हमारी विस्मयकारी शब्द शक्ति।

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डॉ. मधुसूदन

  गीतकार होना चाहते हो?
  प्रचण्ड शब्द शक्ति का स्रोत।
  प्रास रचना में भी सहायक ।

(एक) संस्कृत गीत रचना
आपने, पूजनीय, आदरणीय,  माननीय, पठनीय, वाचनीय, निन्दनीय, वंदनीय, अभिनन्दनीय, दर्शनीय, श्रवणीय इत्यादि, शब्द प्रयोग सुने होंगे। ऐसे प्रायः २५० शब्द तो सरलता से भाषा में, मिल ही जाएंगे। इन सारे शब्दों के अर्थ भी जुडे हुए हैं।  जो आपने अनेक बार पढे  होंगे, जाने होंगे।
उदा: वंदनीय= वंदन करने योग्य, या जिसका वंदन करना चाहिए;
पठनीय= पठन करने योग्य, या जिसका पठन करना चाहिए; ऐसे ही अर्थ होते हैं।

अब नीचे दिया हुआ, एक छोटासा संस्कृत गीत देखिए।
यह गीत स्मरणीय, वदनीय, करणीय, रमणीय,शयनीय, जागरणीय, गणनीय, मननीय, त्वरणीय, तरणीय, चरणीय,भ्रमणीय,संचरणीय़ ऐसे शब्दों के प्रास  (तुकान्त) पर रचा गया है।
गीत सरल संस्कृत में ही लिखा गया है।इस गीत की रचना, स्व. पद्मश्री डॉ. श्रीधर भास्कर वर्णेकर जी ने, वनवासी क्षेत्रों में लगे शिविर के लिए की थी। विवेकानन्द शिला स्मारक स्थापक, श्री. एकनाथ जी रानडे के अनुरोधपर, ऐसे  १६४ सरल संस्कृत गीतों की पुस्तक “तीर्थ भारतम्” प्रकाशित की गयी थी।
उन्हीं गीतोंमें से, एक गीत प्रस्तुत है। पढिए न्यूनतम संस्कृत जानकारी से भी इसका अर्थ समझमें आ जाएगा।

(दो) लोकहितं मम करणीयम्
मनसा सततं स्मरणीयम्  । वचसा सततं वदनीयम्
लोकहितं मम करणीय़म्  ॥ध्रु॥
{ मनसा=मनसे , सततं= सदा, वचसा= वाचासे या वाणीसे, वदनीयम् = बोलना चाहिए }

न भोगभवने रमणीयम् । न च सुखशयने शयनीयम्।
अहर्निशं जागरणीयम् ।  लोकहितं मम करणीय़म्।॥१॥
{ भोगभवने =भोग महलमें, सुखशयने = सुखदायी शय्या पे, अहर्निशं=दिन रात }

न जातु दुःखं गणनीयम्  । न च निजसौख्यं मननीयम्।
कार्यक्षेत्रे त्वरणीयम् । लोकहितं मम करणीय़म्॥२॥
{जातु = पैदा होता, निजसौख्यं= अपना सुख, त्वरणीयम् = शीघ्रता करनी है}

दुःखसागरे तरणीयम् ।  कष्टपर्वते चरणीयम्।
विपत्तिविपिने भ्रमणीयम् ।लोकहितं मम करणीय़म् ॥३॥
{ विपत्तिविपिने= संकटों के वन में, गह्वरे= गुफाओमें }

गहनारण्ये घनान्धकारे। बन्धु जना ये स्थिता गह्वरे ।
तत्र मया संचरणीयम् । लोकहितं मम करणीय़म्॥४॥
{गहनारण्ये= घने जंगल में, घनान्धकारे= घने अंधेरे में, मया=मेरे द्वारा}

(तीन) इसी प्रत्यय के कुछ और उदाहरण
करणीय (करने योग्य), स्मरणीय, पूजनीय,  पठनीय, वाचनीय, प्रार्थनीय,गणनीय, तोलनीय, निन्दनीय, प्रशंसनीय, श्रवणीय, दर्शनीय, कम्पनीय, प्रकाशनीय, आदरणीय, दण्डनीय,चिंतनीय, कमनीय,त्यजनीय, भूषणीय, भ्रमणीय,  शोभनीय, वरणीय, गमनीय, भरणीय,  अटनीय, अर्चनीय, अर्थनीय,  भवनीय, आसनीय, अध्ययनीय, निरीक्षणीय, कथनीय,  कोपनीय, कल्पनीय, सेवनीय, क्रीडनीय, क्रोधनीय,  क्षमणीय़, क्षयणीय, खेलनीय, गर्जनीय, गोपनीय, गानीय, ग्रहणीय, घटनीय, चलनीय, जननीय, जपनीय, जागरणीय, ज्ञानीय, तपनीय, तरणीय,  दलनीय, दहनीय, दानीय, दीपनीय, धानीय, ध्यानीय, नमनीय, नर्तनीय, पचनीय, पानीय, पोषणीय, वचनीय, भाषणीय, भोजनीय, भ्रमणीय़ इत्यादि, और भी बहुत शब्द बन सकते हैं।
(चार)गीत या कविता में उपयोग।
विशेष इन सारे शब्दों का अंत -नीय या -णीय में होने से उनका प्रयोग कर गीत या कविता करना भी सरल ही होता है। ऐसे और भी प्रत्ययों वाले शब्द हैं। अभी तो ८० प्रत्ययोंमें से एक ही प्रत्यय का उदाहरण दिया है। लीजिए- नन्दन, मिलन, चलन, पूजन, अर्चन इत्यादि का दूसरा उदाहरण।और लीजिए- याचक, नायक, लेखक, सेवक, दर्शक इत्यादि तीसरा उदाहरण।लीजिए और एक- हर्ता, कर्ता, वक्ता, दाता, ज्ञाता, भोक्ता इत्यादि चौथा उदाहरण।और लीजिए – मानिनी, मालिनी, दामिनी, कामिनी, कुमुदिनी, नलिनी  ऐसा पाँचवा उदाहरण।ऐसे बहुत सारे प्रायः ८० तक उदाहरण दिए जा सकते हैं। यह सारी उपलब्धि देववाणी संस्कृत के कारण है। लेखक ने, हिंदी, गुजराती, और मराठी में कविता लिखने में सरलता अनुभव की है।
(पाँच) संस्कृत शब्द थोक में
विश्वास नहीं होगा, पर कुछ पंक्तियाँ पढने पर आप भी समझ जाएंगे, कि, संस्कृत (अतः हिंदी भी) शब्द थोक में आकलन हो जाते हैं, जब अंग्रेज़ी के शब्द एक एक कर  सीखे जाते हैं। क्यों कि अंग्रेज़ी के शब्द अन्य भाषाओं से उधार लिए गए हैं। इस लिए सामान्यतः आपस में जुडे हुए नहीं होते। कुछ अंश होता भी है, तो हमारे लिए लातिनी, और युनानी भी पराई भाषाएँ होने से हमें कोई लाभ नहीं। इसे एक सिद्धान्त के रूप में कहा जा सकता है।
सिद्धान्त: संस्कृतजन्य (हिंदी) शब्द थोक में आकलन हो जाते हैं।
इस सत्य को समझने में, यदि साधारण पाठक कठिनाई अनुभव करता है; तो उसका कारण संस्कृत की हमारी उपेक्षा और ढूलमूल भाषा नीति-रीति उत्तरदायी है। शायद हमारे सम्मान्य समाज का अज्ञान भी उत्तरदायी है, शिक्षा उत्तरदायी है, शासन भी उत्तरदायी है।

दास्यता के भ्रम में डूबे शिक्षित समाज ने भी अपना दायित्व नहीं निर्वाह किया, जानकारों का कर्तव्य था, इस ओर ध्यान आकर्षित करने का।पर वे मैकाले के ही, समर्थक हो कर रह गए।

(छः) संस्कृत शब्द-गुच्छ
आप जितना समय अंग्रेज़ी एक नया शब्द सीखने में लगा देते हैं, उतने समय में आप संस्कृत के अनेक शब्द अर्थसहित सीख सकते हैं। क्यों कि, संस्कृत के शब्द एक गुच्छे में होते हैं। उसके एक शब्द को समझते ही गुच्छेके अन्य शब्द भी सरलता से समझने में सहायता करते हैं। कुछ संस्कृत के उपसर्ग, प्रत्यय, और धातुओं का ज्ञान होने पर और सरलता अनुभव होती है।
बहुत से शब्दों का अर्थ भी आप हिंदी में प्रयोगों के कारण, जानते ही होंगे, हिन्दी में भी इनका प्रचुर मात्रा में प्रयोग होता है। ऐसे शब्दों से आपकी भाषा भी मंजी हुयी बन कर मोहक हो जाती है।
संस्कृत व्याकरण को बाहर रखकर भी आप इन शब्दों का अंतवाला अंश “अनीय” या “अणीय” जान गए होंगे।
यह शब्द रचना की प्रचण्डता दिखाने के लिए लिखा गया आलेख है।
संस्कृत व्याकरण का  उपयोग करते हुए, नया शब्द कैसे रचा जा सकता है, यह उदाहरणों से पता चलता है। नियम नहीं समझाए हैं। पर, ऐसे शब्दों के उदाहरण मात्र दिए गए हैं।आलेख का उद्देश्य हमारी प्रचण्ड शब्द रचना शक्ति की झलक मात्र दिखाना भी है। संस्कृत व्याकरण ऐसे आलेख में समझाया नहीं जा सकता, न उसकी पर्याप्त जानकारी इस लेखक को है।
संस्कृत व्याकरण के अपवाद रहित, और दोषरहित नियम जाने बिना, नया शब्द रचना उचित नहीं है। वैसे हिन्दी में संस्कृत व्याकरण की दृष्टिसे कुछ अशुद्ध शब्द देखे जाते हैं।पर वे प्रचलित हो चुके हैं। कुछ हिंदी के हितैषी भी हिंदी को संस्कृत के द्वेष पर आगे बढाकर, विकृत कर रहें हैं। फिर कहते हैं, भाषा है बहती नदी। किसी को भी इस बह्ती नदी को प्रदूषित करने का अधिकार नहीं है। परिमार्जित कर ऊंचा उठाने का है, वैसी नदी  अवश्य मान्य है। बदलाव विकृति की ओर न हो, संस्कृति की ओर, उन्नति की ओर स्वीकार्य हैं।
वैसे हिन्दी को संस्कृत के इस सर्व प्रदेश-स्पर्शी गुण पर आरूढ करने से सर्व-स्वीकृति कराने में न्यूनतम कठिनाई अपेक्षित है। संस्कृत के कुछ ही अध्ययन से ही आप अपना शब्द भण्डार भी बढाकर समृद्ध कर सकते हैं। यही सूत्र  बचपन में सीखा था। और एक साथ तीन भाषाओं में मुझे लाभ प्रतीत हुआ था।
विषय बहुत गहरा है। यह केवल एक झलक मात्र देने का ही प्रयास है।

14 COMMENTS

  1. निम्न लिखित संदेश-आय पॅड से प्राप्त हुआ।–मधुसूदन

    ——————————————————————————————-

    आदरणीय मधुसूदन जी ,
    आपके वैदुष्यपूर्ण प्रामाणिक आलेख को पढ़ कर मैंने प्रशस्तिपूर्ण विचार “प्रवक्ता”की टिप्पणी में कुछ विलम्ब से ही लिखे थे ।
    खेद है कि submit पर क्लिक करने के बाद मेरा लिखा जाने कहाँ अदृश्य हो गया । नाम और ईमेल लिखा रह गया ,जिसे कई बार प्रयास करके मिटा पाई । अत: अब व्यक्तिगत रूप से लिखरही हूँ, यद्यपि बहुत सी बातें अब विस्मृत हो गई हैं ।
    अनेकों उदाहरणों द्वारा दिये हुए तथ्यों की पुष्टि से पाठकों का आश्वस्त होना स्वाभाविक है और सुनिश्चित भी । हिन्दी की समृद्धि अपनी जननी और मूल भाषा संस्कृत पर ही आधारित है ,अत: उसकी अवहेलना और विदेशी शब्दों की स्वीकृति हिन्दी के स्वरूप को विकृत ही कर देगी – इसमें कोई सन्देह नहीं है । हम काँच को हीरा और हीरे को काँच समझकर अपनी ही हानि कर रहे हैं ।इस दिशा में आपके सारगर्भित एवं रोचक आलेख निरन्तर पूर्णरूपेण सार्थक और सफल सिद्ध हो रहे हैं ।
    मैं गत मास संस्कृत भारती के कावेरी शिबिर में गई थी वहाँ और उनकी कक्षाओं में ये श्रुतिमधुर गीत पहिले भी सुना और गाया भी था -” लोकहितं मम करणीयम् । ” आनन्द आया । आपका प्रयास श्लाघनीय है । हम सभी हिन्दी भाषियों द्वारा भी इस दिशा में प्रयत्न करणीय हैं ।
    सादर ,
    शकुन्तला बहादुर

  2. “विस्मयकारी शब्दशक्ति” को अतीव सरल एवं रोचक विधि से अनेकों उदाहरणों द्वारा संस्कृत भाषा का स्पष्ट और सुदृढ़ आधार प्रस्तुत
    करके, आपने हिन्दी भाषा भाषियों के समक्ष भी एक विशाल शब्द-सिन्धु का द्वार खोल दिया है । अंग्रेज़ी के सम्मोहन में हम हीरे को काँच
    और काँच को हीरा समझने की भारी भूल कर रहे हैं । आपके श्रमसाध्य ज्ञानवर्धक लेख भारतीयों की आँखों पर से इस भ्रममूलक मिथ्या
    आवरण को हटा देंगे – वे अपनी अस्मिता, संस्कृति और साहित्य की ओर आकृष्ट हो सकेंगे – ऐसी आशा मन में हिलोरें लेने लगती है ।
    इस दिशा में हम सभी के द्वारा प्रयत्न करणीय हैंं ।
    “लोकहितं मम करणीयम्” गीत से संस्कृत-भारती की कक्षाओं और कावेरी शिबिर के दिन याद आ गए । विश्वविद्यालय स्तर पर तो हमने
    संस्कृत भी अंग्रेज़ी माध्यम से ही पढ़ी थी ,जिस कारण से हम इस ज्ञान में उतनी गहराई तक नहीं जा सके , जहाँ पहुँचना चाहिये था । ऐसा मुझे अनुभव होता है।

    • धन्यवाद और नमस्कार, बहन शकुन्तला जी, नितान्त सही कहा आपने।
      अंग्रेज़ी द्वारा संस्कृत सीखने में, हम संस्कृत के नादमाधुर्य से. और उसकी गूढ गुंजक सुंदरतासे भी, वंचित ही रहेंगे। इसके अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं।
      जो छलक माधुरी संस्कृत में पाएंगे, उसका दशांश भी अंग्रेज़ी में व्यक्त नहीं हो पाता।
      पर कुछ तो श्रेय पाश्चिमात्त्यों को अवश्य दूंगा। इतने पर भी वे हमारे मेघदूत, रघुवंश, शाकुन्तल इत्यादि अनेक काव्यो एवं नाटकों में, रूचि लेकर पढते रहे हैं।
      युरप की ८० शालाओ में संस्कृत का ६ वर्ष के लिए अनिवार्य(हाँ, अनिवार्य) किया जाना, अपने आप में भारत के लिए एक अनुकरणीय पाठ है। मैंने भी शाला में ४ वर्ष संस्कृत को श्वैच्छिक रूपसे ही पढी थी। और फिर स्वाध्याय से अध्ययन करता रहा हूँ।
      आपकी टिप्पणी पर ऐसे विचार आते हैं– प्रोत्साहन के लिए फिरसे धन्यवाद।

  3. प्रबुद्ध पाठकों ने, और जानकार विद्वानों ने भी, समय निकाल कर जो प्रोत्साहक टिप्पणियाँ दी, उनके लिये आभार व्यक्त करता हूँ।
    वास्तव में यह हमारी सभीकी परम्परा प्राप्त धरोहर है।पाणिनि का योगदान कहें, या देववाणी का असीमित उपकार, संस्कृत जैसा परम शुद्धातिशुद्ध स्वरूप, आज तक कोई भी (हाँ, कोई भी) अन्य भाषा प्राप्त नहीं कर सकीं। कितने सारे गुण अभी व्यक्त कर नहीं पाया हूँ।
    गत ५० वर्षों के भाषावैज्ञानिक युग को जिनके नाम से जाना जाता है, वें, प्रोफेसर “नओम चोम्स्की” कहते हैं, कि –(अब श्वास रोककर पढिए) “भारत ई.पू. ५ वीं शताब्दी में जितना भाषा विज्ञान में उन्नत था, उतना सारा पश्चिम १९ वीं शताब्दी में नहीं।”
    — अर्थात भारत संसार में भाषा की दृष्टि से २५०० वर्ष आगे हैं।पर यह सच्चाई भारत को ही, पता नहीं है।
    इसपर रोएं, या हँसे?
    मुझे रोना ही आता है।
    पर, भारत ही अपने विषय में अज्ञानी है। वह जंगल में खोया गया राजपुत्र है। जिसको अपने विषय में ही जानकारी नहीं।
    विश्वमें सभी देश उन्नति-अवनति की लहरोंपर कभी ऊंचे कभी नीचे हुआ करते हैं। हम भी उठेंगे। उषःकाल की भेरी बजने लगी है।

  4. प्रो.मधुसुदन जी ने एक विशद और कठिन विषय को अपने चिंतन, मनन व विद्वत्ता से अत्यंत सुबोध, सरल व सरस बना कर प्रस्तुत किया है. हिंदी पर लिखे गए इनने लेखों की एक पुस्तिका प्रकाशित हो सके तो कितना हितकारी होगा. मैंने इस दिशा में एक प्रयास शुरू तो किया पर कोई बड़ा प्रकाशन यह प्रयास करे तो अधिक सुफल देने वाला होगा. साधुवाद एवं सादर अभिनन्दन.

    • डॉ. राजेश कपूर जी—आपका पुस्तक प्रकाशन का सुझाव विचारा जा रहा है। युनिवर्सीटी ऑफ मॅसेच्युसेट्स की ओर से निकालने की संभावना है।कुछ प्रसिद्ध प्रकाशक भी विचारे जा रहें हैं। कुल ६१ आलेखों में ४० आलेख अन्यान्य भाषाओं पर ही है। १५-२० प्रवक्तामें भी भेजे नहीं थे—वें विशेषज्ञों के लिए लिखे गए थे। सामान्य पाठक को उनमें रूचि और समझ होना संभव नहीं लगता था।
      आपका और हाइस एयर मार्शल -श्री. विश्वमोहन तिवारी जी का प्रोत्साहन के लिए मैं ऋणी हूँ।
      बहुत बहुत धन्यवाद।

  5. आएये आगामी संस्कृत दिवस (श्रावणी पूणिमा २१ अगस्त ) तक हम सब कुछ ना कुछ संस्कृत सीखें और बोले. अभी हाल में मैंने केन्द्रीय सूचना आयोग में श्री ऍम अल शर्मा की आज्ञा से कक्ष में उपस्थित सभी लोगों को ५० वर्ष पूर्व पढ़े श्लोकों को सूनाया

  6. हिन्दी को जो संस्कृत का अजस्र स्रोत मिला है उससे हट कर वह अपने मूल से ही कट जाएगी .और तब उसका पराभव निश्चित है .भाषा पूरी संस्कृति को वहन करती है ,वर्तमान के लघु -खंड को काल की अविराम धाऱा से जोड़ते हुये शताब्दियों के इतिहास को साथ ले कर चलती है .केवल हिन्दी नहीं भारत की अधिकांश भाषाओं में संस्कृत के शब्दों का आधार रहा है और वही उनके संस्कारों में रसी-बसी है .उस मूल का रस जो पोषण दे सकता है सहज विकासउसी से संभव है् अन्यथा अपनी प्रकृति से अलग हो बिखराव और अलगाव ही पल्ले पड़ेगा. खंड होकर नहीं अखंड हो कर हम अपनी इयत्ता को अक्षुण्ण रख सकते हैं .

  7. आदरणीय
    व्हाइस एअर मार्शल विश्वमोहन तिवारी जी, सादर नमन।
    आप के और डॉ, राजेश कपूर जी के प्रोत्साहन से, मैं लेखन में विशेष प्रवृत्त हुआ था ।
    कुछ दिन पहले, बाल विकास प्रकल्पों में; आपका सक्रिय योगदान देखकर भी, मैं विशेष प्रभावित हूँ। जब, “यः क्रियावान् स पण्डितः।” –जानकार भी कह सही सही गए हैं।
    आप के उदार शब्दों के लिए मैं ऋणी रहूंगा।

  8. श्रद्धेय डा० साहब,
    दुर्भाग्य है इस देश का कि यहाँ भारतीयता को छद्म शासकीय नीतियों के द्वारा नीलाम कर दिया गया है । मैं आज ही एक प्रतिष्ठित दैनिक समाचार पत्र के विद्वान संपादक का विशेष संपादकीय पढ़ रहा था जिसमे उन्होने कहा है कि भाषा सांप्रदायिक नहीं होती।मेरा मानना है कि भाषा सांप्रदायिक होती है क्योंकि जब शासन ने अपनी भाषा अरबी को बनाया तो संस्कृत की हत्या करने में उसने कोई कमी नहीं छोड़ी।यही कारण है कि आज संस्कृत के सोलह संस्कारों में से कहीं विवाह संस्कार तो कहीं अंतिम संस्कार और कहीं कहीं नामकरण संस्कार ही देखे जाते हैं।बाकी को हम भूल गए। कारण ये है कि हमे इन्हे भूलने के लिए विवश किया गया है।जब हम अपने सांस्कृतिक मूल्यों से मुंह फेर रहे थे तभी हमे अंग्रेजी ने बताना आरंभ किया कि वेद आदि तो ग्वालों के गीत हैं,और हमने उन्हे ऐसा ही जानकर छोड़ दिया।फलस्वरूप अँग्रेजी आधुनिकता की पहचान बनकर आई । आजादी के बाद नेहरू जी ने देश को खिचड़ी भाषा हिंदुस्तानी के नाम से देने का प्रयास किया।
    अब आप जैसा विद्वान संस्कृत की पुनः प्रतिष्ठा के लिए वंदनीय,अभिनंदनीय,नमनीय,वरणीय,अतुलनीय,अनुकरणीय,चिंतनीय, मननीय,स्तवनीय प्रयास करता यदि कहीं दीखता है तो अच्छा लगता है। परंतु जैसा कि आपने कहा कि मेरा प्रयास अपनी संस्कृत भाषा के बारें में बहुत ही प्राथमिक स्तर का है तो इसी बात से पता चल जाता है की जिस भाषा का प्राथमिक ज्ञान इतना ज्ञानवर्धक है तो उसका विस्त्रत ज्ञान कितना व्यापक और गूढ होगा?आपके आलेख को सादर “उगता भारत” में प्रकाशित करा रहा हूँ ।
    सादर

    • प्रिय राकेश जी,
      शायद आप की टिप्पणी का उत्तर मैं देना भूल गया था। अब क्या कहा जाय? क्षमा कीजिएगा।

      (१) बात सही है, आपकी। मेरी मान्यता में, आज तक पाणिनि को टक्कर मार सके ऐसा विद्वान न जन्मा है, और आगे भी जन्मने की संभावना नगण्य है।
      कारण हमने ग्यान का आदर्श खो दिया है।
      (२)हम तो बौने हैं। क्यों कि हम धन के लिए व्यवसाय करते हैं। पाणिनि ऐसे धनार्थी नहीं हो सकते। जब तक हम अपने वर्णों को परिशुद्ध नहीं कर लेते, तब तक भूल जाइए कि कोई पाणिनि भारत में जन्मेगा।
      ॥ ब्रह्म जानाति सः ब्राह्मणः ॥ आज का ब्राह्मण भी गिर चुका है।
      (३) यह सारे हमारे सनातनत्व के घटक हैं। क्या भाषा? क्या लिपि? क्या अंक? क्या गणित? क्या धर्म? क्या शास्त्र? यह सारा किसी धनार्थी को प्राप्त नहीं हो सकता था ?
      पर ऐसे ग्यानी को धन से भी बडा जो सम्मान दिया जाता था। हमारा तो राजा भी संन्यासी के चरण छूता था।
      ———
      (३) हमारे अंकों से सारा संसार गिनती करता है। हमारे पाणिनि के सूत्रों से आज के संगणक का आंतरिक परिचालन होता है। ध्यानयोग जगत की चिंता हरता है। इत्यादि …………..
      विवेकानंद जी कहा करते थे, कि, “देश के पश्चात देश, सोचते चलो तो—प्रत्येक देश भारत का ऐसा ऋणि है, कि, सारे देश कभी उऋण नहीं हो सकते।” —जी ये मैंने नहीं विवेकानंद जी ने कहा है।
      आगे विवेकानंद कहते हैं, ” भारत में राज किसी भी वर्णका, क्यों न हो, पर ध्यान रहे, कि, संस्कृति का ग्यान प्राप्त किए बिना उन्नति नहीं हो सकती। धन को बाँट लोगे, पर उन्नति नहीं कर पाओगे।” क्या यही दिखाई नहीं देता।
      आजका भ्रष्ट शासन इसीका उदाहरण है।
      आप की टिप्पणी बिन देखे, रह गयी थी।
      क्षमस्व और धन्यवाद।

  9. अपनी विरासत में मिली “विस्मयकारी शब्द शक्ति” को छोड़कर हम लोग एक कठिन भाषा को अपना बनाने में समय और ऊर्जा का व्यर्थ व्यय कर रहे हैं, अपनी पहचान, संस्कृति खो कर पाश्चात्य सभ्यता की भोगवादी संस्कृति की‌ नकल कर ‘राक्षस’ बन रहे हैं, और समझ रहे हैं कि हम आधुनिक बन रहे हैं। लगता है कि हमें आधुनिकता की परिभाषा नहीं मालूम।फ़ैशन की नकल कर आधुनिक नहीं बनते, वरन शाश्वत जीवन मूल्यों की रक्षा करते हुए, आधिनुक ज्ञान प्राप्त और आत्मसात कर आधुनिक बनते हैं ! गंगा को छोड़कर कुआ खोदने से प्यास नहीं मिटेगी। क्या कहें ऐसे समय को !

    अंग्रेज़ी को एक उपयोगी‌ भाषा की तरह अवश्य सीखें, किन्तु अपनी मातृभाषाओं को तो पूरा सम्मान देते हुए, उनमें अपना जीवन जियें । किन्तु लगता है कि अपनी भाषा को दुत्कार कर, विदेशी भाषा को अपनी‌ मां के समान सम्मान देते हुए हम भूरे बन्दर बनना चाहते हैं, ऐसा बन्दर जिसकी डोर पश्चिम के हाथ में है।

    हम हरिद्वार के शुद्ध गंगाजल को छोड़कर एक कुआ खोदने में‌लगे हैं।
    क्या यह समझना इतना कठिन है ?
    डा. मधुसूदन जी को अनेकश: धन्यवाद जो इस गूढ़ विषय को सरल बनाते हुए, रोचक और उपयोगी उदाहरण देते हुए एक तपस्वी की तरह लगातार स्थापित कर रहे हैं. वे नमनीय हैं।
    विश्व मोहन तिवारी,

  10. मधुभाई, इस लेख से आपने वसुवज के संस्कृत वचनं के क्लास्स की याद दिला दिए. बहुत सुन्दर ढंग से आपने संकृत एवं हिंदी शब्द रचना और उनको सरलता से समझने की शैली को पुनः उद्धृत किया है. साधुवाद

    – बलराम सिंह

    • (१)धन्यवाद आपका।

      (२)बलराम जी और श्रीमती रेखाजी सिंह –दोनों को २१ वीं कांग्रेस के लिए भी धन्यवाद। ४ दिन बडे आनन्द में व्यतीत हुये।

      (३) वसुवज जी ने, बहुत रोचक ढंगसे पढाया था। बच्चे भी उनकी शैली से काफी प्रोत्साहित थे।
      लगता है, अब, एक संस्कृत भारती का (दूसरे स्तरका) दूसरा सत्र किया जाये।
      काफी रूचि रखनेवाले छात्र-और अन्य भी मिल जाएंगे। आप “सेंटर फ़ॉर इण्डिक स्टडिज़” की ओर से पहल करें।
      सहकार भी मिल ही जाएगा।

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