-जगदीश्वर चतुर्वेदी
यहां उल्लेखनीय है कि आडवाणीजी ने बेल्जियम के विद्वान की पुस्तक के अलावा एक और पुस्तक जारी की थी ‘‘हिंदू मंदिर: उनका क्या हुआ ’’ इसमें अरूण शौरी, हर्ष नारायण, जय दुबासी, राम स्वरूप तथा सीताराम गोयल आदि के लेख हैं। गोयल के लेख में 2000 मुस्लिम इमारतों की सूची है। ये वे इमारतें हैं जो मंदिरों को तोड़कर बनाई गई थीं। अब आडवाणी तय करें कि वे किस पुस्तक को अपने प्रमाण के लिए इस्तेमाल करना चाहेंगे? क्योंकि ऐतिहासिक, साहित्यिक, पुरातात्विक प्रमाण उनके साथ नहीं हैं। यहां तक कि विदेशी बेल्जियम विद्वान भी उनके मूल लक्ष्य को पूरा नहीं करता।
इस समूचे प्रकरण में विहिप एवं भाजपा ने डा.एस.सी.गुप्ता के इतिहास लेखक को खूब अपने पक्ष में उछाला है, इन्हीं महाशय ने 23 दिसंबर 1989 को गुंटूर आंध्र प्रदेश में कहा था कि राममंदिर मस्जिद के सामने वाले हिस्से में स्थित ‘चबूतरे’ पर था। क्या इतिहासकार महोदय बताएंगे कि गुंटूर के बयान में एक वर्ष में ऐसा कौन सा ऐतिहासिक साक्ष्य जुड़ गया, जिसके कारण वे अचानक नए ऐतिहासिक साक्ष्य लेकर अवतरित हुए हैं। असल में, उस समय एक नई कोशिश चल रही थी। भूतपूर्व प्रधानमंत्री स्व.राजीव गांधी ने उस समय प्रस्ताव दिया था। संघ परिवार उसी प्रस्ताव की ओर आंखें लगाए बैठा है। स्व.राजीव गांधी ने 1 दिसंबर 1990 के अपने प्रस्ताव में कहा था कि एक जांच कमीशन बनाया जाए जो यह पता करे कि क्या राममंदिर तोड़कर मस्जिद बनाई गई थी इसके लिए पांच कार्यरत सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों का कमीशन बनाया जाए जिनका चयन मुख्य न्यायाधीश करेंगे। तत्कालीन प्रधानमंत्री स्व.चंद्रशेखर ने भी इस फॉर्मूले को लागू करने का मन बना लिया था । उस समय वामपंथी दलों खासकर माकपा के वरिष्ठ नेता हरिकिशन सिंह सुरजीत के दबाब के कारण यह प्रस्ताव लागू नहीं हो पाया था।
संघ परिवार और कांग्रेस के लोग अंदर -अंदर फिर से इस प्रस्ताव की दिशा में काम कर रहे हैं। धर्मनिरपेक्ष ताकतों को केन्द्र सरकार पर निगरानी रखनी चाहिए जिससे वह ऐसा कोई भी प्रस्ताव लागू न कर सके जो भारत धर्मनिरपेक्ष चरित्र को कलुषित करे। वस्तुत: यह प्रस्ताव ही बेमानी है। इस प्रक्रिया में हिंदू तत्ववादियों के हाथों मस्जिद की जमीन सौंपे जाने की आशाएं हैं।
बाबर ने मंदिर तोड़ा था या नहीं, किसी और ने तोड़ा था या नहीं, क्या इसका फैसला हो जाने भर से भारतीय दंड संहिता एवं पुरातत्व संरक्षण कानून के प्राचीन इमारतों से संबंधित सभी कानूनी प्रावधानों को क्या कोई भी सरकार एक ही झटके में बदल सकती है ? अगर ऐसा होता है तो धर्मनिरपेक्ष संविधान एवं कानून की समूची प्रकृति ही बदलनी होगी।
स्व. राजीव गांधी का फॉर्मूला वस्तुत: धर्मनिरपेक्ष कानून की प्रकृति को ही तोड़ देगा। अपने प्रधानमंत्री काल में स्व.चंद्रशेखर जी ने स्व.राजीव गांधी के प्रस्ताव का खुला समर्खन किया था। यह प्रस्तान अभी भी पुराने अखबारों और राजनीतिक दलों की फाइलों में हैं।
उल्लेखनीय है जनता पार्टी के अध्यक्ष के नाते स्व.चंद्रशेखर ने 9 नवंबर 1987 को कहा था कि बाबरी मस्जिद के सवाल पर इतिहास का दुरूपयोग किया जा रहा है। मंदिर का ताला खोलकर बड़ी भूल की गई है, अमृतसर का ब्लूस्टार ऑपरेशन ही पर्याप्त था, इसे राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद के संदर्भ में दोहराया नहीं जाना चाहिए। आप जानते हैं कि मस्जिद पांच सौ वर्षों से है, क्या तुम इतिहास की पुनर्रचना करोगे? (द टेलीग्राफ, 11 नवंबर 1987)
उम्मीद है कि बाबरी मस्जिद प्रकरण के बहाने स्व.राजीव गांधी के प्रस्ताव का उनकी पत्नी सोनिया गांधी और उनका बेटा राहुल गांधी अनुकरण नहीं करेंगे और दुबारा इतिहास रचना नहीं होने देंगे! और न ही किसी भी किस्म का सांप्रदायिक शक्तियों की ओर समर्पण करेंगे। देश का प्रधानमंत्री होने के नाते वह राष्ट्रीय एकता परिषद् के उस प्रस्ताव से बंधे हैं, जिसमें बाबरी मस्जिद विवाद पर आम राय
कायम हुई थी, सिर्फ भाजपा इसके खिलाफ थी, देश की शांतिप्रिय जनता इस विवाद का सर्वमान्य समाधान चाहती है, पर शांति एवं सद्भाव के साथ, न कि सांप्रदायिक तुष्टीकरण के माध्यम से।
संघ परिवार और भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने कई बार कहा है कि जिस तरह सोमनाथ मंदिर बनाकर पटेल ने राष्ट्रीय गौरव बढ़ाया, उसी तरह अयोध्या का राम मंदिर बनाकर पुन: राष्ट्रीय गौरव बढ़ाया जाना चाहिए।
इस संदर्भ में पहली बात तो यह है कि सोमनाथ मंदिर का निर्माण किसी अन्य देवस्थान या इमारत को गिराकर या स्थानांतरित करके नहीं किया गया। वहां खाली जमीन थी तथा सरकार ने मंदिर बनाने का फैसला किया था। तत्कालीन केंद्रीय मंत्री एन.वी.गाडगिल ने अपनी पुस्तक गवर्नमेंट फ्रॉम इनसाइड में लिखा है कि ‘सरदार पटेल और मैं जूनागढ़ गए थे और वह प्राचीन जगह देखी जहां कभी प्राचीन मंदिर था।’
हमने यह फैसला किया कि ‘इस मंदिर का पुनर्निर्माण किया जाए।’
आडवाणी का तर्क कि पटेल ने सोमनाथ बनाया। मैं (आडवाणी) अयोध्या मंदिर बनाऊंगा, हास्यास्पद ही नहीं, पटेल का अनादर भी है। सरदार बल्लभभाई पटेल ने 9 जनवरी 1950 को गोविंदबल्लभ पंत को लिखे पत्र में अयोध्या विवाद पर कहा था, ‘अगर हम इस मुद्दे का किसी गुट को लाभ उठाने देते हैं तो यह दुर्भाग्यपूर्ण होगा।’ वे कहते हैं, ‘इस तरह के विवादों को ताकत के जरिए हल करने का कोई सवाल ही नहीं उठता है। अगर ऐसा हाता है तो कानून तथा व्यवस्था के बलों को हर कीमत पर शांति बनाए रखनी होगी। अगर शांतिपूर्ण तथा समझाने-बुझाने के तरीकों का इस्तेमाल किया जाना है तो आक्रमण या जोर-जबर्दस्ती के रूख पर आधारित किसी भी एकतरफा कार्रवाई को बर्दाश्त नहीं किया जा सकता है। इसीलिए, यह मेरा पक्का विश्वास है कि इस सिलसिले को इस प्रकार ज्वलंत मुद्दा नहीं बनाया जाना चाहिए।’ यानी पटेल शांतिपूर्ण समाधान चाहते थे, जोर-जबरर्दस्ती के विरोधी थे, इसे ज्वलंत मुद्दा नहीं बनाना चाहते थे, इसके विपरीत पटेल के नए भक्त आडवाणीजी जोर-जर्बदस्ती से हिंसा के जरिए एवं ज्वलंत मुद्दा बनाकर इसे हल करना चाहते हैं। क्या अब भी पटेल और आडवाणी को एक स्तर पर रखा जा सकता है?
चतुर्वेदी जी आपको एक ख़ास जानकारी देदूं. इतिहास के ठोस प्रमाण उपलब्ध हैं की मक्का में कभी हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तियाँ थीं. अगर आप में थोड़ी सी भी इमानदारी बची है तो कहिये की वह स्थान हिन्दुओं को दिया जाय और या फिर उसका आधा हिस्सा हमें सौंपा जाय क्योकि कभी उसपर हमारा अधिकार रहा है. विशेष बात यह है कि हमारे पूर्वजों ने उस पर जबरन अधिकार नहीं किया था. ज्ञात इतिहास काल से ही उसपर हमारा अधिकार रहा है. जानाताहूँ कि इतना साहस और इमानदारी आप लोगों में नहीं है. फिर आप किस अधिकार से हम हिन्दुओं की आलोचना करते हैं ? किस अधिकार से हमें उदारता दिखलाने को कहते हैं ?
– भारत के शत्रु आक्रमणकारी बाबर को अपना मानने वाले भारत के कैसे हो सकते हैं ? ऐसों के प्रति जिनकी सहानुभूति व समर्थन हो वे हमारे मित्र नहीं हो सकते, वे केवल शत्रु हैं, आक्रामक बाबर की तरह.
** तिलक राज रेलन जी आप की टिप्पणियां बड़ी सटीक, सही व प्रभावी हैं. शुभकामनाएं !
प्रमोद जैन जी का जवाब मेरा भी माना जाए.
चतुर्वेदीजी , राजीव और आडवानी की तुलना न करें आडवानी के मुख में राम बगल में छुरी है राजीव और कांग्रेस की राम भक्ति ताला खुलने , शिलान्यास ,बाबरी ढांचा गिरने ,और अब उच्च न्यायालय का फैसला से सिद्ध हो चुकी है , बी जे पी ने राम के नाम पर केवल वोट खींचे हैं जब की राजीव और कांग्रेस ने कर दिखाया है .कोइ माने या न माने इससे कोई फर्क नहीं पड़ता . राजीव और कांग्रेस पर भारतीय जनता ने भरोसा किया है जिसे सोनिया और राहुल पर भी बी जे पी से अधिक भरोसा है
वाह ज़नाब, कितना अच्छा सोचते है, ये आपकी खुस्किस्मति है की आप भारत में हो और इसी देश में आपको कुछ भी बोलने की आजादी है. अगर आपमें हिम्मत है है तो की मुस्लिम देश में रहकर मुस्लिम के खिलाफ बोलकर के दिखाओ. क्या धर्मनिरपेक्षता सिर्फ हिन्दुओ के लिए ही है, मुस्लिम का मक्का नहीं है बाबरी मस्जिद जो इतना तड़फ रहे हो. हिम्मत है तो ये कहो की मक्का में भी हिन्दुओं के मंदिर होने चाहिए, क्रिस्चियन के चर्च हो सिखों के गुरूद्वारे हो. ये तो हिन्दू बहुल देश में ही आपकी दूकान चलती है वर्ना अबतक तो आपका कितनी बार क़त्ल हो गया होता है. बोलने से पहले तोलना सीखो
बहुत बहुत बधाई हो
जगदीश्वर चतुर्वेदी जैसे लोग बेशर्मी से जातिवादी उपनाम रखते हैं और कहते हैं वामपंथी हैं! इतना घटिया लेख और घटिया तर्क की उम्मीद नहीं थी. वामपंथियों की सत्तालोलुपता किसी से छुपी नहीं है. सिर्फ वोट बैंक के लिए मुसलामानों के सामने इस पार्टी ने घुटने टेक दिए हैं. स्वाभाविक है यह पार्टी मुसलमानों के लिए काम करेगी. वामपंथियों ने बंगाल और केरला में विरोधियों का सुनियोजित सफाया किया है. चतुर्वेदी इसी सोच की उपज हैं.
श्रीमान चतुर्वेदी जी के लेख यह जानने-समझने का प्रमाणिक माध्यम है कि समाजवादी और वामपंथी भारत की विभिन्न समस्याओं व संस्कृति के प्रति क्या सोचते है, इनका चरित्र क्या है.
– अतः इनके लेखों पर प्रतिक्रया देने से भी कहीं अधिक महत्व की बात है इनकी मानसिकता को समझ कर उनके प्रति अपना दृष्टीकोण व व्यवहार निश्चित करना. इनके पूर्वाग्र, भारतीयता से चिढ, देशद्रोही ताकतों की तरफदारी, हमारे आस्था केन्द्रों को तोड़ने के प्रयास.
– इनके भारत के बाहर श्रधा केंद्र व वैचारिक प्रेरणा स्रोत होने की असलियत.
* इन सबको समझते हुए इनके सही चरित्र को समझते रहने की ज़रूरत है..
चतुर्वेदी जी, आपका लेख पूर्वाग्रह से ग्रस्त है.सारा विश्व जानता है कि कौन सा धर्म या मजहब कट्टरवादी है. रही बात मंदिर या मस्जिद की उसका निर्णय तो न्यालय दे ही रहा है और निर्णय आने के बाद कौन मानेगा और कौन नहीं ये भी आप देख ही लेंगे और अवश्य ही अपने विचार बदलने के लिये बाध्य हो जायेंगे.
ये तो पता नहीं कि पटेल और अडवाणी को एक स्तर पर रखा जा सकता है या नहीं…पर इतना अवश्य है कि लेखक को “जिन्ना” के स्थान पर जरूर रखा जा सकता है…
चतुर्वेदीजी,तर्क तो आप अच्छा देतें हैं और चुकीं आप हिंदी के प्राध्यापक हैं तो भाषा पर आपकी पकड़ भी बहुत अच्छी है,जोकि होना भी चाहिए,पर एक प्रश्न पूछूं? क्या आप वास्तव में समझते हैं की भारतीय गणतंत्र धर्म निरपेक्ष हैया उसके शासक भारतीय संविधान निहित धर्मं निरपेक्षता का पालन करते हैं?धर्म निरपेक्षता का क्या मतलब होता है?कोई भी इंसान धर्म विहीन नहीं हो सकता,चाहे वह इश्वर को माने या न माने.मेरे विचार से बौध धर्म में भगवान् नहीं हैं,पर आप यह नहीं कह सकते की वहां धर्म नहीं है. अतः जब तक आप सब धर्मो का आदर करना नहीं सीखते तब तक आपकी धर्म निरपेक्षता केवल एक ढोंग है.मेरे विचार से भारतीय संविधान का मूल सन्देश भी यही है.पर वास्तविकता यह है की अगर हम हिन्दू हैं और हिन्दुओं के पक्ष में बोलते हैं तो सांप्रदायिक माने जाते हैं.मैं मानता हूँ की हिन्दू धर्म में बहुत कुरीतियाँ हैं जिसके कारण वह आज भी अपने आप से ही जूझता हुआ नजर आता है और कट्टरपंथियों के हाथ का गुलाम हो गया है,पर यही हाल अन्य धर्मों का भी है खास कर उस मजहब का जिसकी हिमायत आप सर्वदा बड़े जोर शोर से करते आ रहें हैं.रह गयी अयोध्या में उसी जगह मंदिर निर्माण की बात तो उसके बारे मैं यही कह सकता हूँ की अदालत के निर्णय को मान्यता दी जाये, चाहे वह जिसके पक्ष में जाये.अपील की गुंजाईश है तो वह भी करके देख लिया जाये.मुश्किल तो तब आती है ,जब सरकार किसी निर्णय को लागू करने या कराने में असमर्थ हो जाती है,जैसा की आपने श्री अरुण शौरी के एक पुराने आलेख के उद्धरण में यहाँ देख ही लिया होगा.यह क्यों नहीं होता?इसका कारण और कुछ नहीं ,बल्कि यह है तब जिनको बोलना चाहिए वे अपनी जबान नहीं खोलते.मैं उनलोगों की और इशारा कर रहा हूँ जो आपने को न्याय सांगत विचार dhaaraa wale maanate hain.kisi bhi desh ke utthan ke liye yah jaroori hai ki aise logon ki sankhyaa jyada ho aur ve khulkar saamane aayen.Iss desh ka durbhagya hai ki ya to aise log hain hi nahi yaa hain bhi to ve bolanaa bhool gayen hain
अजीब अफ़सोस हो रहा है कि लेखक महोदय अपनी समस्त उर्जा और विद्वता को एक ऐसे तथ्य को स्थापित करने में लगा रहे हैं जिसका आज कोई मतलब नहीं है. महोदय, और ढेर सारी समस्या देश के समक्ष विद्यमान है. उस पर ध्यान केंद्रित कीजिये. रही बात तथ्यों की तो अब सब कुछ न्यायालय के समक्ष कलमबंद हो गया है 24 तारीख तक धैर्य धारण करने में क्या नुक्सान हो जाएगा आपका. आप ये भी समझ लें की सवाल तथ्य से ज्यादा भावनाओं का है, राष्ट्रीय स्वाभिमान का है. इसी साईट पर एक विदेशी विद्वान का लेख देखिये. आपको ऐसा लगेगा पढ़ कर की नहीं यह मुझे नहीं पाता लेकिन मेरे जैसे लोगों को वह लेख पढ़ कर ज़रूर लगा कि कोई हम और आप जैसे रीढविहीन लोगों को राष्ट्रीय स्वाभिमान का पाठ पढ़ा रहा है. मुझे तो ऐसे लगा जैसे जूते मार रहा हो कोई अपनी समझ पर. थोडा अपने रीढ़ में हड्डी को जगह दीजिए सर. सरीसृप प्रजाति की तरह आज भी रेंगते जाने का कोई अर्थ है क्या? और धैर्य धारण कीजिये 24 तक यही निवेदन.
चतुर्वेदी जी, आपने भारतीय दंड संहिता एवं पुरातत्व संरक्षण कानून के प्राचीन इमारतों से संबंधित सभी कानूनी प्रावधानों; बाबर ने मंदिर तोड़ा था या नहीं, किसी और ने तोड़ा था या नहीं; धर्मनिरपेक्ष संविधान, का उल्लेख किया है! और कहा कि उस समय वामपंथी दलों खासकर माकपा के वरिष्ठ नेता हरिकिशन सिंह सुरजीत के दबाब के कारण यह प्रस्ताव लागू नहीं हो पाया था। क्या आपको यह भय था कि यदि जाँच में प्रमाणित हो गया राम जन्म भूमि मंदिर के अवशेष से कथित बाबरी ढांचे को खड़ा किया गया है, मंदिर के पुरात्विक महत्व के कारण पुरात्विक दृष्टी से तथा न्यायिक कारणों से ढांचे को हटाकर मंदिर का निर्माण करना होगा! तभी उस प्रस्ताव का विरोध किया गया था? मामला शांति से नहीं सुलझ पाया क्योंकि प्रस्ताव लागू नहीं हो पाया था। वाह रे मेरे मानवतावादियों, धन्य हो तुम,धन्य हैतुम्हारी सोच
चतुर्वेदी जी,
अपने कहा, दुबारा इतिहास रचना नहीं होने देंगे! और न ही किसी भी किस्म का सांप्रदायिक शक्तियों की ओर समर्पण करेंगे। पाक समर्थक सांप्रदायिक आधार पर कश्मीर को भारत से काट कर 47, दोहराना चाहते हैं, उनसे समझौता वार्ता को आप उचित मानते हैं या अनुचित? जिस प्रकार का विष वमन भगवा के विरुद्ध करते हैं वैसा उनके विरुद्ध नहीं दीखता ! यह दोगला पन वि.वि. विभाग के प्रो. को शोभा नहीं देता? राजा मांडा के बारे में तो सुना था कि उनकी माता राजा की वैध पत्नी नहीं थी ठाकुरों के प्रति उनके आक्रोश का यही कारण था, क्या आप भी …?