स्त्रियों के खिलाफ बुरी खबरों का समय

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-संजय द्विवेदी-
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यह शायद बेहद खराब समय है, जब औरतों के खिलाफ होने वाले अत्याचारों की खबरें रोजाना हमें हैरान कर रही हैं। भारत में औरतों के खिलाफ हो रहे ये अत्याचार बताते हैं कि प्रगति और विकास के तमाम मानकों को छू रहे इस देश का मन अभी भी औरत को एक खास नजर से ही देखता है। स्त्री के प्रति अपेक्षित संवेदनशीलता का विस्तार अभी न समाज में हुआ है, न पुलिस में, न ही परिवारों में। सोचने का विषय यह भी है कि नवरात्रि के साल में दो बार आने वाले पर्व में कन्या पूजन करने वाला समाज स्त्री के प्रति इतना असहिष्णु कैसे हो सकता है? इसके साथ ही घरेलू हिंसा का एक अलग संसार है, जहां परिजन और रक्त संबंधी ही स्त्री के खिलाफ अत्याचार करते हुए दिखते हैं।

स्त्री के खिलाफ हो रही हिंसा में स्त्री की भी उपस्थिति चौंकाने वाली है। यानि स्त्री भी अपने ही वर्ग के खिलाफ हो रही हिंसा में उसी उत्साह से शामिल है जैसे पुरूष। यह देखना और सुनना दुखद है किंतु सच है कि स्त्री के खिलाफ हिंसा की जड़ें समाज में बहुत गहरी जम चुकी हैं। आर्थिक स्वालंबन और प्रतिकार कर रही स्त्री के इस अनाचार के विरूद्ध खड़े होने से ये मामले ज्यादा संख्या में सामने आने लगे हैं। प्रकृति प्रदत्त कोमलता और कमजोरियों के नाते स्त्री के खिलाफ समाज का इस तरह का रवैया ही था, जिसके नाते सरकार को घरेलू हिंसा रोकथाम के लिए 2006 में एक कानून लाना पड़ा। इसके बाद दिल्ली में हुए निर्भया कांड ने सारे देश को झकझोरकर रख दिया। इस बीच बदायूं और उप्र के अनेक स्थानों से बेहद शर्मनाक खबरें आईं। निर्ममता और वहशियत की ये कहानियां बताती है समाज आज भी उसी मानसिकता में जी रहा है जहां औरतें को इस्तेमाल की वस्तु समझा जाता है। हम देखें तो हमारे पूरे परिवेश में ही स्त्री को एक कमोडिटी की तरह स्थापित करने के प्रयास चल रहे हैं। मनोरंजन, फिल्मों और विज्ञापनों की दुनिया में ये सच्चाई और नंगे रूप में सामने आती है। जहां औरतें एक ‘वस्तु’ की तरह उपस्थित हैं। उन्हें ‘सेक्स आब्जेक्ट’ की तरह प्रस्तुत करने पर जोर है। वे विज्ञापनों में ऐसी वस्तुएं भी बेचती नजर आ रही हैं जिसका वे स्वयं इस्तेमाल नहीं करतीं। रूपहले स्क्रीन के बाजार में उतरी इस बोल्ड-बिंदास-लगभग निर्वसन स्त्री ने, समाज में रह रही स्त्री का जीना मुहाल कर दिया है।

पल-पल सजे बाजार में उपस्थित स्त्री के सपने और उसकी दुनिया को इस समय ने बेहद सीमित कर दिया है। उसके लिए अवसर बढ़े हैं, किंतु सुरक्षा घट रही है। वह चमकते परदे पर बेहद शक्तिशाली दिखती है, किंतु उसके घर पहुंचने तक चिंताएं उतनी ही गहरी हैं, जितनी पहले हुए करती थीं। ‘द सेकेंड सेक्स’ की लेखिका सिमोन लिखती हैं कि “स्त्री बनती नहीं है, उसे बनाया जाता है।” जाहिर है सिमोन के समय के अनुभव आज भी बदले नहीं हैं। बदलते समय ने स्त्री को अवसरों के तमाम द्वार खोले हैं, किंतु उसकी तरफ देखने का नजरिया अभी बदलना शेष है। आवश्यक्ता इस बात की है कि हम परिवार से ही इसकी शुरूआत करें। पितृसत्ता की निर्मम छवियों से मुक्त हमें एक ऐसा समाज बनाने की ओर बढ़ना है जहां स्त्री को समान अवसर और समान सम्मान हासिल हैं। तमाम परिवारों में नारकीय जीवन जी रही स्त्रियां हैं, वैसा ही सीखते युवा हैं। बदलती दुनिया में औरतें हर क्षेत्र में अपनी क्षमताएं साबित कर चुकी हैं। वे कठिन कामों को अंजाम दे रही हैं और कहीं भी पुरूषों से कमतर नहीं हैं। शैक्षणिक परिणामों से लेकर मैदानी कामों में उनका हस्तक्षेप कहीं भी अप्रभावी नहीं है। वे जिम्मेदार,कुशल, ज्यादा संवेदनाओं से युक्त और ज्यादा मानवीय हैं। परिवारों में आज स्थितियां बदल रही हैं। स्त्री की क्षमता और उसकी संवेदना को आदर मिल रहा है, वे अवसर पाकर आकाश नाप रही हैं। तमाम परिवारों में अकेली लड़की पैदा करके पुत्र न करने के फैसले भी लिए हैं। यह बदलती दुनिया का एक चेहरा है। किंतु हमें देखना होगा कि एक बहुत बड़ा समाज आज भी अंधेरे में हैं। वह अपनी बनी-बनी धारणाओं को तोड़ने के लिए तैयार नहीं हैं। जहां आज भी पुत्री के जन्म पर दुख के बादल छा जाते हैं। स्त्री को सम्मान नहीं हैं और उसे ही पहला शिकार बनाया जाता है। मध्ययुगीन बर्बरता के निशान आज भी हमारे मनो में हैं। इसलिए हम स्त्री को सबसे पहले और आसान निशाना बनाते हैं, क्योंकि वह कमजोर तो है ही, घर की इज्जत भी है। प्रतिष्ठा से जुड़े होने के नाते तमाम क्षेत्रों में आपसी रंजिशों में भी पहला शिकार औरत को बनाया जाता है। इसलिए लगता है कि एक मानवीय समाज बनाने और औरतों के प्रति संवेदना भरने में हम विफल ही रहे हैं। यहां अंतर गांव और शहर का नहीं समझ और मान्यताओं का भी है। गांवों में भी आपको ऐसे परिवार मिल जाएंगें जहां स्त्रियों को बेहद सम्मान से देखा जाता है और फैसलों में वे ही निर्णायक होती हैं। शहरों में भी ऐसे परिवार मिलेंगे जहां औरतें कोई मायने नहीं रखतीं हैं। हमें यह भी समझना होगा कि स्त्री का सशक्तिकरण पुरूष के विरूद्ध नहीं है। पुरूषों के सम्मान के विरूद्ध नहीं है, वरन वह समाज के पक्ष में है। परिवार और समाज को चलाने की एक धुरी स्त्री है तो दूसरा पुरुष है। दोनों के समन्वित सहभाग से ही एक सुंदर समाज की रचना हो सकती है। स्त्रियों ने इस समय में अपनी शक्ति को पहचान लिया है। वे बेहतर कर रही हैं और आगे आसमां छूने की कोशिशों में हैं। यहां भी पुरूष सत्ता चोटिल होती हुयी लगती है। उसके प्रति सम्मान और संवेदनशीलता के बजाए, किस्से बनाने और उसे कमतर साबित करने की कोशिशें हर स्तर हो रही हैं। तेज होते सामाजिक-आर्थिक परिवर्तनों के इस दौर में सिर्फ कानून ही स्त्री के साथ खड़े हैं। कई जगह तो स्त्रियां भी, स्त्रियों के खिलाफ खड़ी हैं। यह एक संक्रमण काल है, स्त्री को अपने वजूद को साबित करते हुए निरंतर आगे बढ़ने का समय है। वह जीत रही है और आगे बढ़ रही है। अपने सपनों में रंग भर रही है। आसान शिकार होने के नाते कुछ शिकारी उसकी घात में हैं किंतु आज की औरत इससे डरती नहीं, घबराती नहीं, वह बने-बनाए कठघरों को तोड़कर आगे आ रही है। मीडिया, महिला आयोग, पुलिस और सरकार सहित तमाम स्वयंसेवी संगठन रात दिन इस काम में लगे हैं कि कैसे औरतें ज्यादा सुरक्षित और ज्यादा अधिकार सम्पन्न हों। यह काम अगर इनके बस का होता तो हो गया होता, सबसे जरूरी है परिवारों में बच्चों को सही संस्कार। वे घर से औरतों का सम्मान करना सीखें। वे अपनी बहन-मां का आदर करना सीखें। वे यह देख पाएं कि उनके पिता और मां दोनों बराबरी के हैं, कोई किसी से कम नहीं हैं। वे परिवार की धुरी हैं। वे यह भी सीखें की कि हमारी संस्कृति में कन्या पूजन जैसे विधान क्यों रखे गए हैं? क्योंकि हमारी सभी विद्याओं की मालिका देवियां हैं? क्यों हम दुर्गा से शक्ति, सरस्वती से बुद्धि और लक्ष्मी से वैभव की मांग करते हैं? क्यों हमें यह पढ़ाया और बताया गया कि जहां स्त्रियां की पूजा होती है देवता वहीं निवास करते हैं। जाहिर तौर पर संस्कृति का हर पाठ स्त्री के सम्मान और उसकी शुचिता के पक्ष में है, किंतु जाने किन प्रभावों में हम अपनी ही सांस्कृतिक मान्यताओं और संदेशों के खिलाफ खड़े हैं। स्त्री को आदर देता समाज ही एक संवेदनशील और मानवीय समाज कहा जाएगा। अगर हम ऐसा नहीं कर सकते तो हमें अपनी महान संस्कृति पर गर्व करने का अभिनय और ढोंग बंद कर देना चाहिए।

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  1. श्री द्विवेदी जी

    आप व् मीडिया इस तरह के लेख लिख कर भ्रामक प्रचार कर रहा है . सच यह है की इस देश मैं दोसु बयालीस पुरुष व् १२८ महिलाएं रोज़ आत्म हत्याएं करतीं हैं . उनमें से साथ महिलाएं शादी शुदा होती हैं . देश मैं ३३००० हत्याएं सालाना होती हैं और ३२००० बलात्कार सालाना होते हैं . इस के अलावा एक लाख से ज्यादा लोग सड़क हादसों मैं मरते हैं .
    पुलिस तंत्र को मानवाधिकार वालों ने निष्क्रीय कर दिया है और अब गुनाह की सजा अपने निम्न ताम स्तर पर आ गयी है .
    देश मैं लाखों लड़कियां सॉफ्टवेर इत्यादि मैं नौकरी कर रहीं हैं .
    मीडिया अपनी टी आर पी की खातिर बलात्कार को एक सुनोयिजित रूप से उछाल रहा है . जैन काण्ड जिसमें एक एक्ट्रेस रोज़ स्वेच्छा से सोती है और रोले न मिलने पर उसे बलात्कार कहती है एक नयी मानसिकता का द्योतक है जिसमें बलात्कार अब एक उतना बड़ा धब्बा नहीं रह गया है जितना पहले था . वास्तव मैं यह काल लड़कियों का सुनेहरा समय है .
    इस तरह के लेख बंद होने चाहिए.

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