बिम्ब के कवि अलविदा!

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सुनहरे परों वाले दो पक्षी
संसार-विटप पर बैठे
खैनी मल रहे हैं
साक्षीभाव की पतोहू
ताज़े गोबर से
चौका लीप रही है

ज्ञानमार्ग की मँझली बुआ
झरोखे से
बतकुच्चन में मस्त हैं
नादयोग की माई
आँगन में बैठी
अरहर पछोर रही हैं

विवर्तवाद और प्रत्यभिज्ञा
सत्कार्यवाद के साथ
आइस-पाइस खेल रहे हैं
बछिया के मूत्र की धार
तनिक दूर तक बहकर
गर्द में जज़्ब हो गई है

शाम से रात हो ही गई
ढिबरी धुआँ दे रही है
केदारनाथ सिंह मर गए हैं
हिन्दी की ख़ौफनाक क्रिया
पीली रोशनी में
उबासी ले रही है

 मूल सन्देश  : ‘संसरति इति संसारः’ में सब निर्द्वन्द्व है सब तथता है.

 

1 COMMENT

  1. कविता में मूल संदेश अलग से लिखने की परंपरा नहीं है!

    अंतिम छंद में तीन पंक्तियाँ, इस _जीवन-यात्रा_ के सतत प्रवाह का द्योतन करती हैं, जिसका कोई अन्तिम बिन्दु नहीं होता। इसका अधूरापन ही पूरेपन की संभावना रचता है।

    इसे ठीक कराएं (जैसी भेजी थी) अन्यथा हटा दें।

    सादर,
    माधव

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