पत्रकारिता के गिरते मूल्यों के दौर में भानु जी जैसे श्रेष्ठ पत्रकार को स्मरण करना जीवटता का काम है। भानु जी ने राष्ट्रवादी साप्ताहिक पत्र ‘पांचजन्य’ के संपादक के नाते जन-जन के मन में अमिट छाप छोड़ी। दैनिक समाचार-पत्रों में भी उन्होंने अनेक मुद्दों पर राष्ट्रवादी दष्टिकोण से निर्भीकतापूर्ण लेखनी चलायी। वे राष्ट्रीय और नैतिक मूल्याधारित पत्रकारिता के प्रति कटिबद्ध थे। इसी विचार को अपने जीवन में उतारकर कलम चलानेवाले यशस्वी पत्रकार नरेश भारतीय ने भानु जी के प्रति शब्द-श्रद्धांजलि समर्पित की है। निश्चित रूप से यह युवा पत्रकारों के लिए पाथेय है।(सं.)
नियतिवश देश से दूर जा बसने की मेरी पीड़ा को उन्होंने जान लिया था. भारत लौटने के बार बार असफल होते मेरे प्रयासों को भी आंका. उनके मन में मेरी हर समस्या का हल ढूंढने की तत्परता जन्म ले चुकी थी. और मैं भी उन की हर बात को अधिक व्यवहारिक मान कर महत्व देने लगा था. लिखता तो मैं था ही और तब तक एक अंतर्राष्ट्रीय रेडियो प्रसारक के नाते भी पत्रकार जगत में पग आगे बढ़ा चुका था. लेकिन उनके द्वारा प्रस्तुत माध्यम से स्वदेश के प्रति अपने अंतर्मन की भावनाओं को मुखर अभिव्यक्ति देने के लिए प्रेरित किए जाने का महत्व अपने आप में विशिष्ट था.
सुप्रसिद्ध पत्रकार श्री भानुप्रताप शुक्ल जो मेरे लिए सिर्फ ‘भानुजी’ थे, उस समय पांचजन्य के प्रधान संपादक थे जब १९७८ में पहली बार मिलने के बाद उन्होंने मुझसे कहा था – “पांचजन्य के लिए स्तम्भ लिखो, मैं छापूंगा.” इसी संदर्भ में, २ जनवरी १९७९ को उनके मेरे नाम लिखे एक पत्र के ये शब्द मेरे लिए अमूल्य निधि हैं – “पांचजन्य के लिए आपको क्या लिखना है, यह बताने की आवश्यकता नहीं है. हम दोनों एक ही नाव पर सवार हो कर महासागर पार करने के लिए प्रयत्नशील हैं, एक ही महासमर में संघर्षरत सैनिक की तरह विचार, भावनाएँ और हमारी आवश्यकताएं भी समान हैं. लिखिए जिससे देश और समाज को कुछ मिल सके. अपने संस्मरण लिखिए वहाँ के भारतीयों के सम्बन्ध में.” भानुजी एक राष्ट्रवादी चिंतक, लेखक एवं निर्भीक पत्रकार थे. उन्होंने अपना समस्त जीवन राष्ट्र को समर्पित किया. अपने लिए कभी भी न कुछ सोचा, न चाहा और न ही यश लाभ प्राप्ति के उद्देश्य से कुछ किया ही. इस पर भी उनके पास दूसरों को देने के लिए बहुत कुछ था. उन्होंने सिर्फ दिया ही किसी से लिया नहीं. समाज को दिया, देश को दिया. व्यक्तियों को दिया. प्रेम, सेवा, सहायता, समर्थन और मार्गदर्शन.
मैं लंदन में रहता था और अपनी एक स्वदेश यात्रा के दौरान दिल्ली में एक सांसद मित्र श्री प्रेम मनोहर जी के निवासस्थान पर, पहली बार उनसे मिला था. परिचय के बाद अपनी बातचीत में हमने देश, परदेश, यत्र, तत्र, सर्वत्र भारतीय समाज की दशा और दिशा पर लंबी चर्चा की. यही वार्ता हमारे बीच एक विचार सक्षम और दीर्घकालिक स्नेह सम्बन्ध के निर्माण का आधार भी बनी. उनके भारत में ही बने रहते देश के प्रति पूर्ण समर्पण भाव और मेरे तन से विदेश में रहते लेकिन मन से प्रति क्षण भारत में ही विचरते, स्थान की दूरियों को पाटने वाली हमारी विचार चिंतन धारा का एक ही उद्गम स्थल था ‘संघ’. इसलिए, कहीं भी कोई वैचारिक विराधाभास नहीं था. राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्य निर्वहन की सोच और समझ में एक अद्भुत समानता थी. भानुजी जो कुछ भारत में रहते हुए लिखते थे उस भाषा को मैं समझता था और जो मैं इंग्लैण्ड में करने और लिखने की सतत चेष्ठा में रहा उसे उन्होंने हमेशा जाना, समझा और सराहा.
पांचजन्य के लिए पहले भी मै यदा कदा लिख चुका था जब श्री देवेन्द्र स्वरूप और श्री दीनानाथ मिश्र उसके संपादक थे. भानु जी से इस प्रकार खुला निमंत्रण मिलने के बाद मैंने क्रमबद्ध लिखना शुरू किया. उन्होंने संपादक की छुरिका चलाए बिना उसे निरंतर छापा. ‘हम परदेशी’ स्तम्भ के अंतर्गत अनेक संस्मरण लिखे. भारत के राजनीतिक घटनाचक्र पर लन्दन से समीक्षाएँ लिखीं. भानुजी हर सप्ताह स्वयं राष्ट्रचिन्तन शीर्षक से अपना एक स्तम्भ लिखते थे. एक दिन भारत के सम्बन्ध में गए मेरे एक लेख को इसी स्तम्भ के अंतर्गत उन्होंने छाप दिया. मुझे लगा यह तो अवश्य कोई भूल हुई है. मैंने लन्दन से फोन मिला कर भानु जी से सीधी बात की. उनका उत्तर था ”नरेश जी, जो मैंने लिखा था उसी विषय पर आपने भी लिखा. मुझे आपका लेख अच्छा लगा, सो मैंने उसे ही अपने स्तम्भ में दे दिया. क्या गलत किया भाई?” मैं स्तब्ध रह गया. मेरे लिए यह गौरव की बात थी.
जब कभी मैं भारत आता उनसे सबसे पहले संपर्क करता. देश की राजनीतिक दशा और दिशा पर बहुत सी बातें होतीं. अपने मित्र वर्ग के साथ सहज भाव से मिलाते भानुजी. दिल्ली के टोडरमल लेन, बंगाली मार्केट में उनके सबसे ऊपर वाले तल्ले पर उनकी बैठक जमा करती थी. अनेक बुद्धिजीवी, समाजसेवी और नेता उनसे मिलने आते. हर वर्ष या दो वर्ष में मुझे प्राय: उनके पास बैठे देखते थे. बड़े प्यार भरे दावे के साथ भानुजी सबसे कहा करते “मेरे दो दो घर हैं. एक यहाँ और एक लन्दन में. लन्दन वाले मेरे घर की देखभाल नरेश जी करते हैं.” १९९९ में, एक विश्व हिन्दी सम्मेलन लन्दन में आयोजित किया गया था. भानुजी उसमें भारत से अपने अन्य भारतीय लेखक पत्रकार मित्रों के साथ आए. उनके ठहरने की जो व्यवस्था आधिकारिक रूप से की गई थी उसे छोड़ कर ‘अपने घर’ आकर रहने का मन हुआ तो झट मुझे फोन किया. कहा – ‘नरेश जी, कल जब आप सम्मेलन में आएं तो अपनी गाड़ी लेते आएं. मैं आपके साथ ही यहाँ से निकल लूंगा और अपने घर में ही आकर रहूँगा.” वे आए और हमारे पास कुछ दिन रहे. हमारे दो बेटों वीरेश और सिद्देश को स्नेहाशीष दिया. ऐसा था उनका अद्वितीय अपनत्व भाव. उन्हीं दिनों उनके साथ बातचीत में उन्होंने मुझसे पूछा “तुम अपनी पहली पुस्तक लिखने वाले थे, क्या हुआ उसका?”
“लिख ली है, बस एक बार फिर से देखना है”- कहा था मैंने. भानुजी ने तुरंत कहा- “लाओ, दिखाओ.” मैं अपने कमरे में गया और हस्तलिखित अपनी पांडुलिपि की फाइल उठा लाया. उन्होंने कुछ पन्ने पलटे, पढ़े और कहा – “इसे पैक करके मेरे सूटकेस में रख दें.” मैं विस्मय में दिखा तो कहने लगे –“निश्चिन्त रहो भाई, इसका उपयोग होगा.” उनके भारत लौट जाने के कुछ ही दिनों के अंदर एक प्रकाशक का अकस्मात फोन मिला –“हम आपकी पुस्तक ‘सिमट गई धरती’ छाप रहे हैं.यह पुस्तक मेरा आत्मकथ्य है और मेरे जीवन के एक महत्वपूर्ण पक्ष, मेरी सोच और स्वानुभूत सत्यों पर प्रकाश डालता है. भानु जी के संपर्क और प्रयत्न से वर्ष २००० में प्रवीण प्रकाशन ने इसे प्रकाशित किया. उसके बाद और पुस्तकें भी छपीं जिनमें से एक ‘आतंकवाद’ के लोकार्पण की योजना बनाई जा रही थी. मैं दिल्ली पहुंचा और भानुजी के पास बैठे हुए मैंने उनसे पुस्तक लोकार्पण प्रथा के सम्बन्ध में उनका निजी मत पूछा. उनकी बेबाक टिपण्णी थी “लोकार्पण की यह प्रथा जो बन गई है मैं निजी रूप से इसे पसंद नहीं करता. वस्तुत: लेखक को यह मान कर चलना चाहिए कि उसकी रचना जब छप कर पाठक के पास पहुँच जाती है तो उसका स्वत: लोकार्पण हो जाता है. फिर चैराहे पर खड़े हो कर बिकने का क्या तुक है. इससे कुछ भी हासिल नहीं होता.” कैसी अद्भुत निर्लिप्तता अपने लिए, लेकिन मेरे लिए ये सब आयोजन वे स्वयं करवा रहे थे.
उनके दिल्ली स्थित आवास में प्रवेश करते ही बैठक में उनके आसन के पीछे की दीवार पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सर संघ चालक श्री मा. स. गोलवलकर “श्री गुरूजी” और भारतीय जनसंघ के शीर्ष नेता स्वर्गीय पंडित दीन दयाल जी के आकर्षक चित्र यह स्पष्ट करते थे कि भानुजी किस पथ के पथिक थे. पूर्ण प्रतिबद्धता के साथ उन्होंने राष्ट्रवाद से ही अपना जीवन जोड़ रखा था. वे आजीवन संघ के प्रचारक रहे. पांचजन्य के संपादक पद से मुक्त होने के बाद उन्होंने स्वतंत्र स्तम्भ लेखन में अपने राष्ट्रहित सर्वोपरि चिंतन को पासंग मात्र भी आंच नहीं आने दी. उसके ही अनुरूप पूर्ववत अपनी लेखनी की निर्भीकता को बनाए रखा. देश की राजनीति के सम्बन्ध में विविध चर्चा उनके आवास पर होने वाली बैठकों में खूब होती. भानुजी ध्यान से सबकी सुनते थे, मन ही मन विश्लेषण करते थे लेकिन अपनी ओर से बहुत कम कहते थे. विशिष्ट महत्व के समाचार उन तक उनके संपर्कों द्वारा उपयुक्त माध्यम से पहुंचते थे. परस्पर वैचारिक आदान प्रदान में एक बार भानुजी ने मुझसे कहा था कि ”लेखक को अपनी चिंतन दिशा के अनुरूप अपनी बात कहने से कभी भी झिझकना नहीं चाहिए. वह जो है उसे छुपाने का प्रयास नहीं करना चाहिए. अन्यथा उसकी विश्वसनीयता नहीं बनती.”
वर्ष २००५ में कहा था एक दिन भानुजी ने मुझसे “नरेश जी, परम पूज्य श्री गुरूजी पर एक पुस्तक लिखने की मेरी इच्छा रही है. मैं शारीरिक कष्ट के कारण अब लिखने की स्थिति में नहीं हूँ. हाथ कांपता है. यह काम कोई कर सकता है तो एक ही व्यक्ति है जिस पर मैं भरोसा कर सकता हूँ. और वह हैं आप. आप भी संघ के प्रचारक रहे हैं. परम पूज्य श्री गुरूजी से मिल चुके हैं. विचारधारा से पूर्ण परिचित हैं. मेरी और आपकी सोच एक जैसी है. मैं चाहता हूँ कि आप ही इस काम को अपने हाथ में लें और मेरे इस संकल्प की पूर्ति में सहायक हों.” मैं स्तब्ध रह गया और कहा “भानुजी, मैं नहीं जानता कि मैं इतना महत्वपूर्ण काम कैसे कर पाउँगा.” “लेकिन मैं यह जानता हूँ कि आप ही मेरे इस संकल्प को पूरा कर सकेंगे, नरेश जी” उत्तर दिया था उन्होंने. “बस एक दो दिन में आप इस पर चिंतन मनन करके इसकी योजना तैयार कीजिए. आप यह पुस्तक लिखेंगे, पुस्तक जब छप कर मेरे हाथों में पहुंचेगी तो मैं सुख का अंतिम सांस लेकर इस दुनियां से जाऊँगा.”
उनके ये शब्द आज भी मुझे उन भावुक क्षणों का स्मरण दिलाते हैं. भानु जी का आदेश मेरे लिए मेरे बड़े भाई का आदेश था. उन्हें न कहने का साहस मैं नहीं कर सकता था. बस इतना ही कहा मैंने उनसे ”आप इधर उधर की बातें न करें भानु जी. मेरा मन दुखता है. ठीक है आप यही चाहते हैं न कि यह काम मैं पूरा करूं. यह मैं अवश्य करूँगा. बस आप स्वस्थ रहें और अपना स्नेह देते रहें”. मैंने समय नहीं खोया. लन्दन लौटने से पहले ही पुस्तक की रूपरेखा तैयार करके दो दिन के अंदर अपनी लेखन योजना उनके सामने रख दी. श्री गुरूजी समग्र संदर्भ ग्रन्थ और अनेक और उपयोगी सामग्री शोध अध्ययन के लिए मैं अपने साथ लन्दन ले गया.
परम पूज्य श्री गुरूजी के नेतृत्व गुणों का विश्लेष्णात्मक अध्ययन प्रस्तुत करते हुए ‘युग भगीरथ श्री गुरूजी‘ मेरी यह पुस्तक वर्ष २००६ में प्रकाशित हुई जिसकी भूमिका भानुजी ने लिखी थी. उसी वर्ष मार्च-अप्रैल में, मेरे सपत्नीक स्वदेश प्रवास पर आने से पूर्व यह पुस्तक उनके पास पहुंच चुकी थी. बड़ी प्रसन्नता के साथ उन्होंने मुझे साधुवाद कहा. मेरे भैया भानुजी का संकल्प पूरा चुका था. मैं प्रसन्न था कि वे प्रसन्न हैं. लेकिन उनकी बढती हुई अस्वस्थता मेरे लिए अत्यंत चिंता उत्पन्न करने वाली थी. हम सब जानते हैं कि जिसे जब जाना है, जाना ही है. किसी के द्वारा की जाने वाली चिंता और भगवान से की जाने वाली अनुनय विनय इहलोक से किसी को परलोक में जाने से रोक नहीं सकते. मुझे तभी से यह आभास था जब वर्ष २००४ के अपने भारत प्रवास के दौरान मैं प्रतिदिन अपोलो अस्पताल में भानु भैया को उनकी रोगशय्या पर पड़े देखने जाता था. जानता था कि जिस कैंसर का इलाज हो रहा है वह लाइलाज है. मन अपने अत्यंत प्रिय मित्र को खो देने के भय से संत्रस्त था. एक दिन जब मैं अस्पताल में उनके कक्ष में पहुंचा तो देखा भानुजी की प्रिय दीदीमां साध्वी ऋतंभरा उनके पास बैठीं उनका माथा दबा रहीं थीं. काफी समय तक मैं भी बैठा रहा उनके पास और उनका हाथ अपने हाथ में लेकर सहलाता रहा. दीदीमां की तरफ कातर दृष्टि से देख रहे थे भानु भैया जैसे कोई शिशु पीड़ा में अपनी माँ से स्नेह का दान मांग रहा हो. भानुजी अपनी जननी के प्यार और स्पर्श से तो नियतिवश बचपन में ही वंचित हो गए थे.
हर वर्ष, १७ अगस्त को उनकी पुण्यतिथि आती है तो मेरे मन मस्तिष्क में उनके प्रेरक सुखद सानिध्य में बिताए अनेक अमूल्य क्षण ताज़ा हो उठते हैं. उनके अंतिम क्षणों तक मेरा फोन संपर्क उनके साथ बना रहा. काफी समय तक कष्ट भोगने के बाद २००६ में उनका जब देहावसान हुआ तो उससे मात्र कुछ ही दिन पूर्व मेरी बात उनके साथ लन्दन से टेलीफोन पर हुई. बेहद कष्ट में थे. बोल नहीं पा रहे थे. इस पर भी उन्होंने मुझसे कहा “नरेश जी, मेरी चिंता न करें मैं ठीक हूँ”. उनके देहावसान से लगभग चार मास पूर्व उसी वर्ष मार्च-अप्रैल में मैं और मेरी पत्नी वीरेन्द्र नई दिल्ली में, उनके टोडरमल लेन स्थित निवासस्थान पर उनसे मिले थे. हमने मिल कर एक साथ भोजन किया था. वैसी ही बातें कीं थीं जो हम बरसों से जब भी मिल बैठते थे, करते थे. बिल्कुल महसूस नहीं होने देते थे भानुजी कि उन्हें कोई गंभीर कष्ट है. लेकिन मैं और उनके अनेक मित्र जानते थे कि वे कितना कष्ट झेल रहे हैं. कहते थे “मुझे अभी बहुत कुछ करना है, लिखना है, कहना है, और समय कम है”. मेरी लन्दन वापसी के लिए विदा देते वक्त भींच कर गले मिले. फिर कभी मिलना होगा या नहीं कौन जाने, कुछ ऐसा था आभास हम दोनों को उन क्षणों में. जुबान बंद रही लेकिन आँखों ने आंसुओं के सहारे हमारे मन की आशंकाओं के रहस्य को उजागर कर दिया.
उनके शरीर त्याग देने का समाचार मुझे दिल्ली से फोन पर मेरे और उनके परिचित एक मित्र ने दिया. उससे कुछ दिन पहले तक अस्पताल में उपचार चलते उनके साथ फोन पर मेरी संक्षिप्त बात होती रही. लेकिन उनकी अंत्येष्टि पर जाने का साहस मैं नहीं कर पाया, क्योंकि अब उनसे प्रत्यक्ष मिलने और घंटों बैठ कर वार्तालाप करने, एक साथ भोजन करने और उनकी बैठक मैं अन्य स्नेही मित्रों के साथ मिलने की उम्मीद हमेशा के लिए जा चुकी थी. मेरे लिए यह असहनीय स्थिति थी. अपना अनुज माना था उन्होंने मुझे और उनके अंतिम श्वास लेने तक मुझे उनके साथ अपना सुख-दु:ख, और सहज वैचारिक आदान प्रदान का सौभाग्य मिला था. उनके शरीर को अग्निदेव को भेंट करने की अपने हिंदू समाज की परम्परा के निर्वहन में मैं शामिल न हो सका यद्यपि हमारे समस्त परिचितों को यह उम्मीद थी कि मैं पहुंचूंगा. उन क्षणों में हजारों किलोमीटर दूर बैठा मैं उनकी स्नेह्स्निग्ध स्मृतियों का आँचल बिछाए उनकी आत्मा की शांति और इस धरती पर देश और विदेश में उनके नाम और काम को अमरत्व प्रदान करने की प्रार्थना ईश्वर से कर रहा था.
एक ही नाव पर सवार लेकिन यह कैसे कि कोई पहले किनारा पा लेता है और कोई बाद में. यही तो कहा था न उन्होंने कि एक महा समर में एक सैनिक की तरह हमारे विचार और भावनाएं एक समान हैं. यह सही है कल भी थीं, आज भी हैं. वे तब चले गए और मुझे भी उसी निर्दिष्ट तक जाना है जिसका अपना कोई अंत नहीं है. जब तक हूँ मेरे साथ वे भावनाएं जीवित रहेंगी जो मैंने भानुजी के साथ बरसों तक साँझा कीं. यही तो कहा था उन्होंने एक दिन कि हमारे जाने के बाद भी ये भावनाएं जिन्हें हम लिखित अभिव्यक्ति दे रहे हैं किसी न किसी रूप में जीवित रहेंगी. मेरा भी यही मत रहा है कि ये भावनाएं भारत के उस सांस्कृतिक सत्य के साथ जुडी हैं जो अजर अमर है. उसे आज का स्वार्थपूर्ण सतत भ्रम प्रसार झुठला नहीं सकता. देश की वर्तमान भ्रष्ट एवं सत्ता मदान्ध स्वार्थपूर्ण राजनीति के धुंधलके में इस सत्य पर पर्दा डालने का कितना भी दुष्प्रयत्न होता रहे इसे छुपाया नहीं जा सकता. यह है भारत की ऐतिहासिक हिंदू राष्ट्रीयता का सत्य जो देश के हर भारतीय की रग रग में समाया है और इसे मजहबों की तंग सोच की चारदीवारी में बंद नहीं किया जा सकता. इसे आज का हर भारतीय सहजता से स्वीकारे या किसी दबाव या निजी स्वार्थवश न भी स्वीकारे, उस का प्रत्यक्ष प्रमाण हर भारतीय के जीवन व्यवहार में स्वयमेव मिलता है.
भानुजी की बैठक अब दीदीमाँ के वृन्दावन स्थित वात्सल्य ग्राम में ठीक वैसे ही प्राण प्रतिष्ठित है जैसी उनके जीवित रहते दिल्ली स्थित उनके निवासस्थान में बरसों तक रही है. वही गद्दा जिस पर वे बैठते थे. वही मेज़ और कुर्सी जिस पर बैठ कर अपना चिंतन स्तम्भ लिखते थे. शीशे की वही अल्मारियां जिसमें वे सब पुस्तकें रखी हैं जो उनके पास रहती थीं. कुछ नई भी जोड़ दी गईं हैं. उनका वही चश्मा जो पहनते थे, उनकी कलम और पैड सब सुरक्षित रखे हैं. एक कुर्सी पर भानुजी की एक ऐसी प्रतिमा रखी है जो अपने आप में सजीव है. इस वर्ष अप्रैल में जब मैं और मेरी पत्नी वीरेंद्र पहली बार उनके इस स्मृति स्थल को देखने गए तो लगा भानुजी प्रत्यक्ष सामने बैठे हैं. ठीक वैसे ही जैसे हम बरसों से उन्हें देखते चले आए थे. हमारे साथ हमें यह स्मारक स्थल दिखाने भेजे गए आश्रम के लोगों से कहा- “मुझे आप कुछ समय के लिए यहीं रुकने दीजिए, जल्दी जाने को मत कहना. मैं अपने भानु भैया से मिल तो लूँ” यही वे क्षण थे जब मैं उनके जाने के बाद भी उनके साथ यूं मिल कर मन की बातें कर सका था. हमारी दीदीमां उन दिनों वहाँ थी नहीं, इसलिए उनके साथ भानुजी के लिए अपने मन की इन भावनाओं को बांटने का अवसर नहीं मिल पाया. भानुजी की पुण्य स्मृति में ध्येय साधना स्थल का निर्माण करवा कर दीदीमां ने उनकी चिंतन धारा को आने वाली पीढ़ियों के अध्ययन और शोध का केंद्र बना कर समाज को उत्तम दिशा संकेत दिया है.
दीपावली पर भानु भैया की यादों के साथ,
नरेश भारतीय
नरेश जी बहुत बहुत धन्यवाद।
जब भानु प्रताप जी “ग्लोबल व्हिजन टु थाउज़ण्ड” के अवसर पर वॉशिंग्टन आए थे, तो आप के अहंकार रहित व्यवहार को निकट से अनुभव करने का अवसर प्राप्त हुआ था।
आज आपके लेख के कारण गहरा परिचय प्राप्त हो सका। आप का लेख नितान्त सजीव हो पाया है।
कुछ पंक्तियां==>
अहं (कार) का बलिदान बडा है;
देह के बलिदान से।
वही होता धन्य है ।
इस तथ्य को जो जान ले।
मेरा सौभाग्य था की मैंने भानुजी के साथ कानपुर के एक संघ शिक्षा वर्ग में, बौद्धिक विभाग में एक मास तक व्यवस्था संभाली थी. उसके बाद उनसे संपर्क अंत तक रहा. उनका कोई भी लेख उठा कीजिये, अप्रतिम होगा. मंदिर आन्दोलन के समय दिल्ली के बोट क्लब पर हुई अद्वितीय सभा की उपस्थिति पर किसी ने उनसे प्रश्न किया कि इस अपार जनसमूह को कैसे वर्णित किया जाए. उनका उत्तर था “क्षितिज से क्षितिज तक” . ऐसा शब्द विन्यास था उनका. मुझे तो लगता है कि पत्रकारिता का जो स्तर उन्होंने छुआ, वह पत्रकारिता का प्रारम्भ और अंत दोनों ही निर्धारित करता है.
आदरणीय नरेश जी ने भानुजी की यादें ताज़ा कराकर मन गीला कर दिया. मेरा स्वर्गीय भानु जी से केवल आठ दस बार मिलना हुआ होगा. जब कभी भी विट्ठल भाई पटेल भवन में सिन्धु ताई से मिलने जाते थे तो अक्सर भानुजी मिल जाया करते थे. खूब बातें होती थीं. आज पुनः उनका स्मरण इस लेख के माध्यम से करके वो सारे पल आँखों के आगे घूम गए. उन्हें मेरी शाब्दिक श्रद्धांजलि.