मनमोहन कुमार आर्य
वर्तमान स्थिति को देखकर मनुष्य भविष्य का कुछ कुछ अनुमान कर सकते हैं। यह अनुमान प्रायः एक सीमा तक तो सत्य सिद्ध होता ही है। कई बार अनुमान में कुछ त्रुटियां या कमियों के रह जाने पर यह गलत भी हो सकता है। आज संसार में धर्म एक ही है और अन्य सब सब मत-मतान्तर हैं। मत-मतान्तर के लोग अपनी अविद्या व स्वार्थों के कारण अपने मत को ही धर्म मान बैठे हैं। उनसे इस विषय पर विचार करने का प्रस्ताव करने पर वह सहमत नहीं होते हैं। यदि मत मतान्तरों के आचार्य व विद्वानों को यह विचार करने के लिए कि ‘धर्म व मत एक हैं व भिन्न भिन्न?’ और ‘संसार के सभी प्रचलित मत-मतान्तर क्या वस्तुतः धर्म हैं?’ आमंत्रित किया जाये तो अनुमान है कि वैदिक धर्म जिसका आर्यसमाज प्रचार व प्रसार करता है, उसके अतिरिक्त शायद अन्य कोई न आये। यदि कोई आता भी है तो अनुमान है कि वह इधर उधर की बाते ही करेगा, विषय पर केन्द्रित होकर धर्म व मत की भिन्नता को स्वीकार नहीं करेगा। ऐसी स्थिति में आर्यसमाज के लिए वेदों के सत्य सिद्धान्तों को अन्य मत-मतान्तरों के लागों से मनवाना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है। यही कारण है कि आर्यसमाज सत्य सिद्धान्तों का वाहक व प्रचारक होने पर भी इसकी विचारधारा व सिद्धान्तों को मानने वाले अनुयायियों का उतना विस्तार नहीं हो रहा है जो कि होना चाहिये। आर्यसमाज से इतर मत-मतान्तर के लोग अपनी संख्या बढ़ाने में सभी सत्य व असत्य अर्थात् उचित व अनुचित तरीके अपनाते हैं। अतीत में इन मत-मतान्तरों ने तलवार के जोर पर या प्रलोभन आदि देकर अपनी संख्या को बढ़ाया है। वैदिक धर्म क्योंकि महाभारत काल के बाद अन्धविश्वासों व पाखण्डों से ग्रस्त हो गया था, अतः यह अपनी संख्या की वृद्धि में विश्वास न रखकर अपने अन्धविश्वासों से ऐसे कार्य करते रहे हैं जिससे इनकी संख्या घटती रही है। जन्मना जातिवाद, ऊंच-नीच की भावना एवं निर्धनता ऐसे कारण हैं जिससे वैदिक धर्मी लोग महाभारत काल के बाद से ईसाई, इस्लीम व बौद्ध आदि मत-मतान्तरों में जाते रहे हैं और विगत लगभग दो हजार वर्षों में वैदिक धर्म विश्व की जनसंख्या का लगभग 15 प्रतिशत ही रह गया है। इतना होने पर आज भी वैदिक धर्म में अन्धविश्वास व पाखण्ड एवं अनेक कुरीतियां विद्यमान हैं जिन पर सनातनी पौराणिक बन्धु ध्यान नहीं देते हैं।
हमारे मन में एक विचार यह भी आया है कि यदि अनपढ़ लोगों में सीधे कक्षा 10 व इससे ऊंची कक्षाओं की पुस्तकों का प्रचार करेंगे तो वह लोग उनको समझ नहीं पायेंगे। इसके लिए उन लोगों का कुछ ज्ञानी होना आवश्यक है जिससे वैदिक धर्म प्रचारक की बातों को वह समझ सकें और उसे स्वीकार कर सके। संसार में यूरोप के लोग ऐसे हैं जो एक शिक्षित, सहिष्णु व सत्य को जानने वाले जिज्ञासु कहे जा सकते हैं। यही कारण है कि योग आदि विद्यायें वहां लोकप्रिय हुई हैं। मुस्लिम देशों में योग इतना लोकप्रिय नहीं हुआ तो उसके भी कारण हैं जिसे विचार करने पर जाना जा सकता है। यूरोप के लोग जिज्ञासु प्रवृत्ति के लोग प्रतीत होते हैं। यदि आर्यसमाज वहां जाकर उन लोगों में आधुनिक तौर तरीकों से प्रचार प्रसार करता है तो अनुमान कर सकते हैं कि वहां कुछ सफलता मिल सकती है। यदि नहीं मिलती तो इसका अर्थ होगा कि हमारे प्रचार के तरीकों या हमारी योग्यता में न्यूनता है। हम समझते हैं कि यदि यूरोप के शिक्षित लोगों को त्रैतवाद का सिद्धान्त दर्शन की तर्क शैली पर समझाया जाये तो इससे लाभ मिल सकता है। इसके लिए आर्यसमाज के पास योग्य विद्वान प्रचारक होने चाहियें जो वैदिक त्रैतवाद को शिक्षित लोगों को समझाकर उनसे मनवा सकें। इसके लिए यह भी आवश्यक है कि हमारे प्रचारक मनोविज्ञान को अच्छी प्रकार से जानते हों। यदि कोई व्यक्ति किसी सत्य बात को नहीं मानता तो हमारे प्रचारकों को यह ज्ञात होना चाहिये कि उसे सत्य को कैसे प्रतिपादित करना है। उन्हें असत्य का स्वरूप प्रस्तुत करना आना चाहिये जिसे लोग समझ सकें और उसका त्याग कर सकें। हमें यह भी लगता है कि हमें अपने सिद्धान्तों को तर्क व युक्तियों के आधार पर सरल भाषा में प्रस्तुत करना होगा और शास्त्रीय प्रमाणों को यथासम्भव कम से कम प्रस्तुत करना चाहिये। इसका कारण यह है कि शास्त्र आर्यसमाज के लिए तो प्रमाण है परन्तु एक साधारण शिक्षित मनुष्य के लिए प्रमाण नहीं है। वह शास्त्र प्रमाण का यथार्थ अर्थ व महत्व समझता नहीं है। तर्क व युक्ति को वह शीघ्र समझ जाता है और प्रायः स्वीकार भी कर लेता है। त्रैतवाद का सिद्धान्त स्वीकार करा लेने के बाद हमें ईश्वर के स्वरूप पर विचार करना चाहिये और उसे भी लोगों से मनवाने का प्रयास करना चाहिये। यदि ऋषि दयानन्द द्वारा प्रस्तुत ईश्वर के सत्यस्वरूप जो कि वैदिक मान्यताओं व सिद्धान्तों पर आधारित है, उसे लोगों से स्वीकार करा लिया जाये तो इससे सत्य वैदिक धर्म के सिद्धान्तों के प्रचार में काफी सहायता मिल सकती है। हमें ऐसे प्रयास निरन्तर करने चाहिये। वर्तमान में हम देख रहे हैं कि विदेशों में हमारे अनेक विद्वान वक्ता व उपदेशक जाते हैं परन्तु उन्हें विदेशियों में वेदों के प्रचार करने में सफलतायें नहीं मिल रही हैं। हम तो यह भी अनुभव करते हैं कि हमारे विद्वान विदेशियों के सम्पर्क में भी कम ही आते हैं और प्रायः भारतीय मूल के उन लोगों तक ही सीमित रहते हैं जो कि पहले से ही आर्यसमाज के अनुयायी हैं। इस कारण भी हमें सफलता नहीं मिल रही है।
अतीत में स्वामी सत्यप्रकाश सरस्वती जी जैसे अंग्रेजी के प्रगल्भ वक्ता एवं वैदिक सिद्धान्तों के मर्मज्ञ हो चुके हैं। उन्होंने अनेक बार विदेशों की यात्रायें की परन्तु उन्हें वैदिक सिद्धान्तों के प्रचार में विशेष सफलता मिली हो, ऐसा हमारे पढ़ने व सुनने में नहीं आया है। अतः आर्यसमाज के विद्वानों को इस विषय पर गोष्ठी करके विचार करना चाहिये जिसमें विदेशों में रह रहे हमारे विद्वान ऋषि भक्त भी हो और वह भी अपने अनुभव साझा करें। तभी कोई मार्ग निकाला जा सकता है। यदि यूरोप के देशों के विद्वानों को हम वेद के सिद्धान्तों के प्रति सहमत कर सकें और सत्यार्थप्रकाश के प्रथम 10 समुल्लासों को उनसे मनवा सकें तो वेद प्रचार का कार्य आगे बढ़ सकता है। इस दिशा में विश्व आर्य महासम्मेलन में गहन विचार होना चाहिये।
देश के भीतर भी आर्यसमाज को प्रचार में आशातीत सफलता नहीं मिल रही है। इस पर भी आर्यसमालज के विद्वान अपने अनुभव गोष्ठी आदि में व लेखों के माध्यम से यदि साझा करें तो इससे आर्यसमाज के सामान्य अनुयायियों का मार्गदर्शन हो सकता है। हमें रोग की सही स्थिति ज्ञात हो और रोग की सही दवा व सेवन विधि ज्ञात हो तो रोग को पूर्ण व काफी सीमा तक ठीक किया जा सकता है। अतः हमें रोग को ठीक से समझना है और उसकी अचूक औषधि का अनुसंधान कर उसे रोगियों को सेवन कराना है। यदि हम ऐसा करेंगे तो कुछ न कुछ सफलता तो हमें मिलेगी। इस दिशा में भी वरिष्ठ आर्य विद्वानों को विचार करना चाहिये और आर्यजगत का मार्गदर्शन करना चाहिये।
वेद प्रचार की वर्तमान स्थिति पर यदि विचार करें तो यह आशाजनक व उत्साहवर्धक नहीं है। वेद आज्ञा है कि सारे संसार को आर्य बनाओं। इसका एकमात्र उपाय वेद प्रचार ही है। इसी के लिए ऋषि दयानन्द ने अपना जीवन लगाया और मोक्ष सुख की भी उपेक्षा कर दी थी। अतः हमारा कर्तव्य है कि अपने गुरु आचार्य और पथप्रदर्शक की भावनाओं के अनुरूप कार्य करें। वर्तमान में जितना विस्तार अन्य मत-मतान्तरों का हो रहा है उस गति से भी आर्यसमाज व वैदिक धर्म का विस्तार नहीं हो रहा है। इसमें आर्यसमाज के संगठन की अनेक खामियां भी प्रमुख कारण हैं। एक प्रदेश में कई कई प्रादेशिक सभाओं का होना और सार्वदेशिक स्तर पर भी अनेक सभाओं का होना आर्यसमाज के प्रचार के लिए शुभ लक्षण नहीं है। यदि ऐसा चलता रहा तो यह वैदिक धर्म और आर्यसमाज के लिए हानिकर व अशुभ ही होगा। हमें वर्तमान परिस्थितियों में व्यक्तिगत स्तर से भी अधिकाधिक प्रचार करना चाहिये। बहुत से लोग ऐसा करते भी हैं। वेदों का प्रचार किसी के स्वार्थ व लाभ से जुड़ा हुआ नहीं है। यह तो कर्तव्य भावना से ही किया जाता है व हो भी रहा है। आवश्यकता है कि हम ऋषि दयानन्द जी व उनके प्रमुख अनुयायियों स्वामी श्रद्धानन्द, स्वामी दर्शनानन्द, पं. लेखराम और पं. गुरुदत्त विद्यार्थी आदि के अनुरूप कुछ कार्य करने का प्रयास करें। आर्यसमाज का वेद प्रचार का कार्य ईश्वर का कार्य है। हमें कर्म करना है, फल ईश्वर के अधीन है। हमें फल की चिन्ता भी नहीं करनी चाहिये। हमारा ध्यान केवल इसी बात पर केन्द्रित रहे कि हम अपने ज्ञान, शक्ति व सामर्थ्य के अनुरूप कार्य कर रहे हैं। हम जानते हैं और विश्वास करते हैं कि सदा सत्य की जय होती है असत्य की नहीं। इसका अर्थ है कि विद्या ही हमेशा विजयी होती है अविद्या नहीं। सत्य का सम्बन्ध विद्या से है और असत्य का संबंध अविद्या से है। यदि ऐसा है तो फिर हमें चिन्ता नहीं करनी चाहिये और अविद्या का नाश करने के लिए स्वयं को समर्पित करना चाहिये। यह आर्यसमाज का नियम भी है। हम जैसा बोयेंगे वैसा ही काटेंगे। अतीत में हमारे पूर्वजों ने जैसा बोया है वैसा ही वर्तमान में काट रहे हैं। अब जैसा बोयेंगे वैसा ही भविष्य की पीढ़िया काटेंगी। इस बात को भी हमें ध्यान में रखना है। वर्तमान स्थिति में कोई यह तो नहीं कह सकता कि आर्यसमाज का भविष्य उज्जवल है परन्तु हमें विचलित न होकर अपने कर्तव्य पर ही अपना ध्यान लगाना है और अपने पुरुषार्थ को ईश्वर की इच्छा के अर्पण कर देना है। इसका फल अच्छा ही होगा। ओ३म् शम्।