कविता

नरेश भारतीय की कविता /बाट जोह रहा हूँ

बुझा चाहती है

आँख के दिए की बाती

पीती रही है रुधिर की धार जो

अवरूद्ध होने लगी है.

मेरे मन संकल्प का दिया

कब तक जलेगा

नहीं जानता,

मस्तिष्क में बहुत सोच बाकी है

शब्दों का रूप देने की उतावली है,

लेकिन जलते बुझते इस दिए के

अनिश्चित से व्यवहार को देख

प्रकाश के अभाव में

कहाँ तक और कब तलक चलेंगी

वे उँगलियाँ जो निराकार को देती रहीं

आकार

विचार को गति

गति को दिशा

दिशा को पथ

पथ को लक्ष्य

सदा स्पष्ट रहा जो जीवन भर.

कहने भर को मैं दूर रहा

फिर भी हर क्षण माँ

तुझको ही जीआ मैंने

तेरे चरणों की ही रज

माथे पर रच कर

हर श्वास में तव नाम जपा

जग भर में चलते रह कर

अस्तांचल में पहुंचा हूँ.

घटते पग हैं

संकरे पथ हैं

कंकर पत्थर हैं

थका नहीं हूँ मैं

बस पल भर को थमा हूँ

बाट जोह रहा हूँ उसकी

जो दिल की धड़कनों को सुन ले

और जान ले बस इतना कि

कैसे पहुँचाना है

भारतीयत्व का अमर सन्देश

उन दिलों तक

जो अभी धड़के नहीं हैं.

नव दीपों की बाती को

मिले नव प्रखर रुधिर

जलते रहें वे पल पल

आलोकित करते

राष्ट्रसाधना पथ.