डॉ. वेदप्रताप वैदिक
सर्वोच्च न्यायालय ने अगले 20 दिन के लिए दिल्ली में पटाखों की बिक्री पर रोक लगा दी है। अदालत का यह फैसला अजीब-सा है। बिक्री पर रोक है लेकिन पटाखे छुड़ाने पर रोक नहीं है। तो अब होगा यह कि दीवाली के मौके पर अदालत की नाक के नीचे जमकर पटाखे फोड़े जाएंगे और वह उन्हें देखते रहने के अलावा कुछ नहीं कर सकती। दूसरे शब्दों में अदालत ने अपनी ही अवज्ञा का रास्ता खुद खोल दिया है। जिन दुकानदारों ने 500 करोड़ रु. के पटाखे शिवकाशी से बेचने के लिए मंगा रखे हैं, क्या वे हाथ पर हाथ धरे बैठे रहेंगे ? यदि अदालत को यह रोक लगानी थी तो साल-छह माह पहले से लगानी थी ताकि दुकानदार पटाखे मंगाते ही नहीं। अब वे इन पटाखों को अपने ग्राहकों तक पहुंचाने के लिए हजार तरीके खोज निकालेंगे। पटाखेबाज़ लोग भी कम नहीं हैं। वे अभी से पटाखे जमा कर लेंगे और कहेंगे कि ये तो हमारे पास अदालत के फैसले के पहले से ही पड़े थे। बेचारे दिल्ली के पुलिसवाले क्या करेंगे ? दीवाली के दिन एक नया सिरदर्द उनके लिए खड़ा हो गया है।
सर्वोच्च न्यायालय ने जो फैसला दिया है, उसके पीछे भावना काफी अच्छी है, क्योंकि पिछले साल दीवाली के दिनों में दिल्ली का प्रदूषण सामान्य स्तर से 29 गुना बढ़ गया था। कई बीमारियां फैल गई थीं लेकिन यह खतरा तो साल में तीन-चार दिन ही कायम रहता है जबकि फसलों के जलने का धुंआ, कारों का धुंआ, उड़ती हुई धूल का प्रदूषण तथा अन्य छोटे-मोटे कारणों से फैलनेवाले सतत प्रदूषण पर हमारी नज़र क्यों नहीं जाती। मेट्रो का किराया बढ़ाना प्रदूषण को बढ़ाना है। अब लोग मेट्रो के बदले आटो रिक्शा और बसों में बैठना ज्यादा फायदेमंद समझेंगे। अदालतें और सरकार जन-यातायात की सुविधाएं क्यों नहीं बढ़ातीं, ताकि कारों का चलन कम हो। दिल्ली में 5000 बसों की जरुरत है लेकिन सिर्फ एक हजार ही चल रही हैं। इसीलिए दो-ढाई करोड़ की आबादी में लाखों कारें दौड़ती रहती हैं। दिल्ली और देश में ऐसे बड़े जन-आंदोलन भी नहीं हैं, जो हर नागरिक को प्रेरणा दें कि वह दो—चार पेड़-पौधे लगाए। राजनीतिक दल और नेता लोगों को वोट और नोट कबाड़ने से फुर्सत मिले, तब तो देश की कुछ सेवा हो।