भीमा कोरेगांव : इतिहास की बुनियाद पर जातीय सियासत

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प्रमोद भार्गव

भारत का यह दुर्भाग्य ही है कि आजादी के 70 साल बाद भी जातीय दुराग्रह यहां-वहां हिंसा की क्रूर इबारत लिख जाते हैं। ऐसा इसलिए भी है, क्योंकि आज तक हम इतिहास के पन्नों पर दलित और आदिवासी समुदायों के आकांता मुस्लिमों और अंग्रेजों से हुए संघर्ष को ठीक से रेखांकित नहीं कर पाए हैं। हमें नहीं भूलना चाहिए कि अंगे्रजों की पहली बड़ी जीत जो 23 जून 1757 पलासी पर कब्जा करके हुई थी, उस समय तक भारत में अंग्रेज सैनिकों की संख्या महज 30 हजार थी और वह 33 करोड़ भारतीयों पर राज करने में युद्धरत थे। 1857 में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की जब गुप्त रूप से व्यूह-रचना की जा रही थी, तब अंग्रेजी सैनिकों की संख्या केवल 40 हजार थी। वे भी बंगाल, बंबई और मद्रास प्रेसिडेंसियों में बंटे हुए थे। ऐसे में अंग्रेज रानी लक्ष्मीबाई, तत्याटोपे, नाना साहब को परास्त करने में इसलिए सफल हुए, क्योंकि अंग्रेजों के साथ ग्वालियर के सिंधिया, इंदौर के होल्कर, बड़ौदा के गायकबाढ़, नेपाल के राजा, भोपाल की बेगमें, पटियाला और जींद के नरेषों की सेनाएं थीं। इन सेनाओं में ब्राह्मण, सिख, राजपूत, गोरखा और रूहेले सैनिक थे। यह विंडबनापूर्ण स्थिति है कि जिन सामंतों ने फिरंगी हुकूमत को भारत में राज व विस्तार करने में सहयोग देकर देश के साथ नाइंसाफी की उनके वंशज आजादी के बाद सांसद, विधायक, मंत्री और मुख्यमंत्री हैं, लेकिन महार जाति के जो चंद दलित सवर्णों की उपेक्षा के चलते अंग्रेजी संेना के सैनिकों के रूप में सामंतों से लड़े और विजयी हुए, उन्हें शोर्य-दिवस मनाने पर आपात्ति जताई जाती है ?

पुणे से शुरू होकर महाराष्ट्र, कर्नाटक और गुजरात तक फेलने वाला दलित आंदोलन जहां स्थानीय सरकारों की नाकामी हैं, वहीं उन तथाकथित इतिहासकारों को भी आईना है, जो वामपंथ और धर्मनिरपेक्षता के नाम छद्म इतिहास लिखते रहे हैं। जबकि इतिहासज्ञों को देशद्रोही सामंतों और शुद्र कहलाने वाले आदिवासी व दलितों के आजादी और अस्मिता से जुड़े संघर्ष को भी इतिहास के पृष्ठों पर उल्लेखित करना था। जिससे उनकी गरिमा महिमामंडित होती और भारतवासी उससे सबक लेते ? यदि हम पुणे मंडल की ही बात करें तो वहां भी दलितों ने मुस्लिमों और अंग्रेजों से लड़ने वाली क्षेत्रीय सत्ताओं को जान हथेली पर रखकर सहयोग दिया था।

पुणे से करीब 30 किमी दूर अहमदनगर मार्ग पर भीमा कोरेगांव के निकट ही बढू-बुदरक गांव है। भीमा नदी के किनारे स्थित इसी गांव में औरंगजेब ने 11 मार्च 1689 को छत्रपति शिवाजी के जयेष्ट  पुत्र और तत्कालीन मराठा शासक संभाजी राजे भोसले और उनके साथी कवि कलश की निर्दयतापूर्वक हत्या कर दी थी। लोक में प्रचलित दंतकथाओं और फिरंगी रोजनामचे में दर्ज घटना-क्रम से पता चलता है कि इसी गांव के निवासी गोविंद गणपतराव गायकवाड़ ने मुगल बादशाह की चेतावनी को दरकिनार करते हुए संभाजी के क्षत-विक्षत अंगों को एकत्रित किया, उन्हें जोड़ा और उनका अंतिम संस्कार किया। जीवन को जोखिम डालकर अंत्येष्ठी करने वाले गणपत राव उसी दलित महार जाति के थे, जो कालांतर में 1 जनवरी 1818 को अंग्रेजी सैनिकों के रूप में पेशवाओं से लड़ी थी। महार जाति के इन सैनिकों की संख्या करीब 600 थी। बाद में मुगलों को जब गणपत राव द्वारा संभाजी की दाह-क्रिया की जानकारी मिली तो सेना भेजकर गणपत राव को भी निर्ममता से मौत के घाट उतार दिया।

बुदरक गांव में जिस स्थल पर संभाजी राजे की समाधि है, उसी स्थ्ल पर ग्रामीणों ने गोविंद गणपत राव के बलिदान को सम्मान देने की दृष्टि से उनकी भी समाधि बना दी। इस जातीय संघर्ष से फूटकर जो खबरें सामने आई हैं, उनसे पता चलता है कि भीमा कोरेगांव में पेशवा-ब्रिटिश युद्ध की 200वीं वर्षगांठ धूमधाम से मनाए जाने के उल्लास में बुदरक गांव में गोविंद गायकवाड़ की समाधि को भी सजाया गया था। किंतु 30 दिसंबर 2017 की रात को कुछ विध्वंसक तत्वों ने इस सजावट को ध्वस्त कर दिया। समाधि में लगा गोंविद गणपत के नामपट्ट को भी क्षतिग्रस्त कर दिया। दलित-मराठा संघर्ष की पृष्ठभूमि में यही क्षति आक्रोश और हिंसा का कारण बनी। इसके लिए दोशी मराठा समाज के कुछ उच्च वर्ग के लोगों ने शिव प्रतिष्ठान के संस्थापक संभाजी भिड़े गुरूजी और समस्त हिंदू आघाड़ी के अध्यक्ष मिलिंद एकबोटे को ठहराया है।

संकीर्ण बुद्धि आतिवादी जातीयता की जकड़बंदी में जकड़े लोग यहां सवाल उठा सकते हैं कि महार जाति के जो सैनिक अंग्रेजों से लड़े, वे पेशवाई सैनिक भी बन सकते थे ? इसमें कोई दो राय नहीं कि जब देश मुगल और अंगे्रज शासकों का गुलाम था, तब भारतीय सामंतों की सेना में छोटी जाति से संबंधित समुदायों को कमोबेश शामिल नहीं किया जाता था। इसलिए मराठा शासक रहे हों या उत्तर भारतीय सामंत सबकी सेनाओं में ब्राह्मण, राजपूत, गोरखा, जाट आदि सेनाएं तो मिलती हैं, लेकिन आदिवासी, जाटव या अन्य जाति समुदायों से जुड़ी सेनाओं का उल्लेख नहीं मिलता। जाहिर है कि महार जैसी जातियां रूढ़िवादी अछूत मानसिकता के चलते सेना में शामिल नहीं हो पा रही थीं। यह भारतीय सामंतों की भारत को गुलाम बनाए रखने की एक बड़ी कमजोरी थी। इसलिए जो छोटी जातियों के लोग थे, वे आसानी से अंग्रेजी सेना के सैनिक बनते चले गए।

लेकिन अंग्रेजी सैनिकों में बड़ी संख्या केवल उपेक्षित जातियां ही थीं, ऐसा भी नहीं था। उच्च सवर्ण भी अंग्रेजी सैनिक थे। यहां गौरतलब है कि अंग्रेजी सैनिक बनकर अंग्रेजी सत्ता का वर्चस्व बनाए रखने वाले सैनिकों का स्वाभिमान जगाने का काम भी एक दलित ने किया था। हुआ यूं कि जब बैरकपुर के पास दमदम का एक ब्राह्मण सैनिक पानी भरा लौटा लिए छावनी की ओर जा रहा था, तब यकायक एक महतर ने निकट आकर प्यास बुझाने के लिए लोटा मांग लिया। सिपाही चंूकि ब्राह्मण था, इसलिए एक हद तक रूढ़िवादी भी था। अस्पृश्यता की भावना से ग्रस्त था। गोया, उसने लोटा देने से इनकार कर दिया। तब महतर ने सिपाही का उपहास उड़ाते हुए कहा, ‘अब जात-पात का घमंड छोड़ो। क्या तुम्हें मालूम नहीं कि तुम्हें दांतों से काटने वाले जो कारतूस दिए जा रहे हैं, उनमें गाय की चर्बी और सूअर का मांस मिला हुआ है। जिससे हिंदू और मुस्लिम दोनों का ही धर्म भ्रष्ट हो जाए।‘ जानकारी से आगबबूला हुए सिपाही ने छावनी के अन्य सैनिकों को यह जानकारी दी। इस तथ्य की पुष्टि कारखाने में काम करने वाले मजदूरों और कंपनी व ठेकेदार के बीच हुए उस दस्तावेजी अनुबंध से भी हुई, जिसमें बिना किसी लाग-लपेट के लिखा था कि ‘मैं गाय की चर्बी लाकर दूंगा।‘ इसके बाद दस्ती-पत्रों के जरिए यह समाचार देशभर की सैनिक छावनियों में फैल गया। इस घटनाक्रम के बाद ही मंगल पाण्डेय नाम के अंग्रेजी सेना में सैनिक ब्राह्मण युवक ने 29 मार्च 1857 को पहली गोली अंग्रेज अधिकारी सारजेंट मेजर ह्यूसन की छाती पर दागी। इसी के बाद देश के बहुत बड़े हिस्से में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की आग भड़की। इन तथ्यों से पता चलता है कि अंग्रेजी सेना में उच्च जाति के लोग थे, इस लिहाज से महारों ने यदि अंग्रेजी सेना का साथ दिया तो कोई बड़ा गुनाह नहीं किया ?

प्रत्येक जाति व धर्म समुदाय की अपनी जातीय गरिमा होती है। इस लिहाज से दलितों की भी अपनी गरिमा है। गोया अन्य जातीय समूहों को उनकी गरिमा का सम्मान करना चाहिए। भारत की कोई भी एक जाति का इतिहास ऐसा नहीं रहा, जो पूरी की पूरी विदेशी आक्रातांओं से लड़ी हो। इसलिए न केवल समूचे बहुजन समाज को सम्मानजनक दर्जा देने की जरूरत है, बल्कि इन्हें ‘शुद्र‘ के कलंक से भी मुक्त करने की जरूरत है। उच्च जातियों को इस लिहाज से यह भी ध्यान में रखने की जरूरत है कि वर्तमान शुद्रों और वैदिककालीन शुद्रों में बहुत ज्यादा अंतर नहीं है। ये भी अंततः उन्हीं ऋषि-मुनियों के वंशज व ष्गोत्रीय हैं, जिनकी सवर्ण जातियां हैं। डाॅ भीमराव आंबेडकर ने अपनी पुस्तक ‘हू वेयर शुद्राज‘ में लिखा है, ‘मुझे वर्तमान शुद्रों के वैदिककालीन ‘शुद्र‘ वर्ण से संबंधित होने की अवधारणा पर शंका है। वर्तमान शुद्र वर्ण से नहीं हैं, अपितु उनका संबंध ब्राह्मण, राजपूत और क्षत्रियों से है।‘ इस तथ्य की पुष्टि इस बात से होती है कि भारत की अधिकांश दलित जातियां अपनी उत्पत्ति का स्रोत राजवंशियों, क्षत्रीयों एवं राजपूतों में खोजती हैं। बाल्मीकियों पर किए गए ताजा शोधों से पता चला है कि अब तक प्राप्त 624 उपजातियों को वर्गीकृत करके जो 27 समूह बनाए गए हैं, इनमें दो समूह ब्राह्मण और शेष 25 क्षत्रियों के हैं। इस्लाम धर्म अपनाने के तमाम दबाव के बावजूद डाॅ आंबेडकर ने सनातन हिंदू धर्म से निकले बौद्ध धर्म का अपनाया, तो इसलिए क्योंकि उन्होंने वर्ण व्यवस्था को ठीक से समझ लिया था। इस लिहाज से सभी उच्च जातीय सवर्णों को आंबेडकर और उनके जाति समुदायों के प्रति कृतज्ञ होना चाहिए, क्योंकि यदि वे बौद्ध के बजाय इस्लाम धर्म अपना लेते तो भारत के एक बड़े भू-भाग में सनातन हिंदू अल्पसंख्यक हो गए होते। लिहाजा इतिहास की अतीत से जुड़ी बुनियाद पर जातीय सियासत देश के लिए घातक है।

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  1. स्पष्टतः संसार में सबसे भयंकर १९४७ के विभाजन में रक्तरंजित स्थांनांतरण के पश्चात् जब पश्चिम में भारतीय सीमा पर पाकिस्तान चिरकाल से शत्रु बने आतंक फैलाये हुए है, हम स्वयं ब्रिटिश-इंडिया के इतिहास को हृदय से लगा एक राष्ट्र नहीं बन पाएं हैं| क्यों?

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