कविता

वरूण ने बिछाया श्वेत जाल

डॉ. मधुसूदन

बाहर था हिमपात निरंतर,
उदास मन,बैठा था घरपर,
पढी आप की काव्य पंक्तियाँ।
उडा ले गयींं कहीं पंखों पर।

अचरज अचरज अपलक अपलक
पल में हिम भी रुई बन गया।
और रुई का फूल हो गया।
श्वेत पँखुडियाँ होती झर-झर॥

अब,श्वेत पँखुडियाँ झरती बाहर।
शीतकाल,बसंत बन गया॥
“आ गया ऋतुराज बसन्त
मधुऋतु लाई सुख अनंत॥”

“कष्ट शीत का दूर हो गया
मधु-ऋतु लाई सुख अनन्त॥
आ गया ऋतुराज बसन्त।
छा गया ऋतुराज बसन्त॥”