बलात श्रम एक अभिशाप

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workबरुण कुमार सिंह

बहुत से लोगों की यह अवधारणा है कि बलात श्रम का मतलब है, लम्बे घंटों तक खराब स्थितियों में बहुत कम वेतन पर काम करना। लेकिन इससे इतर दो परिस्थितियां जरूर लागू होती हैं, यह काम बिना इच्छा के कराया जाता है और उसे दंड दिए जाने की धमकी के साथ कराया जाता है। कई बार यह धमकी मारपीट, यातना व यौन प्रताड़ना की आशंका के रूप में होती है लेकिन इसमें पहचान पत्र को जब्त कर लेना या निर्वासित करने की भी धमकी शामिल हैं।

बलात श्रम सर्वव्यापी है। यह कृषि, निर्माण, घरेलू काम, ईंट भट्ठे व यौन व्यापार सभी क्षेत्रों में और हर महाद्वीप, हर अर्थव्यवस्था व लगभग हर देश में पाया जाता है। इसके बावजूद यह विरोधाभास ही है कि इसे ‘हमारे समय की सबसे अप्रकट समस्याओं में से एक’ बताया जाता है।

मानव तस्करी बलात श्रम से जुड़ा शायद सबसे ‘हाई प्रोफाइल’ पहलू है। लेकिन अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के अध्ययन का अनुमान है कि यह दुनिया-भर में कराए जाने वाले बलात श्रम का मात्र एक बटा पांचवां हिस्सा है। मानव तस्करी जिसके तहत आर्थिक शोषण के लिए लोगों को भर्ती की जाती है व लोगों को यहां से वहां ले जाया जाता है, इसमें एक जगह से दूसरी जगह भिन्नता पायी जाती है। संक्षेप में, आंकड़े बताते हैं कि तस्करी से लाये गये अधिकतर लोग संक्रमणकालीन व औद्योगिकृत देशों/क्षेत्रों में काम करने को विवश होते हैं। इनमें से लगभग आधे लोगों को यौन शोषण के लिए तस्करी की जाती है। ये सभी महिलाएं या बच्चे होते हैं। लेकिन इन अप्रिय परिस्थितियों का मानव तस्करों को जबरदस्त लाभ होता है। आई.एल.ओ. का अनुमान है कि मानव तस्करी से तस्करों को हर वर्ष 32 करोड़ डाॅलर का मुनाफा होता है।

इस तरह का शोषण केवल विकासशील देशों या परम्परागत ताबेदारी व्यवस्थाओं तक सीमित नहीं। दिवालियेपन के ऐसे नए रूपों को औद्योगिकृत देशों व आमतौर पर मुख्यधारा के आर्थिक क्षेत्रों में भी देखा जा सकता है। भर्ती एजेंसियों द्वारा बेईमान तौर-तरीकों और बहुत ठेकदारों के फीस के चलते ऐसे मूल्य चुकाने पड़ते हैं, जिनके परिणामस्वरूप प्रवासी लोग ऋण बंधुआ बना दिये जाते हैं।

उदाहरण के लिए जनजातियों लोगों को वैध काम मिलने मंे परेशानियां होती हैं और यह सोचकर कि इससे उन्हें गरीबी से निजात मिलेगी, वे बलात श्रम संबंधों में दाखिल हो जाते हैं। परिणामतः जब वे कर्ज के बोझ तले दब जाते हैं और इसके बाद उन्हें बहुत से कम मेहताना मिलता है, तो वे अपना कर्ज चुकाने की स्थिति में कभी नहीं आ पाते, भले ही वे कितनी ही मेहनत करें या काम करें। यह कर्ज कई बार परिवार के एक से दूसरे सदस्य या एक पीढ़ी से दूसरे पीढ़ी तक ज्यों का त्यों चलता रहता है जिससे बच्चे और पोते-परपोते तक निरंतर अभाव झेलते रहते हैं।

ऐसे हालात में अक्सर महिलाएं क्रूर नियोक्ताओं का शिकार होती हैं। भारत व बांग्लादेश में कई युवतियों को ऐसे ही कर्ज के नाम पर वेश्यावृत्ति करनी पड़ती है, चूंकि चकलाघर मालिक उन्हें खाना, कपड़ा, मेकअप व जीवनयापन का खर्च दे रहा है। इस कर्ज को उतारने के लिए उन्हें बिना किसी वेतन के सालों तक या उससे भी ज्यादा जीवनपर्यंत काम करना पड़ता है।

श्रमिकों को कर्ज तले दबाने का एक दूसरा माध्यम है, वेतन एडंवास में देना। पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रांत में कोयला खदानों में कई मजदूर एडवांस में वेतन ले लिया करते हैं जिन्हें महीने के वेतन में काटा जाता है। इन मजदूरों के जीवनयापन के सामनों की खरीददारी के जरिए ये कर्ज लगातार बढ़ते जाते हैं और कई बार नियोक्ता भी अपनी बही-खाते में इन्हें बढ़ा-चढ़ा कर दर्ज करते हैं। इसके बाद इन मजदूरों की लंबी-चैड़ी ऋण बंधुआगिरी करनी पड़ती है। जो मजदूर इस काम को छोड़ना चाहते हैं, अक्सर उन्हें धमकियों व शारीरिक हिंसा का शिकार होना पड़ता है।

इस समय दुनिया में करीब 12 करोड़ 30 लाख लोग बलात श्रम को विवश है। इनमें से ज्यादातर एशिया में रहते हैं। यहां इस संख्या में लगभग दो तिहाई लोग आर्थिक शोषण के नाम पर निजी नियोक्ताओं द्वारा जबरन काम करने को मजबूर होते हैं। एशिया में बलात श्रमिकों का लगभग एक बटा दसवां हिस्सा व्यावसायिक यौन शोषण के लिए प्रयुक्त होता है।

एशिया, लैटिन अमेरिका व उपसहारा अफ्रीका में 20 प्रतिशत से कम बलात श्रमिक तस्करी का शिकार रहे हैं, जबकि मध्यपूर्व व औद्योगिककृत तथा संक्रमणकालीन अर्थव्यवस्थाओं में यह संख्या 75 प्रतिशत से अधिक है। ये श्रमिक मुख्य रूप से महिलाएं व बच्चें होते हैं। चूंकि स्रोत उम्र के बारे में सूचना नहीं देते, इसलिए आयु के मुताबिक परिणामों के बारे में स्पष्ट जानकारी नहीं होती। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन का अनुमान है कि सभी बलात श्रमिकों में 40 से 50 प्रतिशत बच्चे होते हैं।

इसके साथ-साथ हम अपने रोजमर्रा के जीवन में बाल श्रम से संबंधित भिन्न-भिन्न क्षेत्रों मे कार्य करते छोटे-छोटे बच्चें जिनकी उम्र 13-14 वर्ष से कम होती है, ये बच्चे छोटे से लेकर बड़े ढाबा, मोटर गैराज, रेलगाड़ी में झाडू लगाने से लेकर गुटखा बेचने तक, चाय की दूकान, कुड़ा चुनने आदि कार्य में लगे रहते हैं। रेलवे स्टेशन, बस स्टैंड या अन्य भीड़भाड़ वाली जगह जहां पर आदमी का आना जाना लगा रहता है वहां आप इनसे परिचित हो सकते हैं। चाहे आप देश की राजधानी दिल्ली के हृदयस्थली कहे जाने वाली कनाॅट प्लेस में हो, या देश के कहीं अन्य क्षेत्र में जिसमें इनका बाॅस यहां-वहां कार्यानुरूप दिशा-निर्देश देते रहता है। इन बच्चों का न तो खाने का समय निश्चित है, न सोने का, छुट्टी तो मिलती नहीं। अस्वस्थ हो जाने पर भी ये कार्य में लगे रहते हैं।

इन मासूम बच्चों को हम प्रतिदिन बड़ी ही दयनीय एवं त्रासद स्थितियों में काम करते हुए देखते हैं, वहां न तो हमारी चेतना काम करती है, न हमारी इनके प्रति संवेदना होती है, न हमारा मानवाधिकार आंदोलित होता है और न ही मीडिया इस ओर कोई सकारात्मक कदम उठाती है। हमारी रक्षक पुलिस उसी से चाय, सिगरेट, गुटखे आदि लेकर चली जाती है, क्योंकि वह अंधी है, उसे एफ.आई.आर. दर्ज कराने वाला, कागजी कार्रवाही करनेवाला मिलेगा तभी वह अपने कत्र्तव्यरूपी कदम आगे बढ़ाएगी। आखिर इससे छुटकारा कैसे मिलेगा?

हम अपने बच्चों को अपने घर का काम खुद उसे नहीं करने देते, क्योंकि उसके पढ़ने का यही समय है, भविष्य संवारने का समय है। जब तक हम अपनी सोच में परिवर्तन नहीं लायेंगे ये कार्य ऐसे ही चलते रहेंगे?

बलात श्रम एक सामाजिक अभिशाप है जिसकी आधुनिक विश्व में कोई जगह नहीं है। अब तो समय ही बताएगा कि हम अपनी सोच में कितना परिवर्तन कर पाते हैं एवं उस पर कितना अडिग रह पाते हैं। जब तक हम स्वयं इस ओर कदम नहीं बढ़ायेंगे, यह समस्या ऐसी ही बनी रहेगी। सारे कार्य सिर्फ सरकार के बलबूते एवं कानून के डंडे पर संभव नहीं है उसके लिए जनभागीदारी की महत्ती आवश्यकता है। संभ विश्व आखिर किस शताब्दि में है?

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  1. प्राइवेट स्कूलों में यही हो रहा है – — ऊपर से – काले अंग्रेजों द्वारा सामान्य जन पर बरपाए जा रहे कहर पर — अश्विनी और जोगा साहब के लेख अति उन्नत स्तर के और शिक्षा-व्यवस्था के लिए आइने के समान हैं !-दिल्ली सरकार का अत्यंत महत्वपूर्ण फैसला अभी कुछ समय पहले ज़रूर आया है ! कांग्रेस के कपिल सिब्बल द्वारा थोपी गई सीसीई पद्धति पर भी पुनर्विचार की आवश्यकता है !!
    कागजी कामकाज के बोझ से शिक्षा पर बुरा असर
    शिक्षण के अलावा हर स्कूल के कागजी कामकाज को निपटाने के लिए भी शिक्षकों का ही सहारा लिया जाता है क्योंकि ऐसा काम करने वाले कर्मचारियों की भारी कमी है। अभी शिक्षकों को डायरी-डिस्पैच, विभिन्न तरह के बिल्स को तैयार करना और जमा करना, विभिन्न विभागों के साथ पत्राचार, रिकॉर्ड दुरुस्त करना, कैश बुक व सर्विस बुक मेनटेन करना और ——===प्रधानाचार्य/स्कूल प्रमुख द्वारा दिए गए अन्य कार्य भी करने पड़ते हैं। इसका सीधा असर बच्चों की शिक्षा पर पड़ता है।
    देश में भले ही लड़कियों और महिलाओं के लिए कानून हों पर मोदी के परम मित्र मुकेश अम्बानी के रिलायंस फैक्ट्री के टाउंशिप जो जामनगर गुजरात में स्थित है — एक शिक्षिका को अमानवीय प्रताड़नाएँ देकर उनकी बच्ची को सीबीएसई बोर्ड में रजिस्ट्रेशन के बावजूद परीक्षा नहीं देने दिया गया और क्वार्टर से जबरदस्ती निकाल दिया गया क्योंकि वे गुजरात के बाहर झारखण्ड की रहने वाली हैं और हिंदी बोलती हैं ??? रिलायंस कंपनी के स्कूलों में हिंदी शिक्षक -शिक्षिकाओं के साथ जानवरों जैसा व्यवहार होता है लिखित निवेदन पर भी सरकार चुप है –

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