बटेश्वर शिलालेख से उत्पन्न विरोधाभास

डा. राधेश्याम द्विवेदी
राजा परमार्दिदेव का परिचय :-गुर्जर प्रतिहार वंश की स्थापना 8वी शताब्दी में उज्जयिनी में हुई थी।उनके वंशज बाद में उज्जयिनी के साथ साथ गंगा यमुना के दोआब क्षेत्र कान्यकुब्ज या कन्नौज पर भी शासन करते रहे। इसी वंश का शासक नागभट्ट द्वितीय का समामनत राजा चन्द्रवर्मन (नन्नुक) ने बुन्देलखण्ड वर्तमान उ. प्र. तथा म. प्र. का सीमान्त क्षेत्र में चन्द्रातेय चन्डेल वंश की स्थापना किया था। इनकी राजधानी महोबा थी इनके अन्य प्रसिद्ध केन्द्र खजुराहो, कालंजर तथा अजयगढ़ रहे। गुर्जर प्रतिहारों के पतन के साथ साथ चण्डेल वंश की श्री वृद्धि हुई। चण्डेल वंश में परमार्दिदेव का 1163- 1203 के मध्य शासन किया था। इसकी सेना में आल्हा और ऊदल नामक दो प्रसिद्ध बीर योद्धा थे। इनकी सहायता से परमार्दिदेव ने अजमेर के चाहमान (चैहान) वंशी राजा पृथ्वीराज तृतीय पर आक्रमण कर दिया परन्तु ऊदल की मृत्यु के साथ परमार्दिदेव को पराजय का मुह देखना पड़ा था। पृथ्वीराज के अधीन महोबा भी आ गया। परन्तु वहां पर वह अधिक दिन शासन नहीं कर पाया और वह क्षेत्र पुनः परमार्दिदेव को वापस मिल गया। परमार्दिदेव के शासनकाल में मोहम्मद गोरी ने दो बार पृथ्वीराज पर आक्रमण किया था। तराइन के द्वितीय युद्ध में 1192 ई. में पृथ्वीराज मारा गया था। 1194 ई. में मोहम्मद गोरी ने कन्नौज के गहड़वाल नरेश जयचन्द को चन्दवार में पराजित कर मार डाला था। आश्चर्य है कि परमार्दिदेव ने किन परिस्थितियों में जयचन्द की सहायता नहीं कर सका था। बादमें अजमेर में चैहान वंश, कन्नौज में गहड़वाल वंश के पतन के साथ साथ बुन्देलखण्ड में चण्डेलवंश का भी पतन हो गया और भारत में मुस्लिम शासन का आधार मजबूत हो गया। परमार्दिदेव के समय बुन्देलखण्ड का चण्डेलवंशी शासन उत्तर भारत में गंगा यमुना की अन्तर्वेदी तक फैला हुआ था। इसमें कन्नौज मथुरा आगरा आदि पूरा ब्रज मण्डल समाहित था।
प्राप्ति स्थल विवादास्पद :- परमार्दिदेव का विक्रम 1252- 1195 ई. का बटेश्वर अभिलेख एक प्राचीन टीले पर प्राप्त होना बताया जाता है। कार्लाइल 1871- 72 में इस क्षेत्र का विस्तृत अध्ययन व सर्वेक्षण किया था । उस समय तक उसे यह अभिलेख नहीं प्राप्त हुआ था। मेजर जनरल ए. कनिंघम ने एएसआई रिर्पोट 1873-74 भाग 7 के पृ. 5 पर बटेश्वर आगरा से प्राप्त होना बताते हैं। पुनः मेजर जनरल ए. कनिंघम ने एएसआई रिर्पोट 1883-84 भाग 21 के पृ. 82 क्रम संख्या 52 पर इसे बगरारी के तालाब के तट पर दो टुकड़ों में प्राप्त होना बताते हैं। बगरी को मथुरा के निकट सिंघनपुर के पास होना भी बताया जाता है। अधिकांश अभिलेखीय साक्ष्य इसे आगरा जिले में स्थित बटेश्वर का अभिलेख मानते हैं। 1886 में हुलुतज ने Zeitechrift D Morg. Ges. के भाग 11 के पृ. 51-54 में प्रतिलिप्यान्तर कराया था। बादमें 1888 में प्रो. एफ. कीलहर्न ने इसका अध्ययन कर Epigraphia Indica के भाग 1 में पृ. 207-214 में प्रकाशित कराया था। इन दोनों संदर्भों में इस अभिलेख की प्रतिकृति नहीं प्रस्तुत की गयी है। प्रसिद्ध पुरालेख शास्त्री हरिहर विट्टल त्रिवेदी ने इस अभिलेख को उक्त संदर्भों के अतिरिक्त अन्य़ कहीं नहीं देखा था। उनके निवेदन पर लखनऊ राज्य संग्रहालय के निदेशक ने इस अभिलेख का स्याही के छाप की अनुमति दी। श्री त्रिवेदी इसे Corpus Inscriptions Indicarem के खण्ड 7 भाग 3 में क्रम सं. 139 पृ. 473-78 प्लेट 126 पर इसे प्रकाशित कराया है। अभिलेख के विषयवस्तु के अनुसार यहां प्राचीन विष्णु एवं शिव मंदिरों के निर्माण कराने की बात कही गयी है। एक विशाल शुभ्र शिव मंदिर भगवान शिव को ऐसा मोहित किया कि उन्होंने वहाँ आने के बाद फिर कभी अपने मूल निवास स्थान कैलाश वापस न जाने का निश्चय कर लिया।ष् पूर्णिमा की रात कोए या फिर उन रातों को जब चंद्र अच्छी रौशनी देता हैए उसकी रौशनी शिवलिंग पर पड़ती थी तो सफ़ेद शिवलिंग रात को चमकता था। ये मंदिर कहां थे यह शोध का विषय है ।
शुभ्र शिव मंदिर तेजोमहालय (ताजमहल) :- राष्ट्रवादी विचारक विष्णु मंदिर को मथुरा का द्वारिकाधीश तथा शिव मंदिर को आगरा का तेजेश्वर महादेव मंदिर (ताजमहल) के रुप में जोड़ते हैं। बटेश्वर शिलालेख में राजा परमार्दिदेव के मंत्री सलक्षणा द्वारा भव्य वैष्णव व शैव मंदिर बनवाने का जिक्र है। लखनऊ संग्रहालय में रखे वर्ष 1195 के इस शिलालेख में दो फुट चौड़ाई व एक फुट आठ इंच ऊंचाई में नागरी लिपि में संस्कृत भाषा के 34 श्लोक हैं। शिलालेख मंदिरों की जगह के बारे में कुछ नहीं कहता। मगर, इतिहासकार प्रो. पीएन ओक ने इसमें उल्लिखित शिव मंदिर को ताजमहल बताया था। श्री ओक अपनी पुस्तक Tajmahal is a Hindu Temple Palace में 100 से भी अधिक प्रमाण एवं तर्क देकर दावा करते हैं कि ताजमहल वास्तव में शिव मंदिर है जिसका असली नाम तेजोमहालय है। यह तेजाजी के नाम से बनाया गया था । इसके अनुक्रमांक 30 पर बटेश्वर शिलालेख का उल्लेख है। बटेश्वर एक संस्कृत शिलालेख भी ताज के मूलतः शिव मंदिर होने का समर्थन करता है। इस शिलालेख में, जिसे कि बटेश्वर शिलालेख कहा जाता है शाहज़हां के आदेशानुसार सन् 1155 के इस शिलालेख को ताजमहल के वाटिका से उखाड़ दिया गया इस शिलालेख को ‘बटेश्वर शिलालेख’नाम देकर इतिहासज्ञों और पुरातत्वविज्ञों ने बहुत बड़ी भूल की है क्योंकि कहीं भी कोई ऐसा अभिलेख नहीं है कि यह बटेश्वर में पाया गया था। आगरा शहर का नाम अंगिरा ऋषि के नाम पर पढ़ा था, अंगिरा ऋषि इसी इलाके में रहते थे, और वो भगवान् शिव के भक्त थे, आज जहाँ पर ताजमहल है, वहां पर हज़ारों साल पहले अंगिरा ऋषि ने शिवमंदिर बनाया था उसका नाम तेजोमहालय रखा था, कुछ लोग इसे अग्रेश्वर महादेव के नाम से भी सम्बोधित करते रहे हैं। वास्तविकता तो यह है कि इस शिलालेख का नाम ‘तेजोमहालय शिलालेख’ होना चाहिये क्योंकि यह ताज के वाटिका में जड़ा हुआ था और शाहज़हां के आदेश से इसे निकाल कर फेंक दिया गया था शाहज़हां के कपट का एक सूत्र Archaeological Survey of India Reports (1874 में प्रकाशित) के पृष्ठ 216-217, खंड 4 में मिलता है जिसमें लिखा है, great square black balistic pillar which, with the base and capital of another pillar….now in the grounds of Agra,…it is well known, once stood in the garden of Tajmahal”. इस शिलालेख में, जिसे कि गलती से बटेश्वर शिलालेख कहा जाता है (वर्तमान में यह शिलालेख लखनऊ अजायबघर के सबसे ऊपर मंजिल स्थित कक्ष में संरक्षित है) में संदर्भित है, “एक विशाल शुभ्र शिव मंदिर भगवान शिव को ऐसा मोहित किया कि उन्होंने वहाँ आने के बाद फिर कभी अपने मूल निवास स्थान कैलाश वापस न जाने का निश्चय कर लिया।” यह अभिलेख प्रशंसात्मक रुप में प्रशस्ति गाथा है। इस अभिलेख के तीन प्रमुख भाग हैं- प्रथम भाग में 13 पद्य हैं जिसमें चण्डेल वंश की परम्परा का वर्णन किया गया है। द्वितीय भाग पद्य 14 से 24 तक है। इसमें राजा के मुख्यमंत्री के वंश परम्परा का वर्णन किया गया है। तृतीय खण्ड मुख्य है । इसमें पद्य 25 से 29 तक अभिलेख का उद्देश्य का वर्णन आता है। पद्य 30 से 34 तक लिखने वाले का परिचय दिया गया है। इस खण्ड का पद्य 25 व 26 दो विशाल मंदिरों के निर्माण का वर्णन करता है। इसका मूल पद्य अंग्रेजी व हिन्दी अनुवाद भी प्रस्तुत किया जा रहा है।
प्रासादो वैष्णवस्तेन निमर्मितोन्तव् र्वहन्हरिम्। मू द् ध् र्ना स्पृसशति यो नित्यं पदमस्यैव मध्यमम्।।
He (King Parmadidev) erected a temple of Vishnu, containing a image of Hari which with its top always touches his own middle stride.
उन्होंने विष्णु मन्दिर का निर्माण कराया था जिसमें हरि की एक मूर्ति स्थापित थी। इस मंन्दिर का शिखर इतना ऊंचा था कि मध्य आकाश को स्पर्श करता था।।
अकारयच्च स्फटिकावदातमसाविदम्मन्दिरमिन् दुमौलेः। न जातु यस्मिन्निवसन्स देवः कैलासवासाय चकार चेतः।।
And he also caused this crystal white habitation of the moon crested (Siva) to be built, residing in which the God has never turned his thoughts to dwelling on Kailas.
चन्द्र को मस्तक पर धारण करने वाले शिव मंन्दिर का निर्माण स्फटिक के समान धवल रंग से प्रकाशित हो रहा था जिसमें निवास करने के कारण भगवान शिव ने कैलाश पर निवास करने का विचार छोड़ दिया।।

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