सुशासन बाबू के राज में वेंटिलेटर पर बिहार

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कोरोना महामारी थमने का नाम नही ले रही है। इसी बीच कई राज्य बाढ़ की चपेट में आ गए हैं। वैसे कोरोना ने यूं तो अपना असर हर परिवेश पर डाला है, फिर बात चाहे राजनीति की हो या सांस्कृतिक और धार्मिक या फिर आर्थिक क्षेत्रों की, लेकिन कुछ राज्य ऐसे भी है जो न केवल कोरोना के संकट से गुजर रहे है बल्कि कोरोना के साथ ही साथ बाढ़, भूकंप जैसी प्राकृतिक आपदाओं के प्रकोप से भी गुजर रहे है। उन्ही राज्यों में से एक राज्य है बिहार। यूं तो बिहार कई कारणों से प्रसिद्ध है। बिहार को अतीत के झरोखे से देखने जाएंगे। तो उसका सुंदरतम और स्वर्णिम इतिहास देखने को मिलेगा, लेकिन उसका वर्तमान उतना ही धूमिल पड़ता जा रहा है। नालंदा विश्वविद्यालय और पाटलिपुत्र को कौन भूल सकता है? जब इनका ज़िक्र होता है, तो ऐसे लगता जैसे कि हम किस महान सभ्यता की बात कर रहें। इन सब के बीच जब वर्तमान बिहार की स्थिति देखें तो ऐसा लगता जैसे लोकतंत्र के नाम पर बिहार का सत्यानाश कर दिया गया है। आज स्थिति यह हो गई है कि वह एक राज्य कहलाने की हैसियत में भी नहीं रह गया है। राजनीति के जयचंदो ने बिहार के साथ ऐसा छल-कपट किया है कि उसका स्वर्णिम इतिहास तो गंवा ही दिए हैं, उसका भविष्य भी बर्बाद करने पर तुले है। राजा विशाल का गढ़, जिसे आज वैशाली के रूप में जाना जाता है, वहां गणतंत्र ने पहली बार आकार ग्रहण किया था। वह भी बिहार में है। भले यह माना जाता कि दुनिया में लोकतंत्र यूरोप से आया, लेकिन यह सच नहीं। लोकतंत्र की जड़ तो बिहार से निकली है, लेकिन वर्तमान दौर में उसी लोकतंत्र के नाम पर सबसे ज़्यादा ठगा भी बिहार को ही गया है। 
    आज के बिहार की खस्ताहाल देखकर कौन कहेगा, कि विश्व का सबसे प्राचीनतम  विश्वविद्यालय बिहार में था। कौन मानेगा कि देश को चलाने वाले सबसे अधिक प्रशासनिक वर्ग के बौद्धिक लोग बिहार से ही निकलते हैं, लेकिन बिहार का दुर्भाग्य है कि यह सब बिहार की देन होने के बावजूद वह आज अपने अस्तित्व के लिए सिसकियां भर रहा है। न शिक्षा व्यवस्था का कोई ढांचा है, न चिकित्सा का। बाढ़ और चमकी बुख़ार तो आए वर्ष बिहार के लोगों और वहां की हुक्मरानी व्यवस्था का इम्तिहान लेते ही हैं। कोरोना काल के दौरान की तस्वीर ही उठाकर देख लीजिए सबसे ज़्यादा प्रवासी मजदूर कहीं के थे, जो अपने घर लौटने को मजबूर थे तो वह बिहार के ही थे। ऐसे में किस सुशासन की बात वहां की हुक्मरानी व्यवस्था करती है। यह बात हज़म नहीं होती है। 
         वैसे बिहार की राजनीति भी कोई कम तिलस्मी नही रही है। भले ही सभी दल यहां डींगें मारते न थकते हो कि हम जातिवाद को बढ़ावा नही देते है, हम विकास और सुशासन की बात करते हैं। लेकिन बिहार एक ऐसा राज्य है जहां कि राजनीति के रग-रग में जातिवाद रचा-बसा है। बिहार की राजनीति में जातिवाद का खेल मंडल कमीशन के दौर से शुरु हुआ और तब से लेकर अब तक इस जातिवाद का जहर बिहार की राजनीति में फलता फूलता रहा है। जिसने बिहार के विकास की बहार को खांचे में बांधकर रख दिया है। बात चाहें कोरोना काल की हो या बिहार में आने वाली बाढ़ की या फिर चमकी बुखार की हो। ऐसा नही है कि बिहार में आपदा पहली बार आई है। अब तो बिहार की नियति ही आपदा बनती जा रही, लेकिन सियासतदां सिर्फ़ राजनीतिक अवसर की फ़िराक में रहते हैं। इस बार भी बिहार में राजनीति की बारात सजनी शुरू हो गई है। वह भी कोरोना और बाढ़ के दौर में। ऐसे में लगता तो यही है, बिहार भले बाढ़ में बह जाएं। वह सियासत के जयचंदो को मंजूर है, लेकिन कुर्सी की लड़ाई में वो पीछे नहीं रहने चाहिए। चलिए बिहार की वर्तमान स्थिति की बात कर लेते हैं। बिहार में बाढ़ का प्रकोप हमेशा परेशानी का सबब बना रहा है। वर्तमान में भी बिहार के करीब 38 जिले बाढ़ की समस्या से त्रस्त है। एक तरफ बिहार में बाढ़ का खतरा पैर पसार रहा है तो वही दूसरी तरफ कोरोना संक्रमण के आंकड़ो में भी बिहार देश का दूसरा सबसे बड़ा राज्य बन गया है। प्रतिष्ठित मेडिकल जर्नल लैंसेन्ट ग्लोबल हेल्थ की रिपोर्ट के मुताविक मध्यप्रदेश के बाद कोरोना संक्रमण में बिहार दूसरा राज्य बन गया हैं। मध्यप्रदेश में संक्रमण फैलने की रफ्तार 1 परसेंट है तो बिहार में 0.971 हो चुकी है। 
      कोरोना ने बिहार के स्वास्थ्य सेवाओं की भी कलाई खोल कर रख दी है। ऐसे में बिहार की राजनीति के सुशासन बाबू इस आपदा की घड़ी में दुशासन की भूमिका में ही नजर आ रहे है। बिहार के सबसे बड़े कोविड अस्पताल एनएमसीएच के हालात तो इतने बुरे है कि लोग ईलाज के लिए तरस रहे है। आए दिन बिहार के अस्पतालों की बदहाली के वीडियो मीडिया की सुर्खियां बन रहें हैं। लेकिन राज्य के सुशासन बाबू चैन की नींद सो रहे है। उन्हें न बिहार से मतलब है और न ही बिहार की 12.85 करोड़ जनता से कोई सरोकार है। तभी तो स्वास्थ्य सूचकांकों में बिहार कई मामलों में निचले पायदान पर है। इन सब के बावजूद डबल इंजन की सरकार अवाम का ख़्याल न करते हुए चुनावी मोड़ में जाती दिख रही है। यहां डॉक्टर और मरीजों का अनुपात दयनीय है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) कहता है कि 1 हजार मरीजों पर एक डॉक्टर होना चाहिए, लेकिन बिहार में एक सरकारी डॉक्टर के कंधों पर 28 हज़ार 391 लोगों के इलाज की ज़िम्मेदारी है। वह भी जब कोरोना और बाढ़ की आफ़त से सूबा बेहाल है। वहीं, अस्पतालों की बात करें, तो बिहार में प्राइमरी हेल्थ सेंटरों की संख्या 1,900 के करीब है जबकि आबादी के हिसाब इनकी संख्या 3,470 होनी चाहिए। इसी तरह कम्युनिटी हेल्थ सेंटरों की संख्या 867 होनी चाहिए, जबकि अभी मात्र 150 ही है। पूरे राज्य में महज 9 मेडिकल कॉलेज हैं। ऐसे में किस आधार पर सुशासन की कथा लिखी जा रहीं। वह तो राम ही जानें, वैसे राम मंदिर का निर्माण भी शुरू होने वाला है। शायद राम नाम के भरोसे इस बार भी आगामी बिहार चुनाव में सुशासन का डबल इंजन जीत जाएं, लेकिन उस अवाम का क्या? जो अभी कोरोना और बाढ़ की चपेट में है। कब तक उसे झूठे सुशासन का लॉलीपॉप दिया जाता रहेगा। यह अपने आप में बड़ा सवाल है!

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