सुना है कि मायावती ने उ.प्र. के उपचुनावों में स.पा. को समर्थन का प्रस्ताव दिया है। उनका कहना है कि वे गोरखपुर और फूलपुर की संसदीय सीट पर अपने वोट उन्हें देंगी। बदले में राज्यसभा और विधान परिषद की सीट के लिए स.पा. को अपने अतिरिक्त वोट ब.स.पा. को देने होंगे। पता नहीं यह प्रस्ताव अखिलेश बाबू ने माना या नहीं; पर कुछ लोगों ने यह घोषित कर दिया है कि ये दोनों 2019 में लोकसभा चुनाव मिलकर लड़ेंगे। 1993 में दोनों ने मिलकर विधानसभा चुनाव लड़ा और मुलायम सिंह के नेतृत्व में उ.प्र. में सरकार बनी थी। उन दिनों एक नारा चला था, ‘‘मिले मुलायम काशीराम, हवा में उड़ गये जय श्रीराम।’’
कई लोग 1993 के वोट प्रतिशत से भावी समीकरण बना रहे हैं; पर चुनाव में दो और दो हमेशा चार नहीं होते। फिर काशीराम जी दिवंगत हो चुके हैं और मुलायम जबरन रिटायर। अब इधर मायावती हैं तो उधर अखिलेश। उ.प्र. में भी योगी हैं, तो दिल्ली में मोदी और शाह की जोड़ी। इसलिए 1993 के आधार पर चुनावी गणना दिमागी कसरत मात्र है। मुख्यमंत्री योगी ने इस पर टिप्पणी करते हुए इसे बेर-केर का साथ कहा है। रहीम जी का वह दोहा बहुत प्रसिद्ध है –
कह रहीम कैसे निभे, बेर-केर को संग
वे डोलत रस आपने, उनके फाटत अंग।।
(रहीमदास जी कहते हैं कि बेर और केले का साथ कैसे हो सकता है ? बेर जब अपनी मस्ती में डोलता है, तो उसके कांटों से केले के पत्ते फट जाते हैं। अर्थात इनका साथ असंभव है।)
इस संदर्भ को देखें, तो स.पा. और ब.स.पा. का वोट बैंक ही नहीं, इनके नेताओं और कार्यकर्ताओं का स्वभाव भी बिल्कुल अलग है। स.पा. की स्थापना मुलायम सिंह ने की थी। वे खुद को डा. लोहिया, जनेश्वर मिश्र और आचार्य नरेन्द्र देव का अनुयायी मानते हैं; पर सत्ता पाकर उन पर भ्रष्टाचार, मजहबवाद और परिवारवाद के आरोप लगने लगे। दूसरी ओर ब.स.पा. की स्थापना काशीराम ने की थी। इससे पूर्व उन्होंने सरकारी कर्मचारियों और निर्धन वर्ग में गहरा काम किया। उन्होंने स्वयं पीछे रहकर हर राज्य में कुशल नेतृत्व खड़ा किया। सबसे पहले उन्हें उ.प्र. में सफलता मिली और यहां मायावती मुख्यमंत्री बन गयीं। यद्यपि फिर उनकी तबीयत बिगड़ गयी और पार्टी पर मायावती का कब्जा हो गया। फिर मायावती ने उनके द्वारा प्रशिक्षित नेताओं को बाहर निकाल दिया। आज ब.स.पा. का अर्थ मायावती और उनकी बात ही ब.स.पा. का संविधान है।
काशीराम ने ही 1993 में स.पा. और ब.स.पा. में समझौता कराया था। 1992 में हुए बाबरी ध्वंस से मुसलमान नाराज थे। इसका लाभ उठाकर दोनों ने हाथ मिलाया। यद्यपि उन्हें बहुमत नहीं मिला; पर भा.ज.पा. विरोधी अन्य दलों को साथ लेकर मुलायम सिंह मुख्यमंत्री बन गये; पर काशीराम का मानना था कि जितनी बार चुनाव होंगे, हमारे वोट बढ़ेंगे। इसी सोच के चलते उन्होंने सरकार से समर्थन वापस ले लिया। इससे उ.प्र. में तूफान आ गया। दो जून, 1995 को मुलायम के साथियों ने लखनऊ के अतिथि निवास में मायावती पर हमला बोल दिया। यदि भा.ज.पा. नेता ब्रह्मदत्त द्विवेदी और कुछ भले पुलिसकर्मी वहां न होते, तो मायावती की इज्जत और जान दोनों ही जा सकती थी। तबसे ही दोनों में स्थायी बैर हो गया।
ऐसा ही विरोध दोनों के प्रतिबद्ध वोटरों में है। स.पा. का मुख्य वोटबैंक यादव है, तो ब.स.पा. का अनुसूचित जाति वर्ग। उ.प्र. में यादव सबसे बड़ा ओ.बी.सी. समुदाय है। गांवों में खेती की अधिकांश जमीन ओ.बी.सी. वर्ग के पास ही है। शिक्षित, सशस्त्र और धनवान होने से उनका राजनीति में प्रभावी दखल है। उनकी जमीनों पर भूमिहीन अनु.जाति वाले मजदूरी करते हैं। अभी तक तो ये दबकर रहते थे; पर अब वे भी शिक्षा तथा नौकरियां पा रहे हैं। इससे उनका मनोबल बढ़ा है। शासन भी उनका उत्थान चाहता है। अतः इनमें प्रायः टकराव होता रहता है। यह मनभेद इतना अधिक है कि ऊपर के नेता भले ही मिल जाएं; पर जमीनी स्तर पर दिल मिलना कठिन है।
यही स्थिति मुसलमानों की है। उनकी बढ़ती जनसंख्या से सब आतंकित हैं। जो दल या प्रत्याशी भा.ज.पा. को हराने में सक्षम हो, वे उसके पक्ष में झुक जाते हैं। इसलिए ये कभी स.पा. तो कभी ब.स.पा. के साथ दिखाई देते हैं। इस माहौल में स.पा. और ब.स.पा. की दोस्ती पर विचार करें। मायावती की विश्वसनीयता शून्य है। वे हर दल के साथ गठबंधन करके उसे तोड़ चुकी हैं। इसीलिए लोकसभा चुनाव में उनका खाता नहीं खुला तथा विधानसभा में वे तीसरे नंबर पर पहुंच गयी।
ब.स.पा. का आधार उ.प्र. में है तथा मायावती उसका एकमात्र चेहरा हैं। अब उन पर बढ़ती आयु का प्रभाव होने लगा है। पार्टी में उनके आगे कोई नेतृत्व भी नहीं है। अर्थात ब.स.पा. का उ.प्र. में कोई भविष्य नहीं है। दूसरी ओर अखिलेश अभी युवा हैं। असली लड़ाई तो विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री की कुरसी के लिए ही होगी। ऐसे में यह साथ निभना असंभव है। योगी जी ने इसीलिए बेर और केर की बात कही है। ऐसा ही एक दोहा ‘बिहारी सतसई’ में भी है।
कहलाने एकत बसत, अहि मयूर मृग वाघ
जगत तपोवन सों कियो, दीरघ दाघ निदाघ।। (565)
(बिहारी जी पूछते हैं कि सांप, मोर, हिरन और बाघ परस्पर शत्रु होकर भी एक साथ क्यों बैठे हैं ? फिर वे कहते हैं कि भीषण गरमी के कारण ये ऐसा करने को मजबूर हैं।)
देश इस समय मोदी के ताप से तप रहा है। शायद इसीलिए स.पा. और ब.स.पा. ही नहीं, कांग्रेस, ममता और वामपंथी जैसे शेष दल भी अपनी शत्रुता छोड़कर एक साथ आने को मचल रहे हैं।
– विजय कुमार