रमेश ठाकुर

रमेश ठाकुर

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सदस्य, राष्ट्रीय जन सहयोग एवं बाल विकास संस्थान (NIPCID), भारत सरकार

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राजनीति

नकली वोटर से लोकतंत्र कैसे रहेगा असली?

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डॉ. रमेश ठाकुर लोकतांत्रिक देश में चुनाव की पवित्रता उस बुनियादी भरोसे पर टिकी होती है जहां केवल वैध नागरिक वोट डालते हैं लेकिन जब इस भरोसे की नींव मतदाता सूची ही अविश्वसनीय हो जाए तो पूरा लोकतांत्रिक ढांचा सवालों के घेरे में आ जाता है। बिहार को लेकर हाल ही में सामने आई एक जनसांख्यिकीय रिपोर्ट ने इसी आशंका को चेताया है। रिपोर्ट में यह संकेत मिला है कि राज्य की मतदाता सूची में लाखों ऐसे नाम दर्ज हैं जिनका कोई जनसांख्यिकीय आधार नहीं है। ये न केवल प्रशासनिक उदासीनता का मामला है, बल्कि संभावित रूप से लोकतंत्र की निष्पक्षता पर गंभीर संकट की चेतावनी भी है। डॉ. विद्यु शेखर और डॉ. मिलन कुमार द्वारा तैयार की गई ‘जनसांख्यिकीय पुनर्निर्माण और मतदाता सूची में फुलाव: बिहार में वैध मतदाता आधार का अनुमान’ रिपोर्ट, विभिन्न सरकारी स्रोतों जिसमें 2011 की जनगणना, राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के आंकड़े, सैंपल रजिस्ट्रेशन सिस्टम, राज्य आर्थिक सर्वेक्षण और प्रवासन के आधिकारिक आंकड़ों को शामिल किया गया है। इस अध्ययन में इन आंकड़ों के आधार पर बिहार में संभावित वैध मतदाताओं की संख्या का अनुमान लगाया गया है। चुनाव आयोग के अनुसार, 2024 के चुनावों के लिए बिहार में कुल 7.89 करोड़ पंजीकृत मतदाता हैं लेकिन जनगणना और राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के आंकड़ों पर आधारित इस शोध का अनुमान है कि वैध मतदाताओं की संख्या केवल 7.12 करोड़ होनी चाहिए। इसका सीधा अर्थ है कि 77 लाख नाम ऐसे हैं जिन्हें साफ-सुथरी और अद्यतन मतदाता सूची में जगह नहीं मिलनी चाहिए थी। यह फासला न तो सामान्य माना जा सकता है और न ही इसे मात्र तकनीकी चूक करार दिया जा सकता है। 77 लाख का यह अंतर राज्य की कुल मतदाता संख्या का लगभग 10 प्रतिशत है जो किसी भी चुनाव के परिणाम को प्रभावित करने के लिए पर्याप्त है।  सबसे चिंताजनक बात यह है कि यह विसंगति राज्य के सभी हिस्सों में समान नहीं है, कुछ जिले तो ऐसे हैं जहां यह अंतर बेहद गंभीर स्तर तक पहुंच गया है। उदाहरण के लिए, दरभंगा में 21.5 प्रतिशत, मधुबनी में 21.4 प्रतिशत, मुज़फ्फरपुर में 11.9 प्रतिशत और राजधानी पटना में 11.2 प्रतिशत अतिरिक्त मतदाताओं के नाम दर्ज हैं। मात्र तीन जिलों मधुबनी, दरभंगा और मुज़फ्फरपुर में ही लगभग 15 लाख ऐसे मतदाताओं के नाम दर्ज हैं जिन्हें जनसांख्यिकीय तौर पर मौजूद नहीं होना चाहिए। कुछ निर्वाचन क्षेत्रों में जनसंख्या वृद्धि और मतदाता वृद्धि के आंकड़े एक-दूसरे से बिलकुल मेल नहीं खाते। उदाहरण के तौर पर शेखपुरा जिले की जनसंख्या 2011 से 2024 के बीच 2.22 प्रतिशत घटी है लेकिन मतदाताओं की संख्या 11.7 प्रतिशत बढ़ गई। इसी तरह सीतामढ़ी की जनसंख्या में 11.3 प्रतिशत की वृद्धि हुई जबकि मतदाताओं की संख्या 29.3 प्रतिशत बढ़ गई। ऐसी विसंगतियाँ किसी स्वाभाविक जनसंख्या परिवर्तन का परिणाम नहीं हो सकतीं। ये आंकड़े या तो प्रशासनिक लापरवाही की ओर इशारा करते हैं या जानबूझकर किए गए हेरफेर की ओर। दरअसल बिहार में मतदाता सूची से नाम हटाने की प्रक्रिया काफी कमजोर और ढीली है। यह काम ज़्यादातर लोगों द्वारा खुद फॉर्म भरने और फील्ड वेरिफिकेशन पर निर्भर करता है जो अक्सर अधूरा या अनियमित होता है। कई बार इस तरह की खबरें आती हैं कि कई शहरी और अर्ध-शहरी इलाकों में घर-घर जाकर या तो अधूरी जांच होती है या होती ही नहीं है। इसके अलावा मतदाता सूची को मृत्यु पंजीकरण या प्रवासन से जुड़े सरकारी आंकड़ों से जोड़ने की कोई तात्कालिक व्यवस्था नहीं है। नतीजतन जो लोग गुजर चुके हैं या राज्य से बाहर चले गए हैं, उनके नाम भी वर्षों तक सूची में बने रहते हैं। मतदाता सूची की इन विसंगतियों का कुछ दलों को सीधा फायदा होता है। बिहार की राजनीति लंबे समय से पहचान आधारित और जातीय वोट बैंक पर टिकी रही है। ऐसे में जब मतदाता सूची में संदिग्ध या फर्जी नाम बने रहते हैं तो ये पार्टियाँ इसे अपने लिए ‘बैकडोर वोटिंग’ और चुनावी धांधली का जरिया बना लेती हैं। जब कभी सूची की सफाई की माँग उठती है, तो इसे “अल्पसंख्यकों को निशाना बनाने” जैसा भावनात्मक मुद्दा बनाकर दबा दिया जाता है। बिहार की तरह पश्चिम बंगाल में भी यही पैटर्न दिखता है। सीमावर्ती इलाकों में घुसपैठ की आशंका के चलते वहां मतदाता सूची को लेकर लंबे समय से सवाल उठते रहे हैं मगर तृणमूल कांग्रेस अक्सर इन जिलों में गहन जांच का विरोध करती रही है। यह भी उसी रणनीति का हिस्सा लगता है, जैसा कि बिहार में देखा गया। वहीं असम में एनआरसी प्रक्रिया से यह तो साबित हुआ ही कि अवैध प्रवासियों की पहचान मुश्किल है, लेकिन यह भी दिखा कि अगर राजनीतिक इच्छाशक्ति हो तो मतदाता सूची को सुधारना नामुमकिन नहीं है। इस पूरे मामले का सबसे खतरनाक पहलू यह है कि फर्जी मतदाताओं की इतनी बड़ी संख्या सीधे चुनावी नतीजों को प्रभावित कर सकती है। 2020 के विधानसभा चुनावों में बिहार की 243 सीटों में से 90 सीटें ऐसी थीं जहां जीत-हार का अंतर 10,000 से कम वोटों का था। अब अगर हर विधानसभा क्षेत्र में औसतन 25,000 से 50,000 तक फर्जी नाम दर्ज हैं तो यह निष्पक्ष चुनाव की सोच को ही सवालों के घेरे में डाल देता है। ऐसे में यह पूछना बिल्कुल जायज़ है कि क्या मतदाता सूची में मौजूद ये फर्जी नाम लोकतंत्र की आत्मा को भीतर से खोखला नहीं कर रहे? भले ही यह रिपोर्ट बिहार तक सीमित है लेकिन इसका संदेश पूरे देश के लिए बेहद अहम है। जब एक ऐसा राज्य,जहां आधार लिंकिंग, वोटर आईडी और मतदाता सूची संशोधन जैसी कोशिशें हो चुकी हैं, वहां इतनी बड़ी गड़बड़ी पाई जाती है तो उन राज्यों का क्या हाल होगा जहां पारदर्शिता और निगरानी और भी कमज़ोर है? यह शोध रिपोर्ट महज़ आंकड़ों का विश्लेषण नहीं है, बल्कि एक गंभीर लोकतांत्रिक चेतावनी है। हर फर्जी नाम, हर मृत या पलायन कर चुके व्यक्ति का नाम जो मतदाता सूची में बना हुआ है, लोकतंत्र को हाईजैक करने का औजार है। यह किसी नकली नोट से भी ज़्यादा खतरनाक है, क्योंकि इसका नुकसान सिर्फ आर्थिक नहीं, बल्कि राजनीतिक और संस्थागत है जो एक पूरे राज्य का प्रतिनिधित्व बदल सकता है। बिहार की मतदाता सूची में दर्ज ये 77 लाख फर्जी नाम सिर्फ प्रशासनिक लापरवाही नहीं बल्कि एक लोकतांत्रिक संकट की दस्तक हैं। यदि मतदाता सूची ही अविश्वसनीय हो जाए तो फिर चुनाव की पवित्रता, जनादेश की वैधता और शासन की नैतिक वैधता पर प्रश्नचिह्न लगना स्वाभाविक है। यह न केवल एक राज्य का संकट है बल्कि पूरे राष्ट्र के लिए चेतावनी है कि लोकतंत्र की रीढ़ की रक्षा अब प्राथमिकता बननी चाहिए। इस संदर्भ में, चुनाव आयोग द्वारा बिहार में चलाया जा रहा स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन एक महत्वपूर्ण और समयोचित हस्तक्षेप है। इस पहल को केवल आँकड़ों की समीक्षा भर न मानकर एक लोकतांत्रिक उत्तरदायित्व की पूर्ति के रूप में देखा जाना चाहिए। आयोग को चाहिए कि वह इस प्रक्रिया को और व्यापक बनाए, तकनीकी और विधिक उपायों से इसे मजबूत करे और राज्य सरकारों के सहयोग से हर मतदाता सूची को अधिक पारदर्शी, त्रुटिरहित और विश्वसनीय बनाए। बिहार से उठी यह आवाज़ देशभर में मतदाता सूची की शुचिता और पारदर्शिता की माँग को नई ताक़त देती है क्योंकि अगर मतदाता ही नकली हो गया, तो फिर लोकतंत्र असली कैसे रह पाएगा? डॉ. रमेश ठाकुर

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प्रवक्ता न्यूज़

चमत्कारी ‘पूर्णागिरी’ से होती हैं सभी मुरादें पूरी

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डॉ. रमेश ठाकुर 51 शक्तिपीठों में शामिल उत्तराखंड का ‘पूर्णागिरी मंदिर’ का मेला लग चुका है। देशभर से श्रद्धालु पहुंच रहे हैं। मान्यताओं के मुताबिक यह ऐसा स्थान है, जहां सच्चे मन से मांगी हुई प्रत्येक मुराद पूरी होती है। मंदिर उत्तराखंड के चंपावत जिले और नेपाल की सीमा से सटा है। देश के प्रसिद्ध तीर्थस्थलों में शुमार पूर्णागिरी का मंदिर जमीन से करीब साढ़े पांच हजार मीटर ऊंचे पहाड़ पर स्थित है। 12 से 15 किमी की चढ़ाई के बाद दर्शन नसीब होते हैं। मंदिर चारों तरफ से प्राकृतिक सुंदरताओं से घिरा है। मंदिर के कपाट इस समय खुले हैं। चैत्र नवरात्र से शुरू होकर जून की पहली बारिश तक खुलते हैं। बता दें, यह इलाका उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी की विधानसभा ‘खटीमा’ से सटा हुआ है। मेले के वक्त राज्य सरकार द्वारा सुरक्षा-व्यवस्था हर वर्ष चाक चौबंद की जाती है। सालाना करीब 10 लाख से अधिक देश-विदेश से श्रद्धालु मंदिर में मन्नत मांगने पहुंचते हैं। दैवीय चमत्कारी गाथाओं से संबंध रखने वाला यह मेला करीब दो माह तक चलेगा। मार्च-अप्रैल में भीड़ ज्यादा रहती है। सदियों पुरानी मान्यताओं के मुताबिक जो भक्त सच्चे मन से मंदिर में चुन्नी से गांठ बांधकर कुछ मांगता, तो उसकी मुराद तकरीबन पूरी होती है। मंदिर में मुंडन कराने से बच्चा दीर्घायु और बुद्धिमान बनता है। इसी विशेष महत्वता के चलते लाखों तीर्थ यात्री वहां बच्चों का मुंडन कराने जाते हैं। पूर्णागिरी धाम में प्राकृतिक सुंदरता और अध्यात्म के मिलन का एहसास होता है। जहां हरियाली, शीतल हवा और शारदा नदी के साथ प्राकृतिक सौंदर्य हर ओर फैली हुई है।  पुराणों में जिक्र है कि दक्ष प्रजापति की कन्या और शिव की अर्धांगिनी सती की नाभि का भाग यहां विष्णु चक्र से कटकर गिरा था। उसके बाद वहां 51 सिद्ध पीठों की स्थापना हुई और मां पूर्णागिरि मंदिर के रूप में प्रसिद्ध हुआ। मां पूर्णागिरि के मंदिर के लिए सड़क, रेल व वायु मार्ग से पहुंच सकते हैं। निकटतम रेलवे स्टेशन टनकपुर है। सड़क मार्ग से ठूलीगढ़ तक जा सकते हैं। इसके अलावा वायु मार्ग से जाने के निकटतम हवाई अड्डा पंतनगर है। बरेली-पीलीभीत से मंदिर पहुंचने के लिए तमाम सुगम पब्लिक ट्रांसपोर्ट की सुविधाएं 24 घंटे उपलब्ध रहती हैं। पुराणों में ये भी बताया है कि महाभारत काल में प्राचीन ब्रह्मकुंड के निकट पांडवों द्वारा देवी भगवती की आराधना तथा बह्मदेव मंडी में सृष्टिकर्ता ब्रह्मा द्वारा आयोजित विशाल यज्ञ में एकत्रित अपार सोने से वहां सोने का पर्वत भी निकला था, जो अदृश्य है। व्यवस्थापक बताते हैं, सोने का मंदिर 100 साल में एक बार दर्शन देता है। सोने का विशालकाय मंदिर धरती फाड़कर उपर निकलता है और थोड़ी देर दिखने के बाद औछल हो जाता है। इसलिए देश के चारों दिशाओं में स्थित कालिका गिरि, हिमगिरि व मल्लिका गिरी में पूर्णागिरि का ये शक्तिपीठ बहुत महत्व रखता है।वेदों में ज्रिक है कि एक समय दक्ष प्रजापति द्वारा यज्ञ का आयोजन किया गया जिसमें देवी-देवताओं का बुलाया गया लेकिन शिव भगवान को नहीं? तभी, सती द्वारा अपने पति भगवान शिव शंकर का अपमान सहन न होने के कारण अपनी देह की आहुति उसी यज्ञ में दे दी। सती की जली हुई देह लेकर भगवान शिव आकाश में विचरण करने लगे। जब भगवान विष्णु ने शिव शंकर को ताण्डव नृत्य करते देखा, तो उन्हें शांत करने के लिए सती के शरीर के सभी अंगों को पृथक-पृथक कर दिया। उसके बाद जहां-जहां सती के अंग गिरे, वहां शांति पीठ स्थापित हो गए। पूर्णागिरी में सती की नाभि गिरी थी। नाभि चंपावत जिले के “पूर्णा” पर्वत पर गिरने से मां “पूर्णागिरी मंदिर” की स्थापना हुई। ‘मल्लिका गिरि’ ‘कालिका गिरि’ ‘हमला गिरि’ में भी यही मान्यताएं हैं लेकिन पूर्णागिरि का स्थान सर्वोच्च है। डॉ. रमेश ठाकुर

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लेख

नसीब हों ‘एकदेश, एकजैसी’ हेल्थ सुविधाएं?

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विश्व स्वास्थ्य दिवस (7अप्रैल) : डॉ. रमेश ठाकुर  दुनिया सालाना 7 अप्रैल को ‘विश्व स्वास्थ्य दिवस’ इसलिए मनाती है ताकि लोग स्वास्थ्य के प्रति सतर्क और गंभीर हो सकें। बदलते लाइफस्टाइल में लोगों का शरीर नाना प्रकार के खतरनाक वायरसों और अजन्मी बीमारियां से घिर चुका है। इसके अलावा पारिवारिक जिम्मेदारियां का बोझ, भविष्य की चिंताएं और बच्चों के कैरियर को संभालने की आपाधापी में इंसानों ने अपने स्वास्थ्य की देखरेख को बहुत पीछे छोड़ दिया है। इसे लापरवाही का नतीजा कहें या कुछ और? नौजवानों का हंसते, खेलते नाचते-गाते के दौरान स्टेजों पर दम तोड़ने वाली तस्वीरे सोशल मीडिया पर लगातार देख ही रहे हैं। असमय मौतों का डब्ल्यूएचओ का मौजूदा आंकड़ा रोंगटे खड़े करता है। 25-55 के उम्र के बीच असमय मरने वालों की संख्या पूरी कर चुके बुजुर्गों से कहीं ज्यादा आंकी गई है। इसपर विभिन्न वैश्विक चिकित्सीय रिपोर्ट ‘एक ही बात, एक सुर’ में कहती हैं कि लोग अपने शरीर की देखरेख को लेकर भंयकर लापरवाह हुए हैं। अपने पर ध्यान देना होगा, वरना इन आंकड़ों में यूं ही बढोतरी होती रहेगी। इन गंभीर स्थितियों को देखकर ही ‘विश्व स्वास्थ्य दिवस’ जनमानस को स्वास्थ्य को लेकर सतर्क करता है।  इतना तय है, अगर इंसान अपनी हेल्थ को बेहतर करने के लिए अच्छी दैनिक आदतें डाल लें, तो अजन्मी बीमारी से काफी हद तक खुद को बचा सकता है। क्योंकि इस तरह की जागरूकता के लिए तमाम देशी और विदेशी स्वास्थ्य संस्था हमारे आसपास सक्रिय हैं। यूनिसेफ और डब्ल्यूएचओ के अलावा ‘विश्व स्वास्थ्य संगठन’ संसार के देशों के लिए स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं पर आपसी सहयोग एवं मानक विकसित करने में प्रमुख भूमिका निभाती हैं। स्वास्थ्य संगठन में 193 देश मेंबर और दो संबद्ध सदस्य हैं। ये संयुक्त राष्ट्र संघ की एक अनुषांगिक स्वास्थ्य इकाई है जिसकी स्थापना 7 अप्रैल 1948 में हुई थी। इसके अलावा भारत मेडिकल टूरिज्म के लिहाज से समूची दुनिया में हमेशा से विख्यात ही रहा है? फिर बात चाहें, उच्च गुणवत्ता युक्त देशी-दवाओं की हो, ऋषि-मुनियों की फार्मेसी, प्राचीन चिकित्सा प्रद्वति, सस्ती वैक्सीन व जड़ी-बूटियों का हिमालीय भंडार? सब कुछ हमारे यहां मौजूद है। संसार वाकिफ है, भारत से तमाम गरीब देशों की चिकित्सा जरूरतें पूरी होती रही हैं। हालांकि दुख की बात ये है कि विगत कुछ दशकों से प्राचीन भारतीय चिकित्सा पद्धति और दवाओं का प्रचार-प्रसार कुछ धीमा पड़ा है, जिसका खामियाजा भुगत भी रहे हैं। आधुनिक दौर में चिकित्सा के तौर-तरीके, रंग-रूप और मायने कैसे और किस तरह से बदले हैं। सभी जानते हैं, बताने की जरूरत नहीं? इन बदलावों के सभी भुक्तभोगी हैं। कोई ऐसा नहीं जिसका चिकित्सा चुनौतियों से कभी ना कभी सामना न पड़ा हो? महंगी दवाईयों और चिकित्सा सुविधाओं से कितनों को अपनी जाने गवानी पड़ती है, ये भी सब जानते हैं। दवाइयों की कीमत आसमान छूती हैं जो एक गरीब इंसान के लिए किसी सपने से कम नहीं? दरअसल इसी असमानता को मिटाने की अब जरूरत है। फ्री चिकित्सा-सुविधाओं की कागजी बातें खूब होती हैं। पर, सच्चाई हकीकत से कोसों दूर रहती हैं। फ्री-इलाज के नाम पर तो हेल्थ कार्ड धारक अस्पतालों से रपटा तक दिए जाते हैं।  गौरतलब है, स्वास्थ्य मामलों की समीक्षा और संपूर्ण चिकित्सा तंत्र को ऑडिट करने की अब सख्त जरूरत है। गगनचुंबी इमारत वाले फाइव स्टार होटल नुमा अस्पताल हेल्थ के नाम पर व्यवसायी बने हुए है। लेकिन इंसानियत कहती है कि इस पेशे को धंधा न समझा जाए। क्योंकि जनमानस आज भी डॉक्टर को भगवान का दर्जा देते हैं। ये दर्जा सदियों से बना है और आगे भी यथावत रहे। इसी में सभी की भलाई है। स्वास्थ्य सेवाओं में बदलाव और सुधार की दरकार बहुत पहले से महसूस हो रही है। केंद्र व राज्य हुकूमतों को प्रत्येक स्तर पर स्वास्थ्य को प्राथमिकताओं में शुमार करना चाहिए और सबसे जरूरी बात प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में रिक्त पदों को भरना चाहिए। नए अस्पताल खोलने की जरूरत तो है ही। जहां प्रिवेंटिव व प्रोमोटिवे हेल्थ सुविधाएं आसानी से जरूरतमंद मरीजों को मिले। बिडंवना देखिए, छोटे से छोटे ऑपरेशन भी ग्रामीण अस्पतालों में नहीं किए जाते, जिसके लिए मरीजों को दूर शहरों में भागना पड़ता है। हेल्थ सिस्टम में भारतीय चिकित्सकों, शोधकर्ताओं व इससे जुड़ी वैज्ञानिक नामचीन हस्तियों ने अभूतपुर्व उपलब्धियां प्राप्त की हैं। आजादी के बाद तो जैसे क्रांति ही आई। दो दशक पहले तक इस क्रांति ने सीमित हारी-बीमारियों पर चौतरफा नियंत्रण रखा। पोलियो से लेकर, खसरा, रैबीज, दिमागी बुखार तक हर तरह के मौसमी वायरसों पर काबू रखा। लेकिन मौजूदा समय में जितनी चुनौतियां स्वास्थ्य तंत्र के समझ मुंह खोले खड़ी हैं, उतनी पहले कभी नहीं रहीं। नित पनपती नई-नई किस्म की बीमारियां और जानलेवा वायरस ने ना सिर्फ हिंदुस्तान में, बल्कि समूचे संसार को हिलाया हुआ है। कोरोना महामारी का डरावना सच हमेशा हमेशा परेशान करता रहेगा। ये ऐसा दौर था, जहां स्वास्थ्य सिस्टम ने भी घुटने टेक दिए थे। स्वास्थ्य विस्तार को शहरी क्षेत्रों की तरह ग्रामीण अंचलों में भी फैलाना होगा। वहां, चिकित्सा, दवाओं, अस्पतालों, नर्स, स्टाफ आदि का आज भी अभाव है।  आदिवासी व नक्सल प्रभावित क्षेत्रों के दूरदराज गांवों में स्वास्थ्य सुविधाओं की स्थिति ज्यादा अच्छी नहीं है। वहां मोबाइल की रोशनी में इलाज करते हैं डॉक्टर। स्वास्थ्य पर केंद्र के आंकड़ों पर गौर करें तो हिंदुस्तान में करीब ढाई लाख सरकारी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र हैं जिनमें 750 जिला अस्पताल और 550 मेहिडकल कॉलेजों का नेटवर्क है। बावजूद इसके भारी कमी महसूस होती है। आजादी का अमृतकाल चल रहा है, जिसमें इस नेटवर्क को और मजबूत करने की दरकार हैं। रूटीन व रेफरल कंसल्टेशन के लिए डिजिटल टेक्नोलाजी व टेली कंसल्टेशन के प्रयोगशालाओं को बढ़ाना होगा। आयुर्वेद को सबसे श्रेष्ठ चिकित्सा प्रणाली की संज्ञा दी है जिसकी जड़ें भी हमारे प्राचीनतम उपमहाद्वीप में ही हैं। हिंदुस्तान, नेपाल, भूटान, तिब्बत, पाकिस्तान व श्रीलंका में आयुर्वेद का अत्यधिक प्रचलन आज भी है, जहां आज भी तकरीबन एक तिहाई जनसंख्या इसका उपयोग करती है। इसी के देखा देख अन्य मुल्क भी आयुर्वेद को अपनाते हैं। आयुर्वेद न सिर्फ भारत में, बल्कि संसार की प्राचीनतम चिकित्सा प्रणालियों में अग्रणी है। आज ‘विश्व स्वास्थ्य दिवस’ जैसे दिन पर ऐसे ही संकल्पों को लेने की आवश्यकता है । डॉ. रमेश ठाकुर

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खान-पान खेत-खलिहान

‘मखाना खेती’ को केंद्र की सौगात

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डॉ. रमेश ठाकुर  ‘मखाना उत्पादक’ देशों में हिंदुस्तान का स्थान विश्व में अव्वल पायदान पर पहले से है ही, केंद्र की नई पहल ने अब और पंख लगा दिए हैं। दशकों से वैश्विक पटल पर भारतीय मखानो का समूचे संसार में निर्यात होता आया है। डिमांग में अब और बढ़ोतरी हुई है। ताल, तालाबों व जलाशयों में की जाने वाली मखाने की खेती बिहार में सर्वाधित होती है। ये खेती पूरे बिहार में नहीं, बल्कि मात्र 10 जिलों तक ही सीमित हैं जिनमें दरभंगा, सहरसा, मधुबनी, सुपौल, कटिहार, अररिया, पूर्णिया, मधेपुरा, किशनगंज, और खगड़िया जिले प्रमुख हैं। एक वक्त था जब मात्र दो जिले अररिया और मधुबनी में ही मखाना उगाया जाता था। पर, बढ़ती आमदनी को देखते हुए अब 10 जिलों में मखाने की खेती होने लगी है।  मखाने की खेती में बूस्टर डोज के लिए अब केंद्र सरकार ने भी अपने दरवाजे खोले हैं। ‘मखाना बोर्ड’ स्थापित करने का निर्णय हुआ है। बीते महीने आम बजट-2025-26 में केंद्रीय मंत्री निर्मला सीतारमण ने बकायदा संसद में ‘मखाना बोर्ड’ स्थापित करने की घोषणा की। मखाने की खेती में वृद्धि हो, बीज-खाद में सरकारी सब्सिडी मिले और फसल में भरपूर आमदनी हो, जैसी तमाम मांगों को लेकर किसान लंबे समय से सरकार से डिमांड कर रहे थे, जिसे अब पूरा किया गया। पहले क्या था? जब मखाने की फसल पककर तैयार होती थी, तो बिचौलिए और ठेकेदार औने-पौने दामों में मखाना खरीदकर विदेशी बाजारों में उच्च भाव में बेचते थे। ऐसी हरकतों पर निगरानी की कोई सरकारी व्यवस्था नहीं थी? किसानों की मेहनत को बिचौलिए खुलेआम लूटते थे। इन सभी से छुटकारा पाने के लिए केंद्र व राज्य सरकार से किसान ‘मखाना बोर्ड’ बनाने की मांग लंबे समय से कर रहे थे, जिसे केंद्रीय स्तर पर अब जाकर स्वीकार किया गया है। बिहार के अलावा मखाने की खेती हल्की-फुल्की उत्तर प्रदेश, झारखंड व मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में भी की जाती है। पर, वहां किसान ज्यादा रूचि नहीं लेते। विदेशों में भारतीय मखाने की ब़ढ़ती मांग को देखते हुए केंद्र सरकार ने अपने मौजूदा बजट में मखाना बोर्ड बनाने का निर्णय लिया। भारत में अमूमन एक किलो मखाने की कीमत 25 सौ से लेकर 4 हजार रुपए तक है। जबकि, विदेशों में पहुंचते-पहुंचते मखाना की कीमत दोगुनी हो जाती है। किसानों के अलावा केंद्र सरकार को भी परस्तर फायदा होने लगा है। मखाने का तकरीबन उत्पादन भारत में होती है, यूं कहें इस खेती पर एकछत्र राज्य है। यूरोप के कुछ निचले भागों में मखाना उगाया जाने लगा है। लेकिन वो स्वादिष्ट नहीं होता, स्वाद वाला मखाना सिर्फ भारत का होता है। बिहार में अब करीब 4000 गांवों, जिनमें 870 ग्राम पंचायतों और 70 प्रखंड़ों में मखाने की खेती होने लगी है। मखाने की खेती से करीब 10 हजार से ज्यादा किसान अब जुड़ चुके हैं।  मखाने के लिए ‘उत्तम तालाब प्रणाली’ की आवश्यकता होती है, जो सिर्फ बिहार के तराई इलाकों में ही मिलती है। केंद्र सरकार मखाने की खेती पर इसलिए भी ज्यादा फोकस करके चल रही है क्योंकि इससे देश को सालाना 25 से 30 करोड़ की विदेशी मुद्रा जो प्राप्त होने लगी है। विदेशों से मांग में बेहताशा बढ़ोतरी हुई है। चिकित्सा रिपोर्ट के मुताबिक मखाना सेहत के लिए बेहद लाभदायक बताया गया है जिसमें प्रोटीन की 9.7 फीसदी, कार्बोहाइड्रेट 76 फीसदी, नमी 12.8 प्रतिशत, वसा 0.1 फीसदी, खनिज लवण 0.5 फीसदी, फॉस्फोरस 0.9 और लौह के मात्रा 1.4 मिली ग्राम तक होती है। मखाने के इस्तेमाल से हार्ट-अटैक जैसे गंभीर बीमारी से भी बच जा सकता है। मखाने की उन्नती के लिए केंद्र सरकार द्वारा ‘बोर्ड’ बनाने का निर्णय निश्चित रूप से बूस्टर डोज जैसा है इससे मखाना किसानों की आमदनी में न सिर्फ इजाफा होगा, बल्कि उनके उधोग से जुड़े हिताकारों और उपभोक्ता कानून के संरक्षण में उत्साहवर्धक सुखद परिणाम भी देखने को मिलेंगे। मौजूदा आंकड़ों पर नजर डाले तो भारत मखाना की वैश्विक मांग का तकरीबन 90 से 95 फीसदी भरपाई करता है। बजकि, मखाने का उत्पादन सिंगापुर, यूएसए,कनाडा,जर्मनी, मलेशिया और एशियाई देशों में भी होता है। लेकिन डिमांड भारतीय मखानो की सर्वाधिक होती है। अकेला अमेरिका ही भारत से करीब 25 फीसदी मखानस खरीदता है। ग्लोबल स्तरीय स्वास्थ्य की एक सर्वे रिपोर्ट की माने तो अमेरिकी नागरिक सब्जियों में भी मखाने का इस्तेमाल करते हैं। रिपोर्ट के मुताबिक मखाना सर्वाधिक अमेरिकी लोग खाते हैं। उन्हें सिर्फ भारतीय मखाने चाहिए होते हैं। यही कारण है कि भारत में पिछले एक दशक में मखाने का उत्पादन 180 प्रतिशत से ज्यादा बढ़ा है। खेती में लगातार किसान विस्तार कर रहे हैं। निश्चित रूप से ‘मखाना बोर्ड’ बनने के बाद और इस फसल में और पंख लगेंगे।  नई पहल के बाद भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद की टीमें भी लगातार मखाना खेती का दौरा कर रही हैं। मखाना को वह वैज्ञानिक ढंग से कराने लगे हैं। किसानों के लिए मखाने का उत्पादन अब अन्य फसलों के मुकाबले फायदे का सौदा बन गया है। एक एकड़ मखाने की खेती में किसान कम से कम 3 से 4 लाख रूपए प्रत्येक फसल में कमा लेते हैं। मखाने की नर्सरी नवंबर माह में लगती है। बिहार में मखाने की खेती को ‘पानी की फसल’ भी कहते हैं। क्योंकि ये शुरू से अंत तक जलमग्न रहती है। मखाने की करीब 4 महीने बाद, फ़रवरी-मार्च में रोपाई होती है। रोपाई के बाद पौधों में फूल लगने लगते हैं। अक्टूबर-नवंबर में फसल पक जाती है और उसकी कटाई शुरू होती है। मखाने की खेती में तीन से चार फ़ीट पानी हमेशा भरा रहता है। मखाने के फल कांटेदार होते हैं। उन्हें कीटनाशकों से बचाना किसी चुनौती से कम नहीं होता। अच्छी बात ये है कुदरती आपदाएं जैसे औले पड़ना, बेमौसम बारिश का होना, मखाने की फसल का कुछ नहीं बिगाड़ पाती। कुलमिलाकर मखाना बोर्ड बनने के बाद भारतीय किसानों का ध्यान इस मुनाफे की खेती की ओर तेजी से आर्कर्षित जरूर हुआ है। डॉ. रमेश ठाकुर

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