विविधा

बिहार: जो घर जारे आपने चले हमारे साथ

वाल्मीकि रामायण में भगवान राम से कहलवाया गया है..अपि स्वर्णमयी लंका, न में लक्ष्मण रोचते, जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी…यानी हे लक्ष्मण, लंका भले ही सोने की है लेकिन मुझे बिलकुल पसंद नहीं क्‍योंकि जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़ कर है. ऐसे ही अपने जन्मभूमि से लौट कर सतीश सिंह जी द्वारा वर्णित वाकया पढ़ कर इस लिक्खर को भी अपने बिहार की याद आ गयी. अपने हाल की बिहार के सालना “हज” के दौरान ऐसे ही मिले-जुले वाकये से अपना साबका भी हुआ. विभाग चाहे केंद्र का हो या राज्य का अंततः बिहार में होने पर सब बिहारी ही हो जाता है. भाई को दरभंगा से पटना जाकर दिल्ली के लिए ट्रेन पकडनी थी, ऐन मौके पर पता चला कि मुजफ्फरपुर से आगे बस नहीं जा पा रही है. फिर पता चला के दरभंगा से पटना की ओर जाने वाली गरीब रथ आज लेट है सो वहाँ कोशिश की जा सकती है. ट्रेन मिली भी इस ट्रेन में अग्रिम आरक्षण कराने पर ही बैठना संभव हो पाटा है सो डब्बे में टीटी महोदय को अपनी समस्या बता कर एवं उनकी अनुमति लेकर साधारण टिकट के साथ उनको बैठा दिया गया. कुछ देर के बाद ही भाई का फोन आता है कि टीटी ने बिना कोई रसीद दिए उतार देने की धमकी देकर उनसे २५० रुपया की वसूली कर ली.

अब आप जैसा कि सतीश जी ने लिखा है..अगर आप संगठित हो तो क्युकर ऐसे ट्रेन को रोक ना लिया जाय और टीटी से जुर्माना सहित अपनी राशि वापस पायी जाय? समस्या सबसे बड़ी केवल नौकरशाही की है. और बिहार भी इससे ज्यादे ही ग्रस्त दिखाई दे रहा है. निश्चित ही नीतिश कुमार बिहार के लिए काफी कुछ कर रहे हैं. सही ही बिहार को देश में आज सबसे तेज़ी से रफ़्तार पकडती अर्थव्यवस्था घोषित किया गया है. ज़मीन पर आपको विकास की किरनों को देखने का अवसर भी मिलेगा. लेकिन पिछले पन्द्रह बरस के लालू दम्पात्ति राज और उससे पहले के कांग्रेस राज द्वारा नष्ट-भ्रष्ट कर दी गयी व्यवस्था में रातों-रात आप कितने परिवर्तन की उम्मीद कर लेंगे? लेकिन सबसे बड़ी बात ये कि वास्तव में जैसा उस वर्णन में भी कहा गया है, हालत को सुधारने बिहारियों को ही आगे आना पड़ेगा. पर यक्ष प्रश्न तो यह है कि आखिर वो आगे आयें कैसे. पिछले पचास वर्षों के अराजकता से निराश हो कर देश और दुनिया के कोने-कोने में जा अपनी रोजी-रोटी ढूंढ लेने वाले अनिवासियों से क्या हम यह अपेक्षा कर सकते हैं कि वो अपना सब कुछ समेट कर वापस बिहार आ जाए. उस बिहार में जहां की जातिवादी रंगदारी, लूट और गुंडागर्दी से आहत हो कर उन लोगों को अपना बोरिया बिस्तर ले कर किसी अनजाने ठिकाने पर चला जाना पड़ा था. या उस बिहार में जहां पर लालू के पुनः पदारूढ़ होने की आशंका से फिर भी काँप रहे हैं लोग. निश्चित ही अपनी माटी अपने लोगों से भावनात्मक प्यार रखने वाले लोगों को भी ऐसा कोई फैसला लेना आत्महत्या के सामान ही लगेगा. तो आखिर विकल्प क्या है. शायद वही जो इस लेखक ने वहाँ प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी जकर रहे छात्रों से की.

लेखक के एक मित्र जिन्होनें अपने जिंदगी का कीमती दस वर्ष इन प्रतियोगिताओं को देकर भी वे पूर्णतः सफल नहीं हो पाए वो मधुबनी में इसकी तैयारी के कोचिंग चला रहे हैं. वहाँ प्रतिस्पर्द्धियों की काफी संख्या है. वही कक्षा में दो सत्र में कुछ देर छात्रों के साथ बिताने का मौका मिला. जो निवेदन वहाँ के छात्रों से था वही यहाँ भी कहना चाहूँगा कि “पलायन” बिहारियों का एक मात्र विकल्प है. जैसा कि किसी शायर ने कहा है…”सूरज की मानिंद सफर पर रोज निकालना पड़ता है. बैठे-बैठे दिन बदलेंगे इसके भरोसे मत रहना.” निश्चित रूप से देश के कोने-कोने में (और विदेशों में भी) जाय. जाकर अपने मिहनत एवं प्रतिभा का डंका भी बजाएं. लेकिन मन में ये भावना अवश्य रहे कि बिहार का हर व्यक्ति अपने अपने राज्य का राजदूत रहे. उनकी कोशिश ये रहना चाहिए कि जिस तरह उनकी प्रतिभा का देश लोहा मानता है वैसे ही उनकी अच्छाइयों, भलमनसाहत का भी नाद हो. दुर्भाग्य से कुछ तो मित्रों की कृपा और कुछ हम लोगों की कारस्तानी काफी नकारात्मक छवि निर्मित हुई है. खैर..भविष्य को तलाश करने वाली आज की पीढ़ी निश्चित ही भाग्यशाली है इस मामले में कि फिलहाल उसको एक सौम्य नेतृत्व मिला है. साथ ही इस मामले में भी कि आज लाखों की संख्या में अवसर छात्रों के पास है. जिस शिक्षक से वे कोग पढ़ रहे हैं उस पीढ़ी को लड़ना पड़ता थ रेल के १०० पोस्ट तो बैंक क्लर्क के २०० पोस्ट के विरुद्ध. वो पीढ़ी इतना भाग्यशाली नहीं थी, लेकिन आज एक-एक संस्थान २०-२० हज़ार की संख्या में वेकेंसी निकाल रहे हैं. फिर राज्य में भी अवसरों में वृद्धि हुई है. बहरहाल….उम्मीद की जानी चाहिए कि बिहार विकास के रफ़्तार पर जिस सरपर तरीके से दौर रहा है नयी पीढ़ी उस रफ़्तार में और वृद्धि कर बिहार को अपना पुराना गौरव वापस दिलाने में मददगार होंगे..चाहे वो जहां भी निवासरत हो. इस मायने में ही लोगों को आगे आने की ज़रूरत है.

-पंकज झा