बीसवी शती में वेदों का प्रकटीकरण?

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डॉ. मधुसूदन

मेरा एक मित्र भारत जा रहा था। उस के द्वारा मैंने एक ”छंदो दर्शन” नामक पुस्तक, यूं सोच कर, कि कविता के छंदों की पुस्तक होगी, जो भारतीय विद्या भवन ने प्रकाशित की थी, मंगाई। पर मेरे आश्चर्य का पार न रहा, जब मैं ने उसे खोला, तो, वह आधुनिक समय में प्रकट हुए, ऋग्वेद के नए मंत्र-दर्शन की पुस्तक थी। सातवें दशक में छपी हुयी, और विद्वत्जनों के लक्ष्य़ से उपेक्षित? इसलिए सोचा कि, क्यों न इस ओर प्रवक्‍ता के पाठकों का ध्यान आकर्षित करूं? यदि, कुछ पाठकों को, इस पुस्तक को पढ़ने की प्रेरणा प्राप्त हो, तो प्रवक्ता का उद्देश्य भी सफल होगा। कम से कम पाठकों को, जानकारी मिलेगी। इस लेखन में, मैंने केवल पत्रकारिता ही निभाई है, एक डाकिए का काम किया है, इससे अधिक कुछ नहीं।

क्या, वेद मंत्रों का प्रकटीकरण आज भी संभव हैं? हाँ, क्यों नहीं? पूछते हैं, काव्यकंठ गणपति मुनि ।

यदि, ब्रह्म-दर्शन आज भी किया जा सकता है, निश्चित ही महत प्रयासों से, और उन्ही विधियों से जो शास्त्रों ने निर्देशित कर रखी हैं। शब्द-ब्रह्म दर्शन, या वेद-मंत्र दर्शन, की शक्यताएं भी निर्विवाद स्वीकारनी पडेगी। इस संदर्भ के प्रकाश में, यह ऋषि दैवरत की समाधिस्थ अवस्था में, छंदों का प्रकट होना, यह नए वेद मंत्रों का स्पष्ट और ठोस प्रमाण है।

ऋषि दैवरत उस समय १९ वर्ष के युवा थे। उन्हें संस्कृत का ज्ञान भी साधारण ही था। कुल पंद्रह दिन-रात सतत् उनकी समाधि लगी रही। माना जाता है, कि समाधिस्थ अवस्था में अन्य सभी आवश्यकताएं निलंबित हो जाती है, वही हुआ। उनके मुखसे मंत्र पर मंत्र प्रकट होते रहे। पंद्रह दिन तक यह क्रम चलता रहा। उस समय, युवा दैवरत १९१७ में, रेणुकाम्बा के परिसर में, उनके गुरू गणपति मुनि, (शकराचार्य) के सान्निध्य में, उग्र तपस्या कर रहे थे, समाधि में उतर गए, और उनके होठों से कुछ शब्द प्रकट होने लगे। दो दिनों तक इस चमत्कार को देखने के पश्चात, उनके गुरू काव्य कंठ गणपति मुनि ने सुनिश्चित किया, कि यह तो, ऋग्वेदिक छंदों की अभिव्यक्ति हैं, और फिर आपने उन मंत्रों को कई दिनों तक, जब तक वे प्रकट होते रहे, उतार लिए।

पश्चात इन मंत्रों को आपने ८ अनुवाकों में क्रमबद्ध किया, और समग्र ग्रंथ को छन्दोदर्शनम् नाम दिया।

एक उच्च कोटि के स्फुरित आर्ष-काव्य होने के अतिरिक्त छंदोदर्शन की विषयवस्तु केवल स्तुतिपूर्ण और अंतर्वेधी ही नहीं पर दर्शनात्मक और प्रेरक भी है। मंत्रों के विचार सुसंगत रीति से, तर्कशुद्ध क्रम से, एवं कलात्मक ढंग से क्रमबद्ध किए गए हैं। ओज एवम् ऊर्जा का ओतप्रोत संचार भाषा में अनुभूत होता है। जब ऋषि ब्रह्मन् (Cosmic Gods) की, ब्रह्मांडाधिपति इश्वरकी, इंद्रकी, सरस्वति की, ब्राह्मणस् पति की, बात करते हैं, तो पाठक उन्नत-भाव-भारित शब्दों की, संकल्पना ओं से भर जाता है।

यह पुस्तक भारतीय विद्या भवन ने सातवें दशक में प्रकाशित की थी। मेरी दृष्टिमें, वैदिक संशोधकों को इस ग्रंथ का गहन अध्ययन करना चाहिए। मंत्रों के गूढ़ अर्थ भी प्रकट करने चाहिए।

विद्वान पंडित, आर आर दिवाकर की प्रस्तावना से जाना, कि, इसका अन्वय भाष्य बहुमुखी प्रतिभाके धनी, श्री रमण महर्षि के शिष्य श्री गणपति मुनि जी (जिनका नाम ऊपर आ चुका है) ने किया है। विशेष: आर. आर. दिवाकर जी ने, इस ग्रंथके कुछ अंशोपर, जब पुणें के, महामहोपाध्याय दत्तो वामन पोत्दार का ध्यान आकर्षित किया, तो वे बोले, कि वेद के, संहिता-करण के २ हजार वर्ष बाद, पहली बार उन्हें ऐसा अवसर, कि जिसमें ऋग्‍वेद की नवीन ऋचाएं प्रकट हुई हो, प्राप्त हुआ है।

जब इन्हीं अंशो को दूसरे वैदिक मनीषी, श्री विनोबा भावे को दिखाए, तो वे विस्मय से पुकार उठे, ”अरे, यह तो नया ऋग्वेद है।” (मराठी में–>”हा नवीन ऋग्वेद आहे”.)

स्वर्गस्थ डॉ. एम. एस. अण्ये, वैदिक संशोधन मंडल के अध्यक्ष, और उसी मंडलके सचिव डॉ. सोनटक्के ४५० नए ऋग्वेद मंत्रों को देख, आश्चर्य स्तंभित हुए।

डॉ. हॅन्स पिटर, विख्यात जर्मन वैदिक पंडित जो उसी समय (यह दिवाकर जी के शब्दों का ही अनुवाद मैं ने किया है।) भारत आ कर गए थे, उन्होंने ऋग्वेद की ऋचाओं के, सामान्य निकष लगाकर, कहा था, कि यह ऋचाएं पूर्ण रूपसे ऋग्वैदिक शैली की हैं। उन्होंने अन्वय भाष्य की भी प्रशंसा की थी, कहा था, कि उन्होंने क्वचित ही इतनी समृद्ध और गहन टीका भी देखी है।

ज्ञान पाने के दो मार्ग है। एक बाह्य और दूसरा आंतरिक। इस आंतरिक मार्ग की बात मैंने परिव्राजक स्वामी स्व. तिलक जी से सुनी थी। जिन्होंने पश्चिम के अनेक देशों का भ्रमण किया था। वेदांत का प्रचार किया था। उन्हें विश्व की अनेक भाषाओं का ग्यान था।

पातंजल योग की ध्यान विधि भी इसी समाधि के, मार्ग से ज्ञान प्राप्त कराती है। विशेष में, हाल ही में प्रकाशित ”Vedic Physics” जो पुस्तक, एक युवा विद्वान, फिज़िक्स के, पी. एच. डी, श्री राजा राम मोहन रॉय, (यह वे राजा राम मोहन रॉय नहीं, जिन्होंने सुधार लाए थे।) ने भी यही विधि की ओर संकेत किया है। उनकी पुस्तक की मांग इतनी बढी, कि आज वह पुस्तक भी अप्राप्य, कहीं कहीं दो सौ डॉलरों में बिकती है।

बहुत समय से इस विषय पर जानकारी देना चाह रहा था, आज कुछ संभव हो पाया।

फिर भी कुछ त्रुटियां रह गयी हो सकती है।

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डॉ. मधुसूदन
मधुसूदनजी तकनीकी (Engineering) में एम.एस. तथा पी.एच.डी. की उपाधियाँ प्राप्त् की है, भारतीय अमेरिकी शोधकर्ता के रूप में मशहूर है, हिन्दी के प्रखर पुरस्कर्ता: संस्कृत, हिन्दी, मराठी, गुजराती के अभ्यासी, अनेक संस्थाओं से जुडे हुए। अंतर्राष्ट्रीय हिंदी समिति (अमरिका) आजीवन सदस्य हैं; वर्तमान में अमेरिका की प्रतिष्ठित संस्‍था UNIVERSITY OF MASSACHUSETTS (युनिवर्सीटी ऑफ मॅसाच्युसेटस, निर्माण अभियांत्रिकी), में प्रोफेसर हैं।

8 COMMENTS

  1. Interesting. Any person spiritually sufficiently advanced could speak spiritual truths when in yogic trance. The words /presentations could be new, but the truths will be same as in the Vedas or Bhagavad Gita, the 700-verse short summary of the Vedas.
    jai sri Krishna!

    • सुरेश जी–आप की टिप्पणी पढी।
      पातंजल योग दर्शन अवश्य आप से सहमत होता है।
      पर, श्री. दैवरत के गुरु श्री. शंकराचार्य, गणपति मुनि ने भी प्रयास किया था; (कुछ कारणवश) सफल नहीं हुए। दत्तो वामन पोत्दार भी २००० वर्षों के पश्चात पहली बार, का मन्त्र दर्शन ऐसा ही उल्लेख करते हैं। आलेख में भी यह बात बताई गई हैं।
      लगता है; कि आचार शुद्धि, चारित्रिक शुद्धि, ब्रह्मचर्य और अन्य संयमों का पालन परमावश्यक है। जिसके अभाव में, ऐसा संभव होते हुए भी कठिनातिकठिन है।
      धन्यवाद।

  2. पं. विश्वमोहनजी, प्रणाम।आज अचानक इस लेख पर ध्यान गया।तब आपका संदेश पढा। निश्चित करूंगा।पर कुछ ढंगसे करने में समय लगेगा। फिर, अभी अमरिका की अंतर राष्ट्रीय हिन्दी समिति का सम्मेलन २९-३० अप्रैल को हो रहा है। उसमें कुछ व्यस्तता है।

  3. BAHOOT,SARAHNIA, AVM PRASHNSHNIA YAH LEKH HAI………………………..!
    ”VEDIK SHODH” AAPKA LAGATAR YUN HI GAGANCHUMBI HOTA RAHE ……..!

  4. अभिषेक जी-टिप्पणी के लिए, धन्यवाद। यह ग्रंथ ४९२ पृष्ठों का है। कुछ ऋचाओं का उद्धरण आगे करूंगा।पर, इस काम में कुछ “सिद्ध पुरूष” की आवश्यकता होती है।मैं उसका अधिकारी नहीं हूं।शब्दों के अर्थ वे नहीं होते,जो सामान्यतः भाषा में प्रयुक्त होते हैं। वैसे अर्थकरणसे तो तथाकथित दांभिक-विद्वान-भस्मासुर जन्म ले कर हम पर ही प्रहार करेंगे। जिसका परिणाम आज भी स्पष्ट दिखाई देता है।
    मेरे “विचार और आकलन” मर्यादा में, कुछ विषय वस्तु-दर्शन का, प्रयास कर सकता हूं। पर, यह किसी सिद्ध पुरूष का काम है।फिर और उत्तरदायित्व, भी तो निर्वाह करना होता है। नेट ढूंढता हूं।

  5. अगर आप इस विषय को विस्तार से व पुस्तक की सामग्रि देते तो बहुत ज्यादा उचित होता वरना अभी तो एसा लग रहा है कि आपने दुर से कुआ दिखा दिया लेकिन पथिक वहा तक पहुचने का रास्ता भुल गया अर्थात निवेदन है कि विस्तार से बताएये व कोयि नेट का लिन्क हो तो वो भी बता सकते है मेरि इन विषय मे अत्यधिक रुचि भी है…………….

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