सखि,हो गया है अब विहान री,
तू नींद छोड़ कर जाग री।
पंछियों का कलरव गूंज रहा,
सूरज देहरी को पूज रहा।
तू अब तक सोई है री सखि,
आंखों में लिये ख़ुमार री।
चल उठ पनघट तक जाना है,
दो चार घड़े जल लाना है,
मै छाछ कलेवा बनालूं ज़रा,
तू घर आँगन बुहार री।
तू भूल गई क्या आज हमे,
राधा चाची के घर जाना है।
बाल गोपाल जन्मे हैं वहाँ,
अपनी आशीष दे आंये ज़रा,
लकड़ी के खिलौने रक्खे है,
तू दोछत्ती से उतार री।
अब उठ भी जा,इतना न सता,
बहुत पड़ा है काम री।
अब भी न उठी जो तू अगर,
जल की कर दूंगी बौछार री।
2. मेरी नानी का घर
बहुत याद आता है कभी,
मुझे मेरी नानी का घर,
वो बड़ा सा आँगन,
वो चौड़े दालान,
वो मिट्टी की जालियाँ,
झरोखे और छज़्जे।
लकड़ी के तख्त पर बैठी नानी,
चेहरे की झुर्रियाँ,
और आँखों की चमक,
किनारी वाली सूती साड़ी,
और हाथ से पंखा झलना।
नानी की रसोई,
लकड़ी चूल्हा और फुंकनी,
रसोई मे गररम गरम रोटी खाना,
वो पीतल के बर्तन ,
वो काँसे की थाली,
उड़द की दाल अदरक वाली,
देसी घी हींग ज़ीरे का छौंक,
पोदीने की चटनी हरी मिर्च वाली।
खेतों से आई ताज़ी सब्ज़ियां,
बहुत स्वादिष्ट होता था वो भोजन।
आम के बाग़ और खेती ही खेती।
नानी कहती कि बाज़ार से आता है,
बस नमक, ‘’वो खेत मे ना जो उगता है।‘’
कुएँ का मीठा साफ़ पानी।
और अब
पानी के लियें इतने झंझट,
फिल्टर और आर. ओ. की ज़रूरत।
तीन बैडरूम का फ्लैट,
छज्जे की जगह बाल्कनी,
न आंगन न छत
बरामदे की न कोई निशानी,
और रसोई मे गैस,कुकर फ्रिज और माइक्रोवेव,
फिरभी खाने मे वो बात नहीं,
ना सब्ज़ी है ताज़ी,
किटाणुनाशक मिले हैं,
फिर उस पर अस्सी का भाव।
क्या कोई खाये क्या कोई खिलाये।
आज न जाने क्यों ,
नानी का वो घर याद आये।
पहली कविता बार बार पढी। पता नहीं, शायद कविता की लय में यह जादू है, या भूतकाल की प्रभावी झंकार, पर कविता सुखद स्मृतियाँ जगा जाती है। दूसरी कविता भी अच्छी लगी। बीनू जी–धन्यवाद।
कविताओं ने मन मोह लिया है . बीनू जी को बधाई .
सराहना के लियें धन्यवाद
वाह…बहुत सुंदर …!!
सराहना के लियें धन्यवाद
दोनों रचनाएँ अच्छी लगीं। बधाई।