पुरस्कार लेने और लौटाने के राजनीतिक मंच पर कम्युनिस्टों का माँस भोज–

ashokडा० कुलदीप चन्द अग्निहोत्री

नयनतारा सहगल नेहरु परिवार से ताल्लुक़ रखतीं हैं । अंग्रेज़ी भाषा में पढ़ती लिखती रही हैं । उनके लिखे पर कभी साहित्य अकादमी ने उन्हें पुरस्कार दिया था । पिछले दिनों उन्होंने वह पुरस्कार साहित्य अकादमी को वापिस कर दिया । वैसे तो उम्र के जिस पड़ाव पर नयनतारा सहगल हैं , वहाँ उनके संग्रहालय में कोई पुरस्कार पत्र होने या न होने से बहुत अन्तर नहीं पड़ता । उनका कहना है कि देश में हालात ठीक नहीं हैं । साम्प्रदायिकता बढ़ रही है और कोई कुछ नहीं कर रहा । इसलिये वे अपना पुरस्कार लौटा रही हैं । नयनतारा सहगल को इस बात की दाद देनी पड़ेगी कि 1947 से लेकर 2015 तक उन्हें पहली बार देश में बढ़ रही साम्प्रदायिकता दिखाई दी और उन्होंने घर के सामान की तलाशी लेकर देश को लौटाने के लिये साहित्य अकादमी द्वारा दिया गया प्रशस्ति पत्र ढंूढ निकाला । लिखती लिखातीं तो वे काफ़ी अरसे से हैं और साम्प्रदायिकता भी तब से ही है जब से वे लिखती लिखाती रही हैं , लेकिन कभी साम्प्रदायिकता उन्हें दिखाई नहीं दी और न ही उनकी आत्मा उस समय पुरस्कार वापिस करने के लिये वजिद हुई । अब नरेन्द्र मोदी की सरकार आते ही उनकी आत्मा अतिरिक्त सक्रिय हो गई । कभी भूतकाल में साहित्य अकादमी द्वारा दिये गये पुरस्कार को राजनैतिक हथियार के तौर पर इस्तेमाल करने की चेष्टा, भारत के अंग्रेज़ी भाषा साहित्य के इतिहास की दुखद घटना ही कही जायेगी । लेकिन इस पर आश्चर्य इसलिये नहीं होता कि देश में अंग्रेज़ों के और अंग्रेज़ी साहित्य के इतिहास में ऐसी दुखद घटनाओं के अम्बार दिखाई दे जाते हैं । भारत में अंग्रेज़ी भाषा के साहित्य के पुरोधा नीरद चौधरी तो अंग्रेज़ों के चले जाने से ही इतना दुखी हुये थे कि हिन्दुस्तान छोड़ कर ही इंग्लैंड में जा बसे थे । नयनतारा का धन्यवाद करना होगा कि वे इतनी साम्प्रदायिकता के बाबजूद कम से कम देश में तो रह रहीं हैं । देश पर इतना अहसान क्या कम है ?
लेकिन नयनतारा सहगल के तुरन्त बाद ,कभी आई ए एस अधिकारी रहे अशोक वाजपेयी ने भी अपना पुरस्कार साहित्य अकादमी को लौटा दिया । अशोक वाजपेयी प्रशासन चलाने के साथ साथ हिन्दी में कविता कहानी भी लिखते रहते थे । उनकी उन कविता कहानियों पर उन्हें भी कभी साहित्य अकादमी ने इनाम इकराम दिया था । ये सब बातें मध्य प्रदेश के क़द्दावर नेता अर्जुन सिंह के ज़माने की हैं । अर्जुन सिंह थे तो खाँटी राजनैतिक क़िस्म के प्राणी ही , लेकिन कविता कहानी और क़िस्से सुनने का उन्हें भी काफ़ी शौक़ था । वैसे उनको लेकर कई क़िस्से भी प्रचलित हो गये थे । इस कारण से मध्य प्रदेश में अर्जुन सिंह व अशोक वाजपेयी की जोड़ी ख़ूब जम गई थी । एक को क़िस्से कहानी सुनने का शौक़ था और दूसरे को लिखने और सुनाने का । इसलिये जोड़ी जमनी ही थी । कई लोग तो यह भी कहते हैं कि इस जोड़ी ने मध्य प्रदेश में आतंक जमा रखा था । उन जिनों अशोक वाजपेयी की कविताई ख़ूब फली फूली और जगह जगह से इनाम इकराम भी मिले । दरबार में रहने का यह लाभ होता ही है । यह परम्परा आज की नहीं प्राचीन काल की है । जिन दिनों भोपाल में गैस कांड हुआ था ,लोग कुत्ते बिल्ली की तरह मर रहे थे लेकिन अर्जुन सिंह इसके लिये ज़िम्मेदार कम्पनी के मालिक को जेल भेजने की बजाए , जहाज़ देकर देश से बाहर सुरक्षित पहुँचाने के राष्ट्रीय कार्य में लगे हुए थे , उन दिनों भी चर्चा हुई थी कि शायद अशोक वाजपेयी विरोध स्वरुप सरकार द्वारा दिया गया कोई मोटा न सही , छोटा पुरस्कार ही वापिस कर देंगे । लेकिन ऐसा नहीं हुआ था । आत्मा को भी समय स्थान देख कर ही जागना होता है । शायद अशोक वाजपेयी को लगा होगा कि वह राजनैतिक लिहाज़ से उचित समय नहीं था । सब साहित्यकार जानते हैं कि पुरस्कार लेने और लौटाने की भी पूरी राजनीति होती है । अचानक अब अशोक वाजपेयी ने फ़ैसला ले लिया कि जब नयनतारा सहगल ने घर की सफ़ाई शुरु कर दी है और इनाम वापिस करने शुरु कर दिये हैं तो उन्हें भी पीछे नहीं रहना चाहिये । उन्होंने भी अपना साहित्य अकादमी वाला पुरस्कार वापिस लौटाने की घोषणा कर दी है । कारण उनका भी वही है कि देश की हालत बिगड़ती जा रही है । प्रधानमंत्री चुप क्यों हैं ? वैसे कई साहित्यकार इस बात को लेकर भी हैरान हैं कि उन्होंने केवल साहित्य अकादमी वाला पुरस्कार ही क्यों लौटाया ? पुरस्कार तो उन्हें अर्जुन सिंह के ज़माने में और भी बहुत मिले थे । लेकिन क्या लौटाना है और क्या संभाल कर रखना है , इसे अशोक वाजपेयी से बेहतर कौन जान सकता है । ऐसे साहित्यकार साहित्य को थाली बना कर प्रयोग करते हैं । जीवन भर यजमान से उस थाली में भर भर कर दान दक्षिणा प्राप्त करते रहते हैं । उसके बलबूते साहित्य की रणभूमि में चिंघाड़ते रहते हैं । समय निकाल कर भारत भवन में घुस कर साहित्यिक खर्राटे मारते हैं । शिष्य मंडली उन खर्राटों की भी व्यंजनामूलक व्याख्या करती है । जब सूर्य अस्त होने का समय आता है , यजमान के घर से ‘अब कुछ नहीं मिलेगा’ का आभास होने लगता है तो ग़ुस्से में आकर, अब तक का माल असबाब समेट कर ख़ाली थाली यजमान की ओर फेंक देते हैं । अशोक वाजपेयी से बडा प्रयोगधर्मी साहित्यिक जगत में कौन है ? जिसे वे पुरस्कार लौटाने की संज्ञा दे रहे हैं , वह मात्र ग़ुस्से में आकर यजमान की ओर फेंकी गई ख़ाली थाली की झनझनाहट है । इसे मध्यप्रदेश में वाजपेयी के सब मित्र अच्छी तरह जानते हैं । इस समय सचमुच अर्जुन सिंह की बहुत याद आ रही है । वे आज होते तो शिष्यों को यह दिन देखने पड़ते ?
केरल के साहित्यकार साराह जोसफ़ और उर्दू साहित्यकार रहमान अब्बास ने भी अपना सम्मान वापिस कर दिया है । इसी प्रकार पंजाब के तीन चार साहित्यकारों गुरबचन भुल्लर, अजमेर सिंह औलख,और आत्मजीत ने साहित्य अकादमी को,कुछ बरस पहले मिले पुरस्कार लौटा दिये । दर्द सब का एक ही है । देश में साम्प्रदायिक वातावरण पनप रहा है । इन सभी बुज़ुर्ग साहित्यकारों की भावना पर भी शक नहीं किया जा सकता । बुढ़ापे में वे भला झूठ क्यों बोलेंगे । लेकिन कुछ ऐसे लोग भी थे जिन के पास लौटाने के लिये कुछ नहीं था । उनके पास साहित्य अकादमी के निकायों की सदस्यता ही थी । दो तीन ने वही छोड़ दी । यह अलग बात है कि उनकी सदस्यता की मियाद वैसे भी कुछ समय में ख़त्म ही होने वाली थी ।
लेकिन ऐसे अवसर पर कम्युनिस्टों की सक्रियता देखते ही बनती है । कहीं भी राजनैतिक भोज हो या साहित्यिक भोज हो , कम्युनिस्ट उसकी गंध मीलों दूर से सूंघ लेते हैं । उसके बाद झपटा मार कर वे मंच पर क़ब्ज़ा जमा लेते हैं और अपना नुक्कड़ नाटक चालू कर देते हैं । एक के बाद एक , आकाशमार्ग से पंख फैलाते हुए उनका धरती पर उतरना बहुत ही मनमोहन दृष्य उपस्थित करता है । आकाश मार्ग से उतरने का यह भव्य दृष्य दो बार होता है । पहले पुरस्कार प्राप्त करने के समय और दूसरा , यदि जरुरत पड़ जाये तो , उसे लौटाने के समय । नयनतारा सहगल और अशोक वाजपेयी द्वारा साहित्य के धरातल पर शुरु किये गये इस साहित्यिकनुमा राजनैतिक भोज की गंध देखते देखते कम्युनिस्ट खेमे में पहुँच गई । वे बड़ी संख्या में वहाँ इक्कठे हो गये और अब धडाधड ,जिस के पास साहित्य अकादमी का पुरस्कार था वह साहित्य अकादमी का पुरस्कार और जिस के पास कोई प्रदेश या ज़िला स्तर का पुरस्कार था उसने वही पुरस्कार लौटाना प्रारम्भ कर दिया । इन्दिरा गान्धी के ज़माने में कम्युनिस्ट उनके काफ़ी समीप चले गये थे । संकट काल में उनकी मदद कर दिया करते थे । उनके कामों की प्रगतिवादी शब्दावली में व्याख्या करके वैचारिक गरिमा प्रदान करने का वामपंथी कार्य भी करते थे । इसके बदले में उन्हें सरकार से इनाम इकराम मिलते रहते थे । साहित्य के काम धंधे में लगी टोली को साहित्यिक इनाम मिलते थे । जिन्हें पढ़ाने का शौक़ था , उनको इनाम में जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय दिया गया । जिनकी राजनीति में रुचि थी उनको पार्टी में शामिल करके एक आध मंत्री पद भी दिया गया । बीच बीच में रुस सरकार भी इनको मास्को में बुला बुला कर साहित्यिक पुरस्कार नुमा प्रशस्ति पत्र दिया करती थी । सरकारी ख़र्च पर घूमना फिरना तो होता ही था । लेकिन अब वह युग बीत गया है । लेकिन साम्यवादी खेमा अस्त होने से पहले एक अंतिम लड़ाई लड़ लेना चाहता है । इसलिये अपने ज़माने में प्राप्त इस सारी पुरानी सामग्री को समेट कर , अपनी वाममार्गियों साधना से एक ऐसा हथियार बनाना चाहता है जो नरेन्द्र मोदी को चित कर दे । साहित्यिक पुरस्कार लौटाने का यह नुक्कड़ नाटक उसी का हिस्सा है । अलबत्ता इस बात का ध्यान सभी रख रहे हैं कि सम्मान लौटाने की सीमा सम्मान देने वाली संस्था से प्राप्त सूचना पत्र तक ही सीमित रहे । यहाँ तक सम्मान से प्राप्त धनराशि का प्रश्न है , उसको इस अभियान से दूर ही रखा जाये । बहुत से साहित्यकार पुरस्कार लौटाने में यही बेईमानी कर रहे हैं । अरसा पहले इनाम देने वाली संस्था ने जो इनाम देने की चिट्ठी भेजी थी और उसके साथ प्रमाण पत्र नत्थी किया था , वह तो इनाम देने वाली संस्था को लौटा रहे हैं , लेकिन साथ आया चैक अभी भी गोल कर रहे हैं । सार सार को गहि रहे थोथा देत उड़ाए । थोथा सर्टिफ़िकेट अकादमी की ओर उड़ा दिया और धन रुपी सार अभी भी संभाल कर ही रखा हुआ है । साहित्यिक पुरस्कारों के माँस भोज में सारा माँस चट कर लेने के बाद यह सूखी हड्डियाँ लौटाने का नया साम्यवादी पर्व शुरु हुआ है ।
कम्युनिस्टों की यही ख़ूबसूरती है । वे गोल बाँध कर हमला करते हैं । जब से नरेन्द्र मोदी की सरकार बनी है , तब से कम्युनिस्ट खेमे में हाहाकार मचा हुआ है । भाजपा को हराने के लिये कम्युनिस्ट न जाने कितने कितने फ़ार्मूले जनता को समझाते रहे । लेकिन इस देश की जनता कम्युनिस्टों की भाषा नहीं समझती क्योंकि उनकी भाषा इस देश की मिट्टी से निकली हुई नहीं होती । उनकी भाषा कभी मास्कों की भट्टी से तप कर निकलती थी और कभी बीजिंग की भट्टी से । इसलिये देश के लोगों ने कम्युनिस्टों को हाशिए पर पटक दिया । साहित्यकारों को आगे करके अपनी राजनैतिक लड़ाई लड़ना तो किसी भी दशा में शोभनीय नहीं कहा जा सकता ।
पिछले दिनों सरकार ने देश में छिपा हुआ काला धन बाहर निकालने के लिये एक स्कीम चालू की थी कि यदि फ़लाँ तारीख़ तक अपना काला धन बाहर निकाल दोगे तो मुआफ़ी मिल जायेगी । उसके बाद पकड़े गये तो क़ानून के अनुसार सज़ा होगी । इसका लाभ उठाते हुए बहुत से लोगों ने अपना काला धन सरकार को लौटा दिया । एक साहित्यकार पूछ रहे थे कि क्या सरकार ने पुरस्कारों को लेकर साहित्यकारों के लिये भी कोई ऐसी योजना लागू की है ? उनका ऐसा भ्रम इसलिये बना क्योंकि नयनतारा और अशोक वाजपेयी की देखादेखी कुछ अन्य स्थानों पर भी इक्का दुक्का लोगों ने यह पुरस्कार लौटाया है । दरअसल साहित्य जगत से जुड़े गये लोग अच्छी तरह जानते हैं कि पुरस्कार प्राप्त करने की भी अपनी एक स्थापित राजनीति है । जिनकी किताबों को पढ़ने के लिये दस पाठक भी नहीं मिलते और जिनकी किताब का पाँच सौ प्रतियों में छपा पहला संस्करण बिकने में दस साल खा जाता है, कई बार उन्हें ही साहित्य शिरोमणि घोषित किया जाता है । कई बार ऐसे व्यक्ति को पुरस्कार मिलता है कि पुरस्कार मिलने के बाद ही साहित्य जगत को पता चलता है कि पुरस्कार विजेता लिखता भी है । यह साहित्य जगत का अपना काला बाज़ार है । जिस प्रकार पुरस्कार लेने की राजनीति है , उसी प्रकार पुरस्कार लौटाने की भी अपनी एक राजनीति है । जो उसी राजनीति के चलते पुरस्कार लेगा तो वह उसी राजनीति के आधार पर पुरस्कार लौटायेगा भी । नहीं लौटायेगा तो तंजीम से बाहर कर दिया जायेगा । जो अपने बलबूते पुरस्कार प्राप्त करता है , वह उसकी अपनी कमाई है । उसके लौटाने का सवाल कहाँ पैदा होता है ? लेकिन जिनको दरबार में रहने के कारण पुरस्कार मिला होता है , उनको संकट काल में दरबार के कहने पर पुरस्कार लौटाना ही होता है । दरबारी परम्परा में इसमें नया कुछ नहीं है । साम्यवादियों से बेहतर इसे कौन समझ सकता है ? पंजाबी में कहा भी गया है- धर्म से धड़ा प्यारा । पंजाब के औलख,भुल्लर और मेघराज मित्तर से ज़्यादा अच्छी तरह इसे कौन समझ सकता है ? पंजाबी की एक दूसरी साहित्यकार प्रो० दिलीप कौर टिवाणा ने पद्म श्री वापिस कर दी । अस्सी साल की उम्र में वैसे भी इन पुरस्कारों और तगमों की कोई औक़ात नहीं रह जाती । उम्र का एक हिस्सा होता है जिस में ये पुरस्कार और तगमे किसी भी व्यक्ति को प्रोजैक्ट करने में सहायता करते हैं । उतना लाभ इन तगमों से लिया जा चुका है । उम्र के चौथे मोड़ पर ये तगमे और पुरस्कार उस बाँझ पशु के समान हो जाते हैं , जिनसे जितना दूध लिया जा सकता था , लिया जा चुका है । अब आगे इसके बयाने और दूध देते रहने की कोई संभावना नहीं है । लोग उस बाँझ पशु को घर से निकाल देते हैं । अनेक साहित्यकारों के लिये इन तगमों और पुरस्कारों की भी यही स्थिति हो गई है । लेकिन उनकी रणनीति की दाद देनी पड़ेगी । उन्हेंने पुरस्कार लेने का भी लाभ उठाया और अब पुरस्कार लौटाने का भी लाभ उठा रहे हैं । भैंस जीती है तो दूध पाओ और उसके मरने के बाद चमड़े से भी पैसा कमाओ । पुरस्कार लौटाकर चमड़े से भी पैसा कमाने की साहित्यिक व्यवसायिकता का प्रमाण ही कुछ साहित्यकार दे रहे हैं । नरेन्द्र मोदी को घेरने के लिये कम्युनिस्ट टोला कितने ही हथकंडे अपना चुका है । लेकिन देश की जनता कम्युनिस्टों का साथ नहीं दे रही । अब उन्होंने साहित्यकारों को आगे करके यह नई लड़ाई छेड़ी है । लेकिन उन्हें शायद यह अहसास नहीं है कि रणभूमि में यह बहुत कमज़ोर बटालियन उतार दी गई है । यह कुछ देर के लिये मनोरंजन तो कर सकती है लेकिन देश की जनता को मुख्य मार्ग से हटा नहीं सकती ।
वैसे पुरस्कार लौटाने के इस नुक्कड़ नाटक में भाग लेने वाले साहित्यकारों को एक प्रश्न का उत्तर तो इस पूरे नाटक में देना ही होगा । हो सकता है कि वह प्रश्न स्क्रिप्ट में न हो । लेकिन मंच के नीचे बैठे दर्शकों को भी आधुनिक नुक्कड़ नाटकों में प्रश्न पूछने का अधिकार तो है ही । दर्शकों का वह प्रश्न है कि देश में इससे पहले भी अनेक दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएँ हो चुकी हैं । दादरी की घटना ऐसी पहली घटना नहीं है । आपात काल को पुरानी घटना भी मान लिया जाये तो १९८४ में कांग्रेस की नाक के नीचे जो नरसंहार हुआ , उसे देख कर किसी की आत्मा क्यों नहीं जागी ? अब तो यह सिद्ध हो चुका है कि उस नरसंहार में उस समय के सत्ताधीशों का प्रत्यक्ष हाथ था । वैसे कार्ल मार्क्स आत्मा की सत्ता को नकारते हैं , लेकिन फिर भी कार्ल मार्क्स को ही साक्षी मान कर बता सकते हैं कि वे अब तक चुप क्यों थे ? वे अब तक चुप क्यों रहे , यह प्रश्न बंगला भाषा की जानी पहचानी लेखिका तसलीमा नसरीन ने भी उठाया है । अरसा पहले नसरीन की पुस्तक पर सरकार ने पाबंदी आयद कर दी थी । पश्चिमी बंगाल की उस समय की साम्यवादी सरकार ने तो तसलीमा का कोलकाता रहना मुश्किल कर दिया था । उनको देश से निकालने की ही तैयारियाँ होने लगी थीं । कारण मुसलमानों की नाराज़गी ही कहा जा रहा था । तसलीमा के अनुसार कुछ भारतीय लेखकों ने उनकी पुस्तक पर पाबंदी लगाने और उन्हें पश्चिम बंगाल से बाहर किए जाने का भी समर्थन किया था। तसलीमा को इस बात पर आश्चर्य हो रहा है कि जब उनके ख़िलाफ़ फ़तवा जारी हो रहे थे । दिल्ली में वे लगभग एक नज़रबन्दी की हालत में रह रही थीं और उनकी किताब पर आधारित एक टीवी धारावाहिक का प्रसारण रोक दिया गया, तब तो लेखक चुप ही रहे । इस साहित्यिक प्रश्न पर तो उनकी आत्मा जाग सकती थी । तसलीमा नसरीन का ग़ुस्सा जायज़ ही है । जिस समय लेखकों को लेखक समुदाय के ही दूसरे लेखक की बोलने की आज़ादी के लिए ,विरोध ही दर्ज करवाना नहीं, बल्कि उसके लिए सक्रिय संघर्ष भी करना चाहिए था , तब तो वे सामूहिक रुप से भी और व्यक्तिगत रुप में भी चुप ही रहे । अब जब मुद्दा आपराधिक है और दंड संहिता से ताल्लुक़ रखता है , तो तीन दर्जन से भी ज़्यादा लेखक पारितोषिक वापिस देने के लिए तैयार हो गये । तसलीमा नसरीन का प्रश्न बिल्कुल जायज़ है लेकिन इसका उत्तर देने के लिए किसी भी लेखक ने स्वयं को बाध्य नहीं माना । यह पुरस्कार लौटाने वालों की जमात का दोहरा चरित्र ही स्पष्ट करता है ।
वैसे तो साहित्य अकादमी की अपनी महिमा भी न्यारी ही रही है । एक बार जम्मू कश्मीर के एक सज्जन एम.के.टेंग ने , वहाँ के उस समय के मुख्यमंत्री शेख़ मोहम्मद अब्दुल्ला की जीवनी आतिशे चिनार लिखी थी । वह जीवनी शेख़ के सुपुर्दे ख़ाक हो जाने के बाद छपी । लेकिन किताब पर शेख़ मोहम्मद अब्दुल्ला का नाम लेखक के नाते ही छाप दिया गया । जबकि टेंग ने किताब के शुरु में ही साफ़ कर दिया था कि मेरी शेख़ की जीवनी लिखने की इच्छा थी । इसलिये मैं उनके पास उनकी जीवन यात्रा की घटनाएँ और क़िस्से जानने के लिये जाता था और शेख़ मूड में आकर बताते भी थे । शेख़ से बातचीत करने के बाद घर आकर टेंग साहिब उनकी जीवनी लिखने का काम शुरु कर देते । इसके बाबजूद कोई घटना गल्त न लिखी जाये , इसके लिये वे लिखने के कुछ दिन बाद शेख़ को जाकर वह दिखा भी आते थे । कोई भी जीवनी लेखक प्रामाणिक सामग्री जुटाने के लिये यह सब करेगा ही । लेकिन बाद में उस किताब का लेखक ही शेख़ अब्दुल्ला को बता दिया गया । किताब के छपते ही साहित्य जगत में हंगामा हो गया कि इस किताब का लेखक किसको माना जाये ? शेख़ को या टेंग को ? शेख़ परिवार की राजनैतिक हैसियत देखते हुये टेंग तो भला क्या साहस दिखाते । वैसे भी उन्होंने इस बात का ख़ुलासा उस किताब में कर ही रखा था । लेकिन साहित्य अकादमी ने आनन फ़ानन में उर्दू भाषा के साहित्य का उस साल का पुरस्कार ही शेख़ मोहम्मद के नाम कर डाला । टेंग चुप रह गये । अब देखना होगा कि जब नयनतारा सहगल व अशोक वाजपेयी ने साहित्य अकादमी के दिये पुरस्कार लौटाने की शुरुआत कर दी है तो क्या अब्दुल्ला परिवार के लोग भी यह पुरस्कार लौटायेंगे ?

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    • आप और क्या चाहते थे उन से ? मैं इतना कहूँगा कि दलीप कौर टीवाना जी को काफी दिनों के बाद याद आया कि देश में एक बार सिक्खों पर अत्याचार हुआ था । उन्होने अपना सम्मान वापस करने का यही कारण बताया । मुनव्वर राणा जी अपना सम्मान लौटाने के लिए, साहित्य अकादमी की अपेक्षा न्यूज़ चेनल के न्यूज़ कक्ष में पहुँच गए और साथ में हमारे एक मित्र को भी साथ ले गए । अब इस लपेट में वैज्ञानिकों और इतिहासकारों को भी ले लिया । इन के अनुसार देश का वातावरण बिलकुल बिगड़ गया है – देश टूटने की कगार पर है । इसे केवल एक वामपंथी बुद्धिजीवी ही बचा सकता है । वही बुद्धिजीवी जिसने अपनी पार्टी से एक पढे लिखे शिक्षित और वयो वृद्ध नेता सोम नाथ चैटर्जी को निकाल दिया था । क्योंकि वह समझदारी की बात करता था ।

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