मौसम विभाग की चेतावनी : बादलों के बरसने की घट रही है क्षमता

प्रमोद भार्गव

वैसे तो इस बार मौसम विभाग के पूर्वानुमान ने अच्छी बारिश की उम्मीद जगाई है, लेकिन इसके बाद उसकी दूसरी रिपोर्ट चौंकाने वाली है। 50 वर्षों के अध्ययन पर केंद्रित इस रिपोर्ट के अनुसार, मौसम में जो बादल पानी बरसाते हैं, उनकी सघनता धीरे-धीरे घट रही है। इस नाते कमजोर मानसून की आशंका भी जता दी है। इससे आशय यह निकलता है कि देश में मानसून में बारिश का प्रतिशत लगातार घट रहा है। दरअसल जो बादल पानी बरसाते हैं, वे आसमान में छह से साढ़े छह हजार फीट की ऊंचाई पर होते हैं। 50 साल पहले ये बादल घने भी होते थे और मोटे भी होते थे। परंतु अब साल दर साल इनकी मोटाई और सघनता कम होती जा रही है। यह अध्ययन सही है। दरअसल महाकवि कालिदास द्वारा रचति महाकाव्य ‘मेघदूत‘ दो खंडों में विभाजित प्रणय काव्य है। पूर्वमेघ और उत्तरमेघ, जो संस्कृत में लिख गए हैं। इनमें सांसारिक प्रेम का अद्भुत वर्णन है। किंतु इनमें महाकवि ने अपनी भावनाओं को अभिव्यक्ति जिन प्रतीकों से दी है, वे मेघ यानी बादल और बारिश से जुड़े हैं। इनका आशय है कि धरती पर जितने घने वन होगें, आसमान में उतने ही घने और काले बादल छाकर बरसेंगे। कालिदास वैज्ञानिक नहीं, बल्कि संत कवि थे, लेकिन इस तथ्य का खंडन कोई वैज्ञानिक नहीं करता।   इस अध्ययन से देश के नीति-नियंताओं को चेतने की जरूरत है, क्योंकि हमारी खेती-किसानी और 70 फीसदी आबदी मानसून की बरसात से ही रोजी-रोटी चलाती है और देश की समूची आबादी को अनाज, दालें और तिलहन उपलब्ध कराती है।

देश के ज्यादातर व्यवसाय भी कृषि आधारित हैं। देश की जीडीपी में कृषि का योगदान 15 फीसदी है। फिर भी किसान आर्थिक असुरक्षा की चपेट में है। इसी कारण किसान की आत्महत्या का सिलसिला जारी है। प्रत्येक साल अप्रैल-मई में मानसून आ जाने की अटकलों का दौर शुरू हो जाता है। यदि औसत मानसून आये तो देश में हरियाली और समृद्धि की संभावना बढ़ती है और औसत से कम आये तो पपड़ाई धरती और अकाल की क्रूर परछाईयां देखने में आती हैं। मौसम मापक यंत्रों की गणना के अनुसार यदि 90 प्रतिशत से कम बारिश होती है तो उसे कमजोर मानसून कहा जाता है। 90-96 फीसदी बारिश इस दायरे में आती है। 96-104 फीसदी बारिश को सामान्य मानसून कहा जाता है। यदि बारिश 104-110 फीसदी होती है तो इसे सामान्य से अच्छा मानसून कहा जाता है। 110 प्रतिशत से ज्यादा बारिश होती है तो इसे अधिकतम मानसून कहा जाता है। बाबजूद बादलों के बरसने    की क्षमता घट रही है। ऐसा जंगलों के घटते जाने के कारण हुआ है।

दो दशक पहले तक कर्नाटक में 46, तमिलनाडू में 42, आंध्रप्रदेश में 63, ओडिशा में 72, पश्चिम बंगाल में 48, अविभाजित मध्यप्रदेश में 65 फीसदी वनों के भूभाग थे, जो अब 40 प्रतिशत शेष रहे गए हैं। इस कारण बादलों की मोटाई और सघनता घटते चले गए। नतीजतन पानी भी कम बरसने लगा।     मौसम वैज्ञानिकों की बात मानें तो जब उत्तर-पश्चिमी भारत में मई-जून तपता है और भीषण गर्मी पड़ती है तब कम दाव का क्षेत्र बनता है। इस कम दाव वाले क्षेत्र की ओर दक्षिणी गोलार्ध से भूमध्य रेखा के निकट से हवाएं दौड़ती हैं। दूसरी तरफ धरती की परिक्रमा सूरज के इर्द-गिर्द अपनी धुरी पर जारी रहती है। निरंतर चक्कर लगाने की इस प्रक्रिया से हवाओं में मंथन होता है और उन्हें नई दिशा मिलती है। इस तरह दक्षिणी गोलार्ध से आ रही दक्षिणी-पूर्वी हवाएं भूमध्य रेखा को पार करते ही पलटकर कम दबाव वाले क्षेत्र की ओर गतिमान हो जाती हैं। ये हवाएं भारत में प्रवेश करने के बाद हिमालय से टकराकर दो हिस्सों में विभाजित होती हैं। इनमें से एक हिस्सा अरब सागर की ओर से केरल के तट में प्रवेश करता है और दूसरा बंगाल की खाड़ी की ओर से प्रवेश कर उड़ीसा, पश्चिम-बंगाल, बिहार, झारखंड, पूर्वी उत्तर-प्रदेश, उत्तराखण्ड, हिमाचल-प्रदेश हरियाणा और पंजाब तक बरसती हैं। अरब सागर से दक्षिण भारत में प्रवेश करने वाली हवाएं आन्ध्र-प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, मध्य-प्रदेश और राजस्थान में बरसती हैं। इन मानसूनी हवाओं पर भूमध्य और कश्यप सागर के ऊपर बहने वाली हवाओं के मिजाज का प्रभाव भी पड़ता है। प्रशांत महासागर के ऊपर प्रवाहमान हवाएं भी हमारे मानसून पर असर डालती हैं।

वायुमण्डल के इन क्षेत्रों में जब विपरीत परिस्थिति निर्मित होती है तो मानसून के रुख में परिवर्तन होता है और वह कम या ज्यादा बरसात के रूप में धरती पर गिरता है।  महासागरों की सतह पर प्रवाहित वायुमण्डल की हरेक हलचल पर मौसम विज्ञानियों को इनके भिन्न-भिन्न ऊंचाईयों पर निर्मित तापमान और हवा के दबाव, गति और दिशा पर निगाह रखनी होती है। इसके लिये कम्प्यूटरों, गुब्बारों, वायुयानों, समुद्री जहाजों और रडारों से लेकर उपग्रहों तक की सहायता ली जाती है। इनसे जो आंकड़ें इकट्ठे होते हैं उनका विश्लेषण कर मौसम का पूर्वानुमान लगाया जाता है। हमारे देश में 1875 में मौसम विभाग की बुनियाद रखी गई थी। आजादी के बाद से मौसम विभाग में आधुनिक संसाधनों का निरंतर विस्तार होता चला आ रहा है। विभाग के पास 550 भू-वेधशालाएं, 63 गुब्बारा केन्द्र, 32 रेडियो, पवन वेधशालायें, 11 तूफान संवेदी, 8 तूफान सचेतक रडार और 8 उपग्रह चित्र प्रेषण एवं ग्राही केन्द्र हैं। इसके अलावा वर्षा दर्ज करने वाले 5 हजार पानी के भाप बनकर हवा होने पर निगाह रखने वाले केन्द्र, 214 पेड़-पौधों की पत्तियों से होने वाले वाष्पीकरण को मापने वाले, 38 विकिरणमापी एवं 48 भूकंपमापी वेधशालाए हैं। लक्षद्वीप, केरल व बंगलुरू में 14 मौसम केंद्रों के डेटा पर सतत निगरानी रखते हुए मौसम की भविष्यवाणियां की जाती हैं। अंतरिक्ष में छोड़े गए उपग्रहों से भी सीधे मौसम की जानकारियां सुपर कम्प्यूटरों में दर्ज होती रहती हैं। बरसने वाले बादल बनने के लिये गरम हवाओं में नमी का समन्वय जरूरी होता है। हवाएं जैसे-जैसे ऊंची उठती हैं, तापमान गिरता जाता है। अनुमान के मुताबिक प्रति एक हजार मीटर की ऊंचाई पर पारा 6 डिग्री नीचे आ जाता है। यह अनुपात वायुमण्डल की सबसे ऊपरी परत ट्रोपोपाॅज तक चलता है। इस परत की ऊंचाई यदि भूमध्य रेखा पर नापें तो करीब 15 हजार मीटर बैठती है। यहां इसका तापमान लगभग शून्य से 85 डिग्री सेन्टीग्रेट नीचे पाया गया है। यही परत धु्रव प्रदेशों के ऊपर कुल 6 हजार मीटर की ऊंचाई पर भी बन जाती है और तापमान शून्य से 50 डिग्री सेन्टीग्रेट नीचे होता है। इसी परत के नीचे मौसम का गोला या ट्रोपोस्फियर होता है, जिसमें बड़ी मात्रा में भाप होती है। यह भाप ऊपर उठने पर ट्रोपोपाॅज के संपर्क में आती है।

ठंडी होने पर भाप द्रवित होकर पानी की नन्हीं-नन्हीं बूंदें बनाती है। पृथ्वी से 5-10 किलोमीटर ऊपर तक जो बादल बनते हैं,उनमें बर्फ के बेहद बारीक कण भी होते हैं। पानी की बूंदें और बर्फ के कण मिलकर बड़ी बूंदों में तब्दील होते हैं और बर्षा के रूप में धरती पर टपकना शुरू होते हैं।  दुनिया के किसी अन्य देश में मौसम इतना विविध, दिलचस्प, हलचल भरा और प्रभावकारी नहीं है, जितना कि भारत में है।  इसका मुख्य कारण है भारतीय प्रायदीप की विलक्षण भौगोलिक स्थिति। हमारे यहां एक ओर अरब सागर है और दूसरी ओर बंगाल की खाड़ी है और इन सब के ऊपर हिमालय के शिखर हैं। इस कारण देश का जलवायु विविधतापूर्ण होने के साथ प्राणियों के लिये बेहद हितकारी है। इसीलिए पूरे दुनिया के मौसम वैज्ञानिक भारतीय मौसम को परखने में अपनी बुद्धि खपाते हैं। इतने अनूठे मौसम का प्रभाव देश की धरती पर क्या पड़ेगा, इसकी भविष्यवाणी करने में हमारे वैज्ञानिक क्यों चूक जाते हैं, इस सिलसिले में ऐसा माना जाता है कि आयातित सुपर कम्प्यूटरों की भाषा ’अलगोरिथम’ को वैज्ञानिक ठीक से नहीं पढ़ पाते हैं। कम्प्यूटर भले ही आयातित हों, लेकिन इनमें मानसून के डाटा स्मरण में डालने के लिये जो भाषा हो, वह देशी हो, हमें सफल भविष्यवाणी के लिये कम्प्यूटर की देशी भाषा विकसित करनी होगी ? क्योंकि अरब सागर, बंगाल की खाड़ी और हिमालय भारत में है, अमेरिका अथवा ब्रिटेन में नहीं ? लिहाजा जब हम बर्षा के आधार श्रोत की भाषा पढ़ने व संकेत परखने में सक्षम हो जाएंगे तो मौसम की भविष्यवाणी भी सटीक बैठेगी ?

 

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