैं। आमतौर पर लगने वाली एक घंटे की नियमित शाखाओं के लिए किसी को निमंत्रण नहीं दिया जाता। न ही कोई दबाव डाला जाता है। राष्ट्र हित की सोच रखने वाले स्वयंसेवक शाखा में समय पर उपस्थित होते हैं और प्रार्थना, योग, खेल और राष्ट्रवंदना के साथ दिन की शुरुआत करते हैं। शाखा में जो प्रार्थना गाई जाती है कि उसकी प्रथम पंक्ति ही सार स्वरूप राष्ट्र के प्रति स्वंयसेवकों की भावना को प्रकट करने के लिए पर्याप्त है। नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे, त्वया हिन्दुभूमे सुखवं वर्धितोऽहम्, महामङ्गले पुण्यभूमे त्वदर्थे, पतत्वेष कायो नमस्ते नमस्ते। इसका अर्थ है कि हे प्यार करने वाली मातृभूमि! मैं तुझे सदा (सदैव) नमस्कार करता हूँ। तूने मेरा सुख से पालन-पोषण किया है। हे महामंगलमयी पुण्यभूमि! तेरे ही कार्य में मेरा यह शरीर अर्पण हो। मैं तुझे बारम्बार नमस्कार करता हूँ। विरोध का सुर रखने वाले इसमें कोई मीन मेंख निकालकर तो देखें। शाखा का दूसरा नियमित कार्यक्रम सुभाषित तो राष्ट्र समभाव को और भी स्पष्ट कर देता है। यह सभी के अंदर एकत्व की भावना को मजबूती देने का कार्य करता है। हिन्दव: सोदरा: सर्वे, न हिन्दू: पतितो भवेत्, मम दीक्षा हिन्दू रक्षा, मम मंत्र: समानता।  इसका अर्थ है कि सभी हिंदू एक दूसरे के भाई-बहन (सहोदर) हैं, कोई भी हिंदू पतित नहीं हो सकता। हिन्दू धर्म की रक्षा मेरा धर्म है और समानता मेरा मंत्र है।    सामूहिक गीतों की बात हो तो सामाजिक सद्भाव, सामाजिक समरसता, सामाजिक एकता से ये ओतप्रोत होते हैं। सुनने मात्र से राष्ट्र के प्रति नतमस्तक होने को सब मजबूर हो जाते हैं। हम करें राष्ट्र आराधना,तन से, मन से, धन से, तन–मन–धन जीवन से, हम करें राष्ट्र आराधना। संघ की आम बैठकों या विशेष कार्यक्रम में गाते जाने वाले एकल गीत भी इससे इत्तर नहीं है। श्रद्धामय विश्वास बढ़ाकर, सामाजिक सद्भाव जगायें। अपने प्रेम परिश्रम के बल, भारत में नव सूर्य उगायें।     बात खेलकूद व्यायाम की हो तो उसमें में भी कोई ऐसी बात दिखाई नहीं देती जिस पर उंगली उठाई जा सके। एक घंटे की शाखा में पांच मिनट सूक्ष्म व्यायाम जिसे हम वार्मअप भी कह सकते हैं। इसके बाद व्यायाम योग, सूर्य नमस्कार शरीर को बलिष्ठ ही बनाने का कार्य करते हैं। मनोरंजन के लिए करवाये जाने वाले बौद्धिक और शारीरिक खेल भी इसे और आगे बढ़ाते है। अंत में दिन विशेष के किसी महापुरुष या घटना पर चर्चा के बाद प्रार्थना के बाद शाखा का समापन। इसी तरह अन्य गतिविधियों में संचलन या अन्य कोई सभा आदि। स्वयंसेवकों के अनुसार कहीं पर भी ऐसी कोई गतिविधि होती ही नहीं, जिस पर आपत्ति हो सके। एक बार किसी कार्यक्रम में शामिल होकर देखें, अब स्पष्ट हो जायेगा। संघ के कार्यक्रम लोगों को जोड़ने का काम करते हैं तोड़ने का नहीं। राजनीति इसमें ठीक नहीं है।  आलोचकों के अनुसार इस एक घंटे के कार्यक्रम में शाखाओं के माध्यम से एक विशेष वैचारिक दिशा दी जाती है, जो हिंदू राष्ट्रवाद की अवधारणा से जुड़ी है। उन्हें इस बात की भी ज्यादा चिंता रहती है कि विद्यालयों या सार्वजनिक परिसरों में शाखा चलाने से धर्मनिरपेक्षता प्रभावित हो सकती है।    यहां यह भी गौर करना बहुत जरूरी है कि लोकतंत्र की खूबसूरती विविध विचारों के सह-अस्तित्व में है। विचार से असहमति, प्रतिबंध का औचित्य नहीं बन सकती। शाखाओं पर रोक लगाने से विचारों का प्रसार नहीं रुकता, बल्कि संवाद और संतुलन की संस्कृति कमजोर होती है। यदि शाखा कानून तोड़ती है तो कार्रवाई उचित है, पर यदि शाखा केवल विचार का प्रसार कर रही है, तो इस तरह की रोक की भावना लोकतंत्र की आत्मा पर आघात से कमतर नहीं है। कर्नाटक सरकार की ये कार्रवाई समझ से परे है। आरएसएस की शाखा कोई राजनीतिक मंच नहीं, बल्कि अनुशासन और चरित्र निर्माण का स्थान है, समय तय करेगा कि कर्नाटक में आरएसएस की शाखाओं या अन्य गतिविधियों पर रोक लगाने की कारवाई क्या किसी सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन की गतिविधियों पर प्रशासनिक हस्तक्षेप लोकतंत्र के अनुरूप है। संघ गीत की ये पंक्तियां इसे और भी संबल प्रदान करने का कार्य करेंगी। विश्व मंच पर भारत माँ के, यश की हो अनुगूंज सघन निश्चित होगा परिवर्तन, जाग रहा है जन गण मन। लेखक: सुशील कुमार ‘नवीन’

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लेख

परम्परागत संस्कृत अध्ययन की अनिवार्यता ही लौटाएगी देववाणी का पुरातन गौरव

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 परम्परागत अध्ययन से ही संस्कृत का लौटेगा गौरव सुशील कुमार ‘नवीन’ चाणक्य नीति का एक प्रसिद्ध श्लोक है जो आज के समय में देववाणी संस्कृत पर सटीक बैठता है।  कार्यार्थी भजते लोकं यावत्कार्य न सिद्धति  उत्तीर्णे च परे पारे नौकायां किं प्रयोजनम्। लोग तब तक दूसरों की प्रशंसा करते हैं जब तक उनका काम नहीं निकल जाता। एक बार जब उनका काम हो जाता है, तो वे उन लोगों को भूल जाते हैं, जिन्होंने उनकी मदद की थी। यह एक सामान्य स्वभाव है, नदी पार के बाद नौका की कोई पूछ नहीं होती है। संस्कृत के साथ भी कुछ ऐसा ही है। कोई भी ऐसा क्षेत्र नहीं है जिसमें संस्कृत से कुछ न लिया गया हो। संस्कृत को दिया किसी ने भी नहीं।     संस्कृत देव भाषा है। संस्कृति का आधार है। वेदों, उपनिषदों, और पुराणों जैसे महत्वपूर्ण ग्रंथों की जननी है। भारतीय संस्कृति, दर्शन और साहित्य का भंडार है। आदि वाक्यों से पिछले एक सप्ताह संस्कृत का खूब गुणगान किया गया। विभिन्न मंत्रियों, क्रिकेटरों ,बॉलीवुड यहां तक प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति आदि तक ने संस्कृत की महत्ता को वर्तमान समय के लिए आवश्यक बताते हुए इसे आत्मसात करने का आह्वान किया। पर वास्तव में क्या आज संस्कृत का हमारे जीवन में वह स्थान है जिसकी वो बाकायदा अधिकार है। सवाल है कि कहने भर से क्या संस्कृत अपने आपको गौरवान्वित महसूस कर लेगी। जवाब होगा, नहीं। जिस भाषा का गौरवमयी स्वर्णिम अतीत रहा हो, आज वह जिस गति से धरातल की ओर बढ़ रही है। वह भाषा विशेषज्ञों के साथ-साथ आमजन के लिए भी कम चिंता का विषय नहीं है। संस्कृत की वर्तमान स्थिति का जिम्मेदार कौन है, इस पर चिंतन समय की जरूरत है।     भारत में प्रतिवर्ष श्रावणी पूर्णिमा के पावन अवसर को संस्कृत दिवस के रूप में मनाया जाता है। इससे पहले के तीन दिन और बाद के तीन दिनों को मिलाकर संस्कृत सप्ताह का नाम दिया गया है। इस बार यह आयोजन 6 अगस्त से 12 अगस्त तक रहा। 9 अगस्त को विश्व संस्कृत दिवस भी मनाया गया। यह दिन संस्कृत भाषा के महत्व को बढ़ावा देने के लिए समर्पित है, जिसे भारत की सबसे पुरानी भाषाओं में से एक माना जाता है।      श्रावणी पूर्णिमा अर्थात् रक्षाबन्धन ऋषियों के स्मरण तथा पूजा और समर्पण का पर्व माना गया है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि ऋषि ही संस्कृत साहित्य के आदि स्रोत हैं इसलिए श्रावणी पूर्णिमा को ऋषि पर्व और संस्कृत दिवस के रूप में मनाया जाना सार्थक भी है। इस अवसर पर हर वर्ष की तरह राज्य तथा जिला स्तरों पर संस्कृत दिवस आयोजित गए। संस्कृत कवि सम्मेलन, लेखक गोष्ठी, भाषण तथा श्लोकोच्चारण प्रतियोगिताओं आदि का भी व्यापक स्तर पर आयोजन हुआ।    ध्यान देने योग्य बात यह है कि क्या संस्कृत सप्ताह मात्र संस्कृत संस्थानों और संगठनों का सामान्य कार्यक्रम होकर ही होकर रहना चाहिए? क्या संस्कृत के प्रति हमारी जिम्मेदारी नहीं है ? आज जब बात संस्कार की हो, संस्कृति की हो तो क्या संस्कृत को नजर अंदाज कर सकते हैं। संस्कृत सभी की है और सभी को संस्कृत सीखना या संस्कृत के लिये कार्य करना आवश्यक है। संस्कृत की जो वर्तमान में स्थिति है उसके जिम्मेदार राजनेताओं के साथ-साथ हम सब संस्कृत की रोटी खाने वाले भी हैं। हमने सिर्फ अपने समय के बारे में सोचा है। जैसा है, जो है बस उसी को सिरोधार्य कर संस्कृत सेवा की इतिश्री कर ली। जो संस्कृत विद्वान है उन्हें अपनी विद्वता पर इतराने से फुर्सत नहीं। जो सामान्य है उन्हें इससे आगे बढ़ना नहीं। यही वजह है कि संस्कृत समय के साथ अपने आपको बरकरार नहीं रख पा रही।    एक समय था जब संस्कृत की रोजगार प्रतिशतता सौ फीसदी थी। गुरुकुल, संस्कृत महाविद्यालयों में दाखिलों के लिए होड़ बनी रहती थी। आज हालत यह है कि दाखिलों के अभाव में गुरुकुल बंद होते जा रहे हैं। जो शेष है या तो उन्होंने समय के साथ आधुनिकता का समावेश कर लिया है या फिर कर्मकांड ज्योतिष प्रशिक्षण तक अपने आपको सीमित कर लिया है। जब सामान्य संस्कृत की पढ़ाई से ही शिक्षक, व्याख्याता आदि की नौकरी प्राप्त होने की योग्यता प्राप्त हो रही है तो क्यों फिर तपस्वियों जैसे रहकर विशारद, शास्त्री, आचार्य, विद्यावारिधि, विद्यावाचास्पति की उपाधियां प्राप्त कर जीवन के कीमती 10 वर्ष खराब करें। सामान्य व्याकरण से काम चलता हो तो क्यों अष्टाध्यायी, महाभाष्य, कौमुदी त्रय लघु सिद्धांत,मध्य सिद्धांत, वैयाकरण सिद्धांत पढ़कर सोशल मीडिया पर व्यतीत होने वाला समय क्यों गंवाएं। महाकाव्य रामायण,  महाभारत, भगवतगीता, मेघदूत, कुमारसंभव, कादंबरी, काव्य शास्त्र, अलंकार शास्त्र, चरक संहिता सरीखे बहुमूल्य ग्रन्थ के हिंदी सार से काम चलता हो तो क्यों संस्कृत के गूढ़ अर्थों के लिए अमरकोश, निरुक्त, अभिधानचिंतामणि, शब्दकल्पद्रुम् ,वाचस्पत्यम्, जैसे ग्रंथों से माथापच्ची की जाए।   ऐसी स्थिति में संस्कृत को फिर से गौरवान्वित करना है तो इसके पठन-पाठन, अध्ययन-अध्यापन में परंपरागत शिक्षण, पाठ्यक्रम को फिर से अपनाना होगा। सामान्य पाठ्यक्रम की अपेक्षा रोजगारों के अवसरों में परम्परागत संस्कृत पढ़ने की अनिवार्यता को लागू करना होगा। अन्यथा शास्त्री, आचार्य, विद्यावारिधि, विद्यावाचास्पति जैसी उपाधियां, स्नातक, परास्नातक, पीएचडी, डी.लिट में हो गुम होकर रह जाएंगी। संस्कृत के प्रति रोजगारों में परम्परागत संस्कृत पठन की अनिवार्यता बढ़ेगी तो प्राचीन गुरुकुलीय पद्धति को भी संबल मिलेगा। गुरुकुल लौटेंगे तो प्राचीन संस्कृति, संस्कार बचे रहेंगे, जो आज के समय के लिए बहुत ही आवश्यक है। प्राचीन ग्रन्थ हितोपदेश की यह सूक्ति इस बात को और दृढ़ करेगी यही उम्मीद है – अंगीकृतं सुकृतिनः परिपालयन्ति अर्थ है कि सज्जन व्यक्ति जिस बात को स्वीकार कर लेते हैं, उसका पालन करते हैं, या पुण्यात्मा जिस बात को स्वीकार करते हैं, उसे निभाते हैं।

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प्रवक्ता न्यूज़

लगे हाथ एक गणना इनकी भी हो जाए…

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सुशील कुमार ‘नवीन’ पहलगाम हादसे के बाद भारत-पाकिस्तान के बीच अघोषित युद्ध की शुरुआत हो चुकी है। इसका परिणाम क्या रहेगा? यह अभी भविष्य के गर्भ में है। इस गंभीर माहौल की जहां अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक चिंतन हो रहा है वहीं कुछ कुचक्रिय तत्व अभी भी सक्रिय है। जातीय जनगणना तो जब होगी सो होगी, इससे पहले ऐसे लोगों की गणना बहुत जरूरी है। जो भारत में रहते हैं और भारतीय नहीं है। जो इसी मिट्टी में जन्मे हैं और इसी के विखंडन का स्वप्न देखते हैं। जो यही कमाते हैं और इसका प्रयोग इसी के खिलाफ करते हैं। युद्ध अपने तरीके से चलता रहेगा, युद्ध के साथ-साथ राष्ट्रीय स्तर पर ऐसे लोगों की पहचान आज इस घड़ी में करना बेहद जरूरी है। जयचंदों की फौज जिस तरह से बढ़ रही है वो भविष्य के लिए अच्छा संकेत नहीं है। चाणक्य नीति में साफ लिखा गया है कि – परोक्षे कार्यहन्तारं प्रत्यक्षे प्रियवादिनम्। वर्जयेत्तादृशं मित्रं विषकुम्भ पयोमुखम्॥ इसका सीधा सा भाव है कि पीठ पीछे काम बिगाड़ने वाले और सामने मीठा बोलने वालों को उसी प्रकार त्याग देना चाहिए, जिस प्रकार  मुख पर दूध तथा भीतर विष से भरे घड़े को त्याग दिया जाता है।    एक सच्चे देशभक्त का इस समय कर्तव्य बनता है कि आपदा आने के समय वो आपसी गिले शिकवे भूल एकमत से राष्ट्रहित में ली गई प्रत्येक कार्रवाई का समर्थन करे। उसमें यथोचित सहयोग करें, उसका संबल बनें। किसी तरफ की छींटाकशी,मीनमेख निकाल दूसरे पक्ष के लिए उदाहरण बनना राष्ट्रविरोधी से कमतर नहीं है। देश आज जिस संकट से गुजर रहा है वह हमारे द्वारा पैदा नहीं किया गया है। गीता का प्रसिद्ध श्लोक यहां सार्थक सिद्ध है। इसके अनुसार कहा गया है – कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥ युद्ध से इनकार किए जाने पर श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं – तुम्हारा अधिकार केवल कर्म करना है। कर्म के फल पर तुम्हारा अधिकार नहीं है। इसलिए तुम केवल निरन्तर कर्म करो। कर्म के फल पर मनन मत करो और अकर्मण्य भी मत बनो।      संसार का कोई भी ऐसा देश नहीं है। जहां राष्ट्र विरोधी ताकतें मुंह बाए न खड़ी हो। दुश्मन राष्ट्र से ज्यादा खतरा राष्ट्र के अंदर छिपी पड़ी इन कुचक्रियों से होता है। वक्त बेवक्त इनका सिर्फ एक उद्देश्य होता है कि किसी भी तरह से अपनी विचारधारा को ज्यादा से ज्यादा प्रसारित किया जाए। इन्हें इस बात से मतलब नहीं कि देश किस स्थिति से गुजर रहा है। उन्हें सिर्फ अपनी विचारधारा को अग्रसर रखना होता है, चाहे वो विचारधारा राष्ट्रविरोधी ही क्यों न हो।    आज के समय को ही ले लीजिए। पक्ष-विपक्ष आज सरकार के साथ खड़ा है। फिर भी कुछ लोगों की जुबान नहीं रुक रही है। इसी का फायदा सोशल मीडिया के माध्यम से पाकिस्तान द्वारा उठाया गया है  हमारे ही लोगों द्वारा की गई बयानबाजी का प्रयोग हमारे ही खिलाफ उनके द्वारा खूब किया गया है। कन्हैयालाल मिस्र का एक निबंध मै और मेरा देश पढ़ा हो तो उसकी एक पंक्ति आज के समय में अपनी सार्थकता को पूर्ण सिद्ध करती है कि युद्ध में जय बोलने वालों का बड़ा महत्व है। भाव यह है कि युद्ध करना हर किसी के सामर्थ्य में नहीं है। लेकिन अपने साथियों का उत्साह बढ़ाना तो हमारे हाथ में है। लेकिन हम है कि अभी भी बाज नहीं आ रहे। आलोचना या समीक्षा का अभी वक्त थोड़े ही है। अभी तो जो हो रहा है उसे होने दें। वो चाहे अच्छा है या बुरा। हमारा पहला फर्ज बनता है कि उसमें सहयोग करें। लोकतंत्र में सबको बोलने का अधिकार है, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है। एक छोटी सी चिनगारी की उपेक्षा से दावानल की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता।   प्राचीन भारत के महान अर्थशास्त्री, राजनीतिज्ञ और दार्शनिक आचार्य चाणक्य के विचार आज भी प्रासंगिक हैं। उनके द्वारा प्रस्तुत किए गए जीवन सिद्धांत और रणनीतियां न केवल राजनीति, बल्कि व्यक्तिगत जीवन में भी सफलता प्राप्त करने के लिए मार्गदर्शन प्रदान करने का कार्य करते हैं। उनके द्वारा बताये गए नियमों में जीवन की कठिनाइयों का सामना करने और सही दिशा में आगे बढ़ने के उपाय दिए गए हैं। ये न केवल आत्मनिर्भर बनाते हैं, बल्कि जीवन में बड़े लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए भी प्रेरित करते हैं।   आचार्य चाणक्य के अनुसार यदि आपका कोई शत्रु है तो कमजोरियों का पता लगाकर कमजोर करो। शत्रु को नष्ट करने से पहले उसे हराना बहुत जरूरी है। चाणक्य का कहना था कि सच्चाई अक्सर कड़वी होती है, लेकिन यह हमेशा सही होती है, यदि हम सच्चाई को अपनाते हैं, तो जीवन में हमें कोई पछतावा नहीं होगा।  आचार्य चाणक्य राष्ट्र शब्द को परिभाषित करते हुए कहते हैं कि राष्ट्र केवल किसी भूखंड मात्र नहीं होता। राष्ट्र संस्कृति, सभ्यता, परंपरा, भाषा, इतिहास इन पांचों विषयों का बोध होता है। उनके अनुसार देश में जन्मे प्रत्येक व्यक्ति को राष्ट्र निर्माण के प्रति समर्पण का भाव रखना ही सच्ची राष्ट्र सेवा है। अपने नीति सूत्रों के माध्यम से आचार्य चाणक्य ने तत्कालीन सुप्त जनमानस के पटल पर राष्ट्रीय स्वाभिमान एवं आत्मगौरव की भावना को जाग्रत किया। देश के आत्मगौरव और आत्मस्वाभिमान को सुदृढ़ एवं अखंड रखने के लिए अनिवार्य है राष्ट्र की एकता एवं संगठन। चाणक्य का विचार था कि ‘राष्ट्रीय एकता राष्ट्र रूपी शरीर में आत्मा के समान है। जिस प्रकार आत्मा से हीन शरीर प्रयोजनहीन हो जाता है, उसी प्रकार राष्ट्र भी एकता एवं संगठन के अभाव में टूट जाता है। ऐसे में आज हम सब का भी दायित्व बनता है कि समाज एवं राष्ट्र स्तर पर कहीं भी कुछ ऐसा घटित हो रहा है जो राष्ट्रहित में नहीं है तो एक सजग भारतीय की तरह उस पर मुखर हो। गलत देखकर चुप रह जाना भी किसी अपराध से कम नहीं होता। राष्ट्र-विरोध की स्थितियों से संघर्ष करना समय की जरूरत है। उनसे पलायन करने से राष्ट्रीयता सशक्त मजबूत नहीं हो सकती। महाभारत के शान्तिपर्व में लिखा गया है – दुर्जनः परिहर्तव्यः विध्ययालंकृतोऽपि सन् । मणिना भूषितः सर्पः किमसो न भयंकरः॥ दुर्जन व्यक्ति यदि विद्या से भी अलंकृत हो फ़िर भी उसका छोड़ देना चाहिए। मणि से भूषित सांप क्या भयंकर नही होते? लेखक; सुशील कुमार ‘नवीन‘

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राजनीति

संघर्षशील व्यक्तित्व, बेजोड़ राजनैतिज्ञ मनोहर लाल

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पूर्व मुख्यमंत्री मनोहर लाल के जन्मदिन पर विशेष हरियाणा की राजनीति के चौथे बड़े लाल मनोहर लाल का आज जन्मदिन है। हरियाणा की सत्ता को दो बार संभालने वाले मनोहर लाल खट्टर वर्तमान में केंद्रीय स्तर की राजनीति में बड़ा नाम है। भाजपा के वरिष्ठ और निष्ठावान कार्यकर्ताओं में उनका नाम विशेष रूप से लिए जाता है। वर्तमान में मोदी सरकार में केंद्रीय ऊर्जा, आवास और शहरी मामलों के मंत्री के रूप में दायित्व संभाले हुए है।      मूल रूप से रोहतक जिले के निन्दाणा गांव में 5 मई 1954 जन्मे मनोहर लाल का परिवार पाकिस्तान से आकर यहां बसा था। बाद में परिवार ने पास के ही गांव बनियानी में खेती की जमीन खरीद ली और वहीं रिहायश कर ली। विस्थापित परिवारों की तरह इनके परिवार को भी शुरुआत में आजीविका के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ी। बताया जाता है कि उनके पिता और दादा को शुरुआती दिनों में मजदूरी तक करनी पड़ी थी। हर पिता की तरह मनोहर लाल के पिता हरबंस लाल ने भी बेटे को अच्छी शिक्षा प्रदान की। वो तो चाहते थे कि पढ़ाई के साथ साथ खेती में भी उनका सहयोग कर इसे आगे बढ़ाए। पर उनकी इच्छा चिकित्सा क्षेत्र में जाने की थी। वे एक मेधावी छात्र थे। रोहतक के नेकीराम कॉलेज से पढ़ाई सम्पन्न कर मेडिकल एंट्रेंस एग्जाम की तैयारी के लिए एक रिश्तेदार के पास दिल्ली चले गए। उनके उन रिश्तेदार की दिल्ली के सदर बाजार में कपड़े की दुकान थी।     एक इंटरव्यू में उन्होंने खुद बताया था कि – ‘रोहतक मेडिकल कॉलेज में एक नंबर से वे चूक गये थे। दाखिला नहीं होने पर उन्होंने एम्स और आर्म्ड फोर्स मेडिकल कॉलेज में दाखिले के लिए काफी तैयारी की, लेकिन बात नहीं बन पाई। डोनेशन पर प्राइवेट कॉलेज में एडमिशन पर परिवार सहमत नहीं था। पिता जी का कहना था कि इतने रुपयों में तो तुम अपना काम शुरू कर सकते हो। इसके बाद पिताजी से 15 हजार रुपए लेकर दिल्ली के सदर बाजार में कपड़े की दुकान की शुरुआत की। दिल्ली में रहते-रहते उनका आरएसएस से जुड़ाव हो गया। ऐसा नहीं है कि संघ से जुड़ाव उनका बड़ी आसानी से ही गया। एक कर्मठ स्वयंसेवक के रूप में अपने आपको साबित करने के लिए उन्होंने संघ की रीति नीति का कड़ाई से पालन किया। दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाई दौरान उनका राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ 1977 में संपर्क हुआ। 1979 में विश्व हिंदू परिषद की सभा में उनकी मुलाकात संघ के वरिष्ठ पदाधिकारियों और परिषद के संतों से हुई। धीरे-धीरे संघ के प्रति उनका लगाव बढ़ता गया। संघ के साथ साथ अपने व्यापार में भी लगातार संघ में सक्रिय रहे। जब संघ के लिए पूरा समय देने का मन बना तो छोटे भाई को व्यापार सौंप निकल लिए। विभिन्न दायित्वों का निर्वहन करते हुए पूर्णकालिक प्रचारक बने। शुरुआत में उनके परिजनों को लगता था कि दो तीन साल में वापस लौट आयेंगे। तीन साल पूरा होने के बाद पिता जी ने अक्सर कहना शुरू कर दिया कि अब घर लौट आओ, लेकिन वह हर बार मना कर देता। मनोहर लाल भाई-बहनों में बड़े थे तो शादी का दबाव भी उन पर बढ़ रहा था। पिता जी को मनाकर छोटे भाई की शादी करा दी। तब मनोहर लाल को लगा कि अब पिता जी समझ जाएंगे कि वो लौटना नहीं चाहता, लेकिन वे लगातार लौटने के लिए कहते रहे। मनोहर लाल जी ने एक बार बताया कि एक दिन उन्होंने कठोर मन से पिता जी से कह दिया कि आपके पांच बेटे हैं। आप नहीं सोच सकते कि आपके पांच नहीं चार ही बेटे हैं।    उनके जीवन का एक और बड़ा वाक्या है जो उनकी बेबाकी को दिखाता है।1994 में जगाधरी में संघ शिक्षा वर्ग चल रहा था। अंतिम दिन उस समय के सरसंघचालक रज्जू भैया का सम्बोधन था। इसी दौरान तत्कालीन प्रांत प्रचारक जी मनोहर लाल के पास से गुजरे। उन्होंने मनोहर लाल से कहा, हम सोच रहे हैं कि आपको भाजपा में संगठन मंत्री के रूप में भेजा जाए। उन्होंने साधारण रूप में कहा तो तो मनोहर लाल भी बोल पड़े कि सीटी आपको दे दूं या प्रार्थना करा लूं। उन्होंने कहा कि इतनी भी क्या जल्दी है। तब मनोहर लाल ने कहा कि जल्दी नहीं है, पर आपको भी ये बात बताने के लिए अभी ही समय मिला था क्या।’ जब मनोहर लाल को भाजपा का संगठन महामंत्री बनाया गया। पार्टी पर डेढ़ लाख रुपए का कर्जा था। उन्होंने पार्टी अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी का थैली भेंट कार्यक्रम करवाया। कार्यक्रम से प्रदेश भाजपा को करीब साढे तीन लाख रुपए मिले और लोन चुकता हो गया। 1999 में हरियाणा में ‌भाजपा और हरियाणा विकास पार्टी के गठबंधन की सरकार थी। बंसीलाल मुख्यमंत्री थे। मुलाकात न करने पर उन्हें बात बात चुभ गई। उन्होंने कसम खाई कि जब तक सरकार नहीं गिरेगी, तब तक दाढ़ी नहीं कटाएंगे। सरकार गिरने के बाद ही उन्होंने दाढ़ी कटवाई। हरियाणा 2014 में लोकसभा चुनाव अभियान समिति के अध्यक्ष के रूप में काम करते हुए हरियाणा में भाजपा को 10 में से सात लोकसभा सीटों पर जीत दिलवाने का काम किया। इस जीत के बाद वह हरियाणा में सक्रिय हुए और इसी साल अक्टूबर में विधानसभा चुनाव में उन्होंने भाजपा को सत्ता में लाने का काम किया। पहली बार विधायक बने मनोहर लाल लगातार 10 साल मुख्यमंत्री रहे। नरेंद्र मोदी से भी उनका संपर्क काफी पुराना है। 1996 में नरेंद्र मोदी हरियाणा के प्रभारी बनाए गए। इसी दौरान उनकी मुलाकात खट्‌टर से हुई। खुद मोदी ने एक सभा में बताया था कि वे जब हरियाणा के प्रभारी थे तो मनोहर लाल की बाइक पर पीछे बैठकर घूमते थे। विभिन्न राज्यों के प्रभारी के रूप में भी दायित्व का निर्वहन किया। दस वर्ष तक मुख्यमंत्री रहकर 12 मार्च 2024 को उन्होंने इस्तीफा दे दिया। अगले ही दिन 13 मार्च को मनोहर लाल को करनाल से उम्मीदवार घोषित किया गया। चुनाव जीतने के बाद मोदी सरकार 3.0 में उन्हें ऊर्जा, आवास और शहरी मामलों का मंत्री बनाया गया। वे अपने पैतृक आवास को दान कर चुके हैं। पारदर्शी और डिजिटल प्रशासन (ई-गवर्नेंस), कृषि और किसान कल्याण,शिक्षा और कौशल विकास, स्वास्थ्य और सामाजिक सुरक्षा,मुख्यमंत्री अंत्योदय परिवार उत्थान योजना, बिना पर्ची- बिना खर्ची नौकरी के लिए उनके कार्य चर्चा में रहे हैं। स्वस्थ रहें। राष्ट्रकार्य करते रहे। यहीं शुभकामनाएं हैं। त्वं जीव शतं वर्धमानः। जीवनं तव भवतु सार्थकम्।। सुशील कुमार ‘नवीन‘, हिसार

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मनोरंजन सिनेमा

 कसमें वादे प्यार वफ़ा सब, बातें हैं बातों का क्या…

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श्रद्धांजलि– मनोज कुमार सुशील कुमार ‘नवीन’ सही अर्थों में वो भारतवासी थे। जीवनपर्यंत भारत और भारतीय संस्कृति की ही बातें उन्होंने प्रत्येक देशवासी को बताई। मेरे देश की धरती सोना उगले से राष्ट्र की दूर तलक तक पहचान बनवाने में उनका स्वर्णिम योगदान सदैव अविस्मरणीय रहेगा। ये दुनिया एक नंबरी तो मैं दस नंबरी से मैदान ए जंग में अपना अलग ही रुतबा उन्होंने बरकरार रखा। यहां तक अबके बरस तुझे धरती की रानी कर देंगे का वादा पूरी निष्ठा से निभाकर भारत मां के उपकार को चुकाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। जीवन चलने का नाम कहकर क्रांति की अलख जगाना कोई इनसे ही सीखे। मेरा रंग दे बसंती चोला कहकर शहीद होने वाले इस भारत कुमार को आने वाली पीढ़ियां याद रखेंगी। भले ही दीवानों से ये मत पूछो, दीवानों पे क्या गुजरी है कहकर अपने हुए पराये का दर्द देकर चले गए, फिर भी पत्थर के सनम तुम्हें हमने खुदा माना। माना बस यही अपराध है बार करता हूं, आदमी हूं आदमी से प्यार करता हूं। पर तुम्हें हरियाली और रास्ता इतना भाएगा कि इस बात का जरा भी अहसास नहीं होने दिया। हमें यह बोलकर कि घर बसाकर देखो, कभी अपना बनाकर देखो खुद  का सन्यासी बन क्या हिमालय की गोद में जाना उचित है। रोटी कपड़ा और मकान की जीवन में सार्थकता का अहसास जिस तरह से तुमने कराया, वैसा और कोई आदमी चाहे हाथ में रेशमी रूमाल लेकर घूमता फिरे। पूनम की रात में कलयुग की रामायण दिखाकर वो कौन थी का यादगार सस्पेंस उत्तर दक्षिण, पूरब और पश्चिम में सदा बना रहेगा।   आप भी सोच रहे होंगे कि मास्टरजी का दिमाग आज बन्ना गया है कि बेसिरपैर की बातें करे जा रहे हैं। आपका सोचना बिल्कुल वाजिब भी है कि व्यंग्य के साथ गांभीर्य का सदा तड़का लगाने वाले मास्टरजी आज अलग ही मूड में है। विषय से न भटकते हुए सीधे मुद्दे पर आ जाते हैं। हिंदी फिल्म इंडस्ट्रीज में अपना अलग मुकाम रखने वाले एकमात्र भारत कुमार की उपाधि को सही अर्थों में शिरोधार्य करने वाले अभिनेता, निर्देशक मनोज कुमार जी आज नहीं रहे। हिन्दुस्तान ही क्या विदेशों तक उनकी फैन फॉलोइंग अपने आप में रिकॉर्ड है। राष्ट्र सर्वोपरि की भावना को अपनी फिल्मों के माध्यम से उन्होंने सदैव अग्रणी रखा। इस बात का उदाहरण आप इसी बात से लगा सकते हां कि पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय लाल बहादुर शास्त्री जी के एक कथन से उन्होंने किसान और जवान को केंद्र में रखकर उपकार फिल्म बनाई। क्रांति के माध्यम से अंग्रेजी गुलामी की दासता को चित्रण कर प्रत्येक देशवासी को झकझोर कर रख दिया। संगीत के तो क्या कहने। 15 अगस्त हो या 26 जनवरी, उपकार, क्रांति, शहीद आदि फिल्मों के गीत तन मन में रोमांच भर देते हैं। उनके बारे में जितना लिखा जाए, जितना सुना जाए, उतना ही कम रहेगा। एक बेहतर भारतीय अभिनेता तो थे ही, इसके साथ-साथ उच्च कोटि के फिल्म निर्देशक, पटकथा लेखक, गीतकार और संपादक भी थे। जिस कार्य को शुरू किया उसमें क्या नफा होगा क्या नुकसान, इस बात की परवाह उन्होंने कभी नहीं की। जो एक बार ठान लिया, उसे करने के लिए वो हद से गुजरने से गुरेज नहीं करते थे।कई बार नुकसान भी हुआ पर उन्होंने इसकी परवाह नहीं की। अपनी अलग पहचान बनाई। जब तक काम किया सिद्धांतों से समझौता नहीं किया। हिंदी सिनेमा में उनके काम को सदा याद किया जायेगा। भारतीय सिनेमा और कला में उनके योगदान के लिए भारत सरकार द्वारा 1992 में पद्म श्री और 2015 में सिनेमा के क्षेत्र में सर्वोच्च पुरस्कार दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित होने का गौरव उन्हें प्राप्त हुआ। फिल्म इंडस्ट्रीज में कभी न भुलाए जाने वाले मनोज कुमार जी को उन्हीं की एक फिल्म शोर के गीत से नमन। दो पल के जीवन से इक उम्र चुरानी है ज़िंदगी और कुछ भी नहीं, तेरी मेरी कहानी है। लेखक; सुशील कुमार ‘नवीन‘,

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आलोचना

वाद को वाद ही रहने दें, विवाद न बनने दें…

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सुशील कुमार ‘नवीन’ गन कल्चर के नाम पर हरियाणा में कुछ गायकों के यू ट्यूब से डिलीट किए गए गानों पर इशारों-इशारों में रार जारी है। यह गायकों के साथ-साथ हरियाणवीं म्यूजिक इंडस्ट्रीज के लिए भी अच्छा संकेत नहीं है। मौका पड़ते ही एक दूसरे पर छींटाकशी या टोंटबाजी से बात सुधरने के चांस कम, बिगड़ने के ज्यादा है। दस दिन के अंतराल में जो नुकसान इंडस्ट्रीज को हुआ है, उसके नुकसान की भरपाई होने में बहुत समय लगेगा। समय रहते वाद को विवाद होने से बचाने की पहल जरूरी है। अब ये पहल सरकार करे या गायकों के चुनिंदा नुमाइंदे। इसके बिना कोई समाधान नहीं निकलने वाला।       देशभर में अपना विशेष स्थान रखने वाला हरियाणा पिछले दस दिन से अलग ही मूड में है। जिधर देखो, उधर गन कल्चर के नाम पर डिलीट किए गए गानों की चर्चा है। रोजाना सैकड़ों रील सोशल मीडिया पर अपलोड हो रही है। ध्यान रहे कि हरियाणा पुलिस ने इन दिनों गन कल्चर को बढ़ावा देने वाले गानों को निशाने पर लिया हुआ है। मुख्यमंत्री के निर्देशों के बाद से लगातार इस तरह के गानों की सूची बनाई जा रही हैं। जानकारी अनुसार अभी तक इस प्रकार के 10 गानों को यू ट्यूब से हटाया जा चुका है। माना जा रहा है कि इस तरह के 100 गाने और पुलिस के भेंट चढ़ने वाले हैं। जिन दस गानों के डिलीट होने की बात है, उनमें से सात एक ही गायक के बताए जा रहे हैं। ऐसे में उक्त गायक को दर्द होना तो लाजमी है। ये दर्द किसी दवा से कम होने वाला नहीं है। यह बात वो गायक भी जानते हैं और उनके चाहने वाले। नुकसान कितना होगा, यह अभी कोई नहीं जानता। हां जितना समय गुजरता जायेगा, नुकसान की मात्रा बढ़ती जायेगी। बौखलाहट, हड़बड़ाहट या बिना कुछ सोचे विचारे उठाए गए कदम लाभ की जगह नुकसान ही ज्यादा पहुंचाते हैं।       फिलहाल हो भी यही रहा है। सरकार में पदासीन एक गायक की सोशल मीडिया पर विरोध रूपी हौसला अफजाई फॉलोवर्स लगातार कर रहे हैं। उद्वेगजनक कटु सर्पित वाक् शिलिमुख घाव को हरा ही कर रहे हैं। रही सही कसर ये माइक वाले भाई पूरी कर रहे हैं। जैसे ही किसी एक का कोई बयान आता है तो अपनी फैन फॉलोइंग बढ़ाने के चक्कर में दूसरे के पास पहुंच जाते हैं। जब तक उसके श्रीमुख से दूसरे के लिए कोई कड़वी बात न निकले, माइक को हटाते ही नहीं। जैसे ही कुछ बोला, उसे दूसरे को हैशटैग कर उसकी प्रतिक्रिया की बाट जोहना शुरू कर देते हैं। इन महानुभावों की दरियादिली तो देखिए ये दूसरे पक्ष के बुलावे का इंतजार भी नहीं करते, खुद ही अपना झोला झंडी उठाकर पहुंच जाते हैं एक नई फिल्म बनाने को। पिछले दस-बारह दिनों से यही तो हो रहा है। इनकी एक खास बात और भी है कि अगला कुछ न भी कहना चाहे तो उसे बातों में ले कोई दुखती रग छेड़कर उससे कुछ उल्टा पुल्टा कहलवा ही देते हैं।    अब बात आती है कि ये स्थिति पैदा ही क्यों हुई? एक कहावत है कि दूसरों को अपने घर में झांकने का मौका दोगे तो कमियां तो बाहर जाएंगी ही। यही फिलहाल हरियाणा म्यूजिक इंडस्ट्रीज में हो रहा है। एक गायक का गाना थोड़ा पॉपुलर क्या हुआ, दूसरे को मिर्ची लग जाती है। कुछ नया कंटेंट की जगह उसी को नीचा दिखाने में न सिर और न पैर वाली अपनी अमूल्य रचना निर्मित कर अपने आप को सुप्रीम साबित करने का अलौकिक और अदभुत प्रयास करते हैं। एक दुनाली की बात करता है तो दूसरा पिस्टल की। एक पीलिए में मामा पिस्तौल की बात करता है तो दूसरा मुंह दिखाई में बंदूक की। एक पिस्टल से महंगा लहंगा बोलता है तो दूसरा कोर्ट में ही गोली चलवा देता है। एक लफंडर बनता है तो दूसरा चम्बल का डाकू। बदमाशी के ट्यूशन, जेल में खटोले आदि तो अभी बैन होकर ज्यादा चर्चा में है ही।   हरियाणा की प्रसिद्ध कहावत है कि गोह के जाए, सारे खुरदरे। अर्थात् सभी एक जैसे। वाद गीतों के बोल में रहे तब तक तो ठीक है पर जब एक-दूसरे को नीचा दिखाने का प्रयास हो तो यही वाद विवाद बन जाता है। और हो भी यही रहा है। सरकार की सख्ती से इंडस्ट्रीज को ब्रेक से लग गए हैं। खुद कलाकार भी इस बात को स्वीकार रहे हैं कि नया कुछ लिखने, बनाने या रिलीज करने से पहले सब हिचक रहे हैं। सब को डर है कि फायदे की जगह नुकसान न हो जाए। जो हो गया वो हो गया। भविष्य में ऐसी स्थिति सामने न आए इस पर विचार आज पहले जरूरी है। इंडस्ट्रीज में विवादों से दूर मां बोली के लिए जीने वाले राममेहर महला, रामकेश जीवनपुरिया जैसे बहुत कलाकार हैं। उन्हें आगे करें। आपसी विरोधाभास को छोड़कर एकजुट हो बैठकर सरकार से बातचीत करे। लक्ष्य एक हो कि इंडस्ट्रीज की गरिमा बनी रहे। चर्चा होगी तो समाधान भी पक्का निकलेगा। सोशल मीडिया से तो समाधान होने वाला नहीं। बात बढ़ेगी तो सख्ती ज्यादा ही होगी, कम होने से रही। चाणक्य नीति में कहा गया है कि – प्रभूतं कार्यमपि वा तत्परः प्रकर्तुमिच्छति। सर्वारम्भेण तत्कार्यं सिंहादेकं प्रचक्षते। छोटा हो या बड़ा, जो भी काम करना चाहें, उसे अपनी पूरी शक्ति लगाकर करें? यह गुण हमें शेर से सीखना चाहिए। इसलिए चिंतन-मनन करें। मिलने-मिलाने के बहाने क्या पता कुछ उम्मीद से ज्यादा ही मिल जाए। सुशील कुमार

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